भक्ति योग से मुक्ति
श्री सुशील जालान (ध्यान योगी )-
Mystic Power- श्रीमद्भागवत पुराण को पंचम वेद माना गया है। इसके मुख्य विषय हैं भक्ति तथा प्रेम रस। श्री भगवान् के विभिन्न चरित्र एवं उनकी भक्तों पर अहैतु की कृपा की कथाएं जीवन नैया को भवसागर से पार लगाने के श्रेष्ठ साधन हैं। भक्तियोग सर्वोत्तम साधना है, जिसके दो फल बताए गए हैं,
ज्ञान तथा वैराग्य,
– ज्ञान का अर्थ है निर्गुण ब्रह्म का और सगुण ब्रह्म के परा तथा अपरा आयामों का बोध,
– परा सगुण ब्रह्म का चैतन्य आत्म पुरुष स्वरूप है, अलौकिक दिव्य सिद्धियों का धारक हैं,
– अपरा है सगुण ब्रह्म की त्रिगुणात्मिका प्रकृति का, जीवभाव तथा पंचमहाभूतों का, लौकिक प्राकट्य।
भक्तियोग में भक्त आत्मसमर्पण करता है अपने ईष्टदेव के सम्मुख। आत्मसमर्पण का अर्थ है अहंकार का अर्पण। अहं अर्पण अर्थात् , बाह्यकरण सहित अंत:करण का अर्पण। इससे समनाड़ी सुषुम्ना जाग्रत होती है जिसमें स्व-आत्मबोध संभव होता है।
– स्व-आत्मा निर्गुण निराकार है, वृत्ति विहीन चित्त है, जिसमें सभी देवी-देवताओं का, दिव्य सिद्धियों का, दिव्यास्त्रों का, देवों के ऐश्वर्य का वास है, सूक्ष्म संस्कारों के रूप में।
हनुमान चालीसा में गोस्वामी तुलसीदास का कथन है –
“अष्ट सिद्धि नव निधि के धाता,
असबर दीन्हि जानकी माता”,
देवी सीता जी ने अष्ट सिद्धियों तथा नौ निधियों का वरदान दिया वीर हनुमान को, उनकी भगवान् श्रीराम के प्रति निःस्वार्थ, निष्काम भक्ति से, सेवा भाव से, प्रसन्न होकर। इस वरदान के फलस्वरूप ही वायु पुत्र हनुमान जी वीर से महावीर हो गए।
– तमोगुणी हनुमान जी ने न कोई तप किया था, न ही किसी गुरुकुल में वेदादि की शिक्षा प्राप्त की थी। अर्थात्, निःस्वार्थ, निष्काम भक्तियोग से, देवी की उपासना से, सिद्धियां, निधियां उपलब्ध हो सकती हैं।
एक और प्रसंग देखें –
“अंत काल रघुबर पुर जाई,
जहां जन्म हरि भक्त कहाई”।
– हनुमान चालीसा,
यह फल है जन्म से श्रीहरि / श्रीराम, श्रीकृष्ण की भक्ति का, कि मृत्यु के समय श्रीहरि के भक्त होने का फल, यानि कि जन्म-मृत्यु के अनवरत चक्र से, कर्मबंधनों से मुक्ति, मोक्ष उपलब्ध होगा।
– वैकुंठ में, श्रीराम के परम् धाम साकेत अथवा श्रीकृष्ण के परम् धाम गोलोक में श्रीहरि के सालोक्य से सायुज्य पर्यन्त मुक्ति उपलब्ध होती है भक्तियोग से।
मुक्ति के पांच प्रकार बताए गए हैं भक्तियोग में, चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 6.266-269 में, यथा –
सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्ष्टि तथा सायुज्य,
- सालोक्य,
सालोक्य मुक्ति में भूलोक के विषयों से मुक्त होकर भगवान् श्रीहरि के वैकुंठलोक में निवास करना, स्व-आत्मतत्त्व स्वरूप में।
- सामीप्य,
सामीप्य मुक्ति में भगवान् श्रीहरि के पार्षद के रूप में उनके साथ साथ रहना, उनके निर्धारित दिव्य कर्म आदि संपादित करना।
- सारूप्य,
सारूप्य मुक्ति में भगवान्/देवी के अनुग्रह से भगवत् पद पर आसीत् होकर भगवत् गुण-धर्म को धारण करना।
- सार्ष्टि,
सार्ष्टि मुक्ति में भगवत् पद के ऐश्वर्यों को, ऋद्धि सिद्धियों को, प्राप्त कर उनका स्वयं के आनंद के लिए उपभोग तथा भगवत् भक्तों के कल्याण हेतु उपयोग करना।
- सायुज्य,
सायुज्य मुक्ति में भगवान् के ब्रह्मतेज, ब्रह्मज्योति में लीन होना है, ब्रह्मलीन होना है। यहां भक्त की स्वयं की सत्ता नही रहती है, जैसे कि एक बूंद समुद्र में विलीन हो जाती है।
अगर हम भगवान् श्री हरि नारायण की उपासना करें भगवती लक्ष्मी के साथ अथवा श्री सीताराम की या श्री राधाकृष्ण की, तो यह संभव है कि हमें हनुमान जी की तरह अष्टमहासिद्धियां व नवनिधियां उपलब्ध हों जीवन काल में ही तथा मोक्ष भी मिले जीते जी/मृत्यु के बाद।
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