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कुण्डली भावों के तारतम्य
त्रिस्कन्धज्योतिर्विद् शशांक शेखर शुल्व
(वेद-व्याकरण-निरुक्त-छन्दः-साहित्य-ज्योतिषायुर्वेदाद्यनेका-शास्त्रपारावारीणः)
कुण्डली के द्वादश भावों के चयन में एक तारतम्य देखने में आता है। यथा…
१. प्रसव के समय सर्वप्रथम कपाल दिखाई पड़ता है। यह भाव १ है।
इसके बाद आँख नाक मुँह दिखता है। यह भाव २ है।
तत्पश्चात् हाथ व कन्था बाहर आता है यह भाव ३ है।
फिर छाती दिखती है। यह भाव ४ है।
तब पेट बाहर होता है। यह भाव ५ है।
पुनः कमर दिखाई पड़ती है। यह भाव है। अनन्तर गुह्यांग दिखता है। यह भाव ७ है।
बाद में ककुद नितम्ब निकलता है। यह भाग ८ है।
पश्चात् उरूप्रदेश बाहर आता है। यह भाव ९ है।
इसके अनन्तर घुटना बाहर आता है। यह भाग १० है।
इसके उपरान्त होंगें दिखायी पड़ती है। यह भाव ११ है।
अन्त में पैर बाहर आता है। इस प्रकार जातक योनि से मुक्त होता है। यह भाव १२, मोक्ष भाव है।
२. गर्भ से मुक्त होकर जातक बाहर आता है यह उद्भवन प्रभवन आविर्भाव जन्म है। शरीर देह वा तनु का विद्यमान होना भाव है। जन्म के पश्चात् शिशु रोता है, साँस लेता है, देखता है। उसे भूख लगती है। वह दुग्धपान करता है। इस प्रकार दूसरा भाव है-मुख नाक आँख वा श्रुति प्राणन क्रिया एवं भोजन से शरीर मेशक्ति उत्पन्न होती है। जातक बल, साहस पराक्रम का प्रदर्शन करता है। यह भाव ३ है। क्रियाशीलता से वह थक जाता है। विश्राम वा निद्रा की आवश्यकता होती है। यह माता के अंक का आश्रय लेता है। इस प्रकार भाव ४ माता का भाव है। माता सुख देन है। माता का कारक चन्द्रमा है। चन्द्रमा विराट् पुरुष के मन को कहते हैं। अतः सुख मन माता विचार भाव ४ से ही किया जाता है। मन वा भावना से हटकर बालक तर्क वितर्क करता है। क्यों और कैसे का विचार बुद्धि का गुण है। विचार बुद्धि विवेक तर्क मेधा का संबंध पञ्चम भाव से है। बालक वर्तमान से हट कर अपने भविष्य विषय में सोचने लगता है, अध्ययन करके बुद्धि का उपयोग करता है। भाव ५ भविष्य पठन भी है। के
तर्कणाशक्ति का विकास होने पर विधि-निषेध । उल्लंघन करता है। अशुभ कर्म है। उसके शत्रु होते हैं। वह रोगग्रस्त होता है। वह अवरोध का सामना करता है। लड़ाई झगड़े करता है। व्रण या घाव होते हैं। इस प्रकार भाव ६, रोग शत्रु अवरोध का है। यौवन के एकाकीपन में उसे अभाव का अनुभव होता है। वह विपरीत लिंग की ओर आकर्षित होता है। मैथुन में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार भा ७ कामभावना वा प्रतिपक्ष का स्थान है। भोग भोगने से शरीर क्षीण होता है। देह दोष का भय सताने लगता है। जरा-मृत्यु की चिन्ता से प्रस्त हो कर वह इधर उधर भटकता है। भाव ८ मृत्यु आयु भय दोष अपमान का बोधक है। इन सबसे मुक्तिपाने के लिये वह किसी दिव्यपुरुष संत गुरु शरण में जाता है। प्रारब्ध में विश्वास करता है। अतः भाव ९, भाग्य धर्म गुरु से संबंधित है। अपने दुःख से निवृत्त होने के लिये वह कर्म में प्रवृत्त होता है, पिता का मुखापेक्षी होता है। राज्य से सहायता लेता है। अतः भाष १० कर्म पिता राज्य से संबंधित है। कर्म में प्रवृत्त होने से उसे सिद्धि मिलती है लाभ होता है। अतएव भाव ११ लाभ वा सिद्धि वा इच्छापूर्ति का भाव है। जब लाभ होता है तो उसे वह खर्च करता है। अन्त्य अवस्था में वह पुत्र पौत्रों के बन्धन में रहता है। अन्त में शरीर त्याग कर परलोक के मार्ग पर आरूढ़ होता
है। इस तरह भाव १२, व्यय बन्धन त्याग देहान्त से संबंधित है। कुण्डली के भावों का यह तारतम्य अधियों की उदात्त एवं प्रकष्ट प्रतिभा पारगामी दिव्य दृष्टि, अखण्ड योग, उर्वर ऊहा तथा अन्यतम वैष्णव चिन्तन का सुफल है। अपने पूर्वज ज्योतिर्विद् अषियों को में बारम्बार प्रणाम करता हूँ।
ओ३म् ।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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