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नवद्वारं-द्वादशारं महात्म्य
शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)-
mystic power – ‘नवद्वारं’ ‘द्वादशारं अथर्ववेद में ये दो पद मिलते हैं। ९ की गणना पूर्ण है। १२ की गणना पूर्ण है। ९ ग्रह एवं १२ भावों से सब कुछ जाना जाता है। इसी का नाम चक्र व कुण्डली है। गोलाकार जो कुछ भी है, वह पूर्ण है। गोलाकार ही शून्याकार है। शून्य वृत्तवत् (6) चित्रित किया जाता है। आकाश वृत्तवत (0) है। आकाश में १२ राशियाँ हैं। इसलिये शून्य का अर्थ हुआ बारह । आकाश में ९ ग्रह चर्यमाण हैं। इसलिये शून्य का अर्थ हुआ नौ।
अतः दो समीकरण प्राप्त हुए । । ।
प्रथम, ०= १२
द्वितीय ० = ९
१, ४, ७, १० से १०, ७, ४, १ की क्रमशः उत्पत्ति होती है।
१ +९= १० = १०
१२ से भाग देने पर शेष ।
१० + ९ = १९ = ७
७ + ९ = १६ = ४
४ +९ = १३ = १
२,५। ८, ११ से ११,८,५, २ की क्रमशः उत्पत्ति होती है।
२ + ९ = ११ = ११
११ +९= २० = ८
१२ से भाग देने पर शेष ।
८ + ९ = १७ = ५
५+९=१४=२
३, ६, ९, १२ से १२, ९, ६, ३ की क्रमशः उत्पत्ति होती है।
३ + ९ = १२ = १२(०)
१२ + ९ = २१ = ९
९ +९= १८ = ६
१२ से भाग देने पर शेष ।
६ + ९ = १५ = ३
अब ६० की संख्या में इकाई शून्य के स्थान पर हम १२ लिखें तो दो विकल्प सामने आते हैं।
६ + १२ अथवा ६ x १२ दोनों विकल्पों में पूर्णता है।
क्यों कि ६+ १२ = १८,
१८ =१+८ = ९ ।
तथा, ६ x १२ =७२ मे ७ + २ =९ ।
योग और गुणक दोनों दशाओं में ६० की संख्या में ९ विद्यमान है।
अब पुनः ६० की संख्या में शून्य के स्थान पर दूसरे समीकरण के अनुसार ९ लिखने पर [क्योंकि ०=९]
६० = ६९ ।
६ × ९ = ५४।
५ + ४ = ९ ।
९ पूर्ण अंक है। दूसरे प्रकार से, ६० के दोनों अंकों का परस्पर गुणा करने पर, ६×०=० शून्य तो पूर्ण है ही।
९ अंक है, संख्या भी है।
१२ संख्या है, अंक नहीं।
९ का अंक है-धर्म।
१२ की संख्या है-मोक्ष।
धर्म में सब कुछ है।
मोक्ष में सबका त्याग है।
इसीलिए दोनों पूर्ण है। भगवान में सब कुछ प्रतिष्ठित है। अतः वह धर्म ९ है। भगवान सब कुछ सेनितान्त परे है। अतः वह मोक्ष १२ है। ६० की संख्या में धर्म और मोक्ष दोनों है।
९ का अंक धनुराशि है। इसका स्वामी ग्रह बृहस्पति है।
१२ की संख्या मीन राशि है। इसका स्वामी यह भी बृहस्पति है।
दोनों द्विस्वभाव राशियाँ हैं। द्विस्वभाव पूर्णता का द्योतक है। क्योंकि इसमें घर और अचर दोनों के गुण विद्यमान हैं। बृहस्पति है, ब्रह्म ब्रह्ममय होने के कारण ६० की संख्या पूर्ण है तथा वृहस्पति की साक्षात् मूर्ति है। इसीलिये बार्हस्पत्य प्रभवादि संवत् सदैव गुरुमान से निकाले जाते हैं।
इससे स्पष्ट है, ६० की संख्या में ३ चक्र हैं। पहला चक्र है ९ का दूसरा चक्र है १२ का तथा तीसरा चक्र स्वयं ६० का है। ९ और १२ के चक्रों से ६० का चक्र बनता है। ९ पूर्ण है। १२ पूर्ण है। अतः ६०। भी पूर्ण है।
६० की संख्या में अन्तर्निहित इन तीन चक्रों के विषय में वेदवचन इस प्रकार है। । ।
द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः ।
अथैकं चक्रं यद् गुहा तदद्धातय इद् विदुः ॥ -( अथर्व ४।१।१६)
द्वे = नपुंसक लिंग, द्वितीया विभक्ति, द्विवचन ।
ते =तद् शब्द नपुंसकलिंग द्वितीया विभक्ति द्विवचन
चक्रे = नपुंसकलिंग द्वितीया विभक्ति द्विवचन ।
अथ = और,
एकं = एक,
चक्रं = आवर्त,
यद् = जो,
गुहा= अज्ञात,
तद् = उसे,
सूर्ये= सप्तमी = एक वचन ।
अद्धातयः = अत् सततगमने + धा धारणे, अद्धा सत्यनाम, [निघण्टु ३।१०]
इत् विदुः = इसे जानते हैं,
ब्रह्माणः= ब्रह्मवेत्ता,
ऋतुथा = ऋतु संबंधी।
इस संख्या ६० के सन्दर्भ में इस अचा का तात्पर्य इस प्रकार है।
सूर्य के दो ऋतु संबंधी चक्रों को वेदवेता जानते हैं और एक अन्यचक्र जो कि गोप्य है, उसे सतत सत्यानुसंधी ही जानते हैं। ऋ गत्यर्थक धातु है। सूर्य वा चन्द्रमा की गति के कारण जो घटित होता है, उसे ऋतु कहते हैं। थ नाम समूह का। ऋतुओं के समूह को ऋतुथा कहते हैं। सूर्य जब उत्तर की ओर गति करता है तो ऋतुओं के एक समूह का प्राकट्य होता है। इस समूह में तीन ऋतुएँ होती हैं- वसन्त, ग्रीष्म एवं वर्षा । सूर्य जब दक्षिण की ओर गति करता है तो शरद, हेमन्त और शिशिर का आविर्भाव होता है। तात्पर्य यह हैकि सूर्य के उत्तरायन में रहने पर तीन ऋतुओं का एक चक्र तथा सूर्य के दक्षिणायन में रहने पर तीन ऋतुओं का दूसरा चक्र होता है। चक्र का अर्थ है, मंडल समुच्चय संग्रह दल भँवर वृत्त। प्रत्येक ऋतु दो मासों का चक्र है। ६ महीनों का एक अयन होता है तथा एक अयन में ३ ऋतुएं होती हैं।
अतः १ अतु = ६ + ३ = २ मास।
इस प्रकार एक ऋतु में दो चक्र हुए। ये चक्र २ महीनों के हैं। ऋतु चक्र एक देशिक नहीं होता। प्रत्यु सार्वदेशिक है। दिशाओं की संख्या है १०
प्राची ,प्रतीची ,उदीची, अन्वीची, ये चार प्रसिद्ध दिशाएँ हैं।
नैऋत्य, वायव्य ईशान, आग्न्येय ये चार अवान्तर दिशाएँ हैं।
इसके अतिरिक्त ध्रुवा दिशा (स्थान विशेष से नीचे) तथा ऊर्ध्वा दिशा (स्थान विशेष से ऊपर) दो और हैं।
इस तरह ४ + ४ + २ = १० सम्पूर्ण दिशाओं का योग हुआ।
अतुएं हैं-६। अतु दिशा = ६ x १० = ६० का यह तीसरा चक्र सबके लिये ज्ञेय नहीं है।
३६० दिनों का एक संवत्सर होता है। ३६० अंशों की एक परिधि होती है। ३६० की यह संख्या निस्संदेह पूर्ण है। [३ + ६+०=९] ३६० वर्षो का एक चक्र बनाना व्यावहारिक दृष्टि से अनुपयुक्त है। अतः इसके बाई ओर के अंक ३ की उपेक्षा करके केवल ६० वर्षों के एक चक्र की कल्पना की गई है। ६० की संख्या में ३०० अन्तर्धान है। है, किन्तु अप्रकट। इससे फल में अन्तर नहीं पड़ता। जैसे मनुष्य के हृदय में परमात्मा है, किन्तु प्रच्छन्न। वैसे ही ६० की संख्या में सैकड़ा स्थानी ३ का अंक भी है, पर प्रच्छन्न । जब हम ६० के अंकों को परस्पर एक करेंगे तो ६+०= ६ आयेगा। इसमें ३ की प्रच्छन्ता को जोड़ने पर यही ६ + ३ =९ होगा। ३ की संख्या वा अंक त्रिमूर्ति का रूप है। त्रिमूर्तियाँ- ब्रह्मा विष्णु शिव सर्वत्र प्रच्छन्न हैं। अतएव ३ का अंक भी ६० की संख्या में सतत है-गुप्त रूप से निवास करता है। यही गुह्य ज्ञान है। गुह्यज्ञानाय नमः ।
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