ब्रह्म विद्या सीखने की पद्धति
पू. स्वामी श्री सत्यपति जी परिव्राजक
Mystic Power– हमारे पूर्वज महान् ऋषियों ने विद्या प्राप्ति के लिये एक विशिष्ट पद्धति-शैली का निर्देश किया है। जो साधक इस पद्धति से ब्रह्म विद्या प्राप्ति के लिये प्रयास करता है वह विद्या के वास्तविकं स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और जो इस प्रक्रिया से पुरुषार्थ नहीं करता है उसे विद्या प्राप्त नहीं होती है।
‘चतुभिः प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति । आगमकालेन, स्वाध्यायका- लेन, प्रवचनकालेन, व्यवहारकालेनेति’ ।। (महाभाष्य अ. १-१-१-१)
अर्थात् विद्या चार प्रकार से आती है आगमकाल, स्वाध्यायकाल, प्रवचनकाल और व्यवहारकाल । आगमकाल उसको कहते हैं जब मनुष्य पढ़ाने वाले से सावधान होकर ध्यान पूर्वक विद्या को सुने । स्वाध्यायकाल उसको कहते हैं जब पढ़ी सुनी विद्या पर स्वस्थ चित्त होकर विचार करे ! प्रवचनकाल उसे कहते हैं जब दूसरों को प्रेम पूर्वक पढ़ावे । व्यवहारकाल उसको कहते हैं जब पढ़ी, विचारी पढ़ायी विद्या को आचरण में लावे ।
विद्या प्राप्ति के लिये इससे मिलती-जुलती एक अन्य शैली भी है- श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार। इसके अनुसार पहले विद्यार्थी विद्या को गुरुमुख से सुने-पढ़े, पश्चात् उस पर विचार करे, तत्पश्चात् उस विषय में निर्णय लेवे और अन्त में उस पर आचरण करे। इस प्रक्रिया से विद्यार्थी के मन पर विद्या के संस्कार दृढ़ बनते हैं, मनन करने में श्रद्धा बन जाती है। इसके विपरीत पढ़ा, सुना, विचारा सब व्यर्थ सा ही हो जाता है यदि विद्या व्यवहार में नहीं उतरती है।
प्रत्येक कार्य की सफलता के कारण –
(१) पूर्व जन्म में उपार्जित संस्कार ।
(२) तीव्र इच्छा ।
(३) पर्याप्त साधनों की उपलब्धि ।
(४) कार्य करने की सही विधि (शैली)।
(५) पूर्ण पुरुषार्थ ।
(६) घोर तपस्या ।
उपरोक्त कारण ज्यादा व अच्छे हों तो शीघ्र सफलता मिलती है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -: