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शिव-शक्ति
स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज
Mystic Power- यद्यपि ब्रह्म अक्षर है अर्थात् उसमें कभी किसी प्रकार का परिणाम नहीं होता, वह अपरिणामी, अव्यय, अविनाशी है, परन्तु जगत् के सृष्टि-स्थिति-संहार का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण भी है, इसलिए वह सर्वशक्तिमान् है।
शक्ति शक्तिमान् से भिन्न नहीं कही जा सकती और न वह शक्तिमान् से पृथक् ही हो सकती है, यद्यपि सब कर्म शक्ति की ही क्रिया से सम्पादित होते हैं अर्थात् शक्ति ही सारे जगत् कारण है, तो भी शक्तिमान् की शक्ति शक्तिमान् की इच्छा के ही अधीन कार्य करती है। स्वतन्त्र रूप से उसकी कोई सत्ता नहीं होती। या यों कहें कि शक्तिमान् की इच्छा ही शक्ति है। परन्तु वह उसका अंग भी नहीं कही जा सकती अर्थात् दोनों में अंग-अंगी का सम्बन्ध नहीं है। दोनों में कोई वास्तविक भेद नहीं कहा जा सकता। जो भिन्नता दीख पड़ती है, वह सर्वथा व्यावहारिक ही है। पहिले शक्तिमान् में इच्छा अथवा संकल्प के रूप में उसका उदय होता है फिर वह क्रिया और ज्ञान रूप धारण कर लेती है। इच्छा, क्रिया और ज्ञान के रूपों में अभिव्यक्त होने पर भी शक्ति एक ही है और शक्तिमान् का परिणाम अथवा विकार नहीं है क्योंकि ब्रह्म अपरिणामी है।
श्वेताश्वतरोपनिषत् का कथन है कि ब्रह्मवादियों के समाज में यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि हम कहाँ पैदा हुए, हम किसके आधार पर जीवित और प्रतिष्ठित हैं और किसके कारण सुख-दुःख के चक्कर में पड़े हैं? उन्होंने ध्यानयोग द्वारा देखा कि सब का कारण एक शक्ति ही है, जड़ नहीं वरन् देवात्मिका चेतन-शक्तुि है- ‘ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्ति स्वगुणेर्निगूढ़ाम्।’ यह हम कह चुके हैं कि शक्ति शक्तिमान् की इच्छा के परतन्त्र है अथवा वह शक्तिमान् की इच्छा की ही अभिव्यक्ति है।
ब्रह्मसूत्र, अध्याय १. पाद ४, सूत्र ३- ‘तदधीनत्वादर्थवत्’ के भाष्य में शंकर भगवत्पाद कहते हैं:-
परमेश्वराधीनात्वियमस्माभिः प्रागवस्था जगतोऽभ्युपगम्यते न स्वतन्त्रा। अर्थवतीशक्ति का लहरी रूप
हि सा नहि तया बिना परमेश्वरस्य स्रश्दृत्वं सिद्ध्यति शक्तिरहितस्य तस्य प्रवत्त्यनुपपत्तेः ।’
अर्थ-हम तो जगत् की प्रागवस्था परमेश्वर के अधीन मानते हैं, न कि स्वतन्त्र। क्योंकि वह अर्थवती अर्थात् सार्थक है, इसके बिना तो परमेश्वर का सृष्टि करना भी सिद्ध नहीं होता, – शक्ति-रहित परमेश्वर में प्रवृत्ति का अभाव होने के कारण।
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