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जानिए नाथ-पन्थीय तत्त्व-ज्ञान
श्री अनिल गोविन्द बोकील
नाथ संप्रदाय में पूर्णाभिषिक्त और तंत्र मार्ग में काली कुल में साम्राज्यभिषिक्त।
mystic power- इस लेख में ‘नाथ-पन्थ‘ का तत्व-ज्ञान, गुरु देव परम पूज्य १००८ श्री योगेन्द्रनाथ जी की कृपा से प्रस्तुत है। तत्त्वों को समझ कर साधना करना शीघ्र फल प्रद होता है। अतः पाठक बन्धु इस पर अवश्य मनन करें।
नव-नाथों के पूर्व काल में सांख्य-मार्ग, कौल-मार्ग, कापालिक मार्ग आदि अनेक मार्ग प्रचलित थे। उसके बाद श्री शङ्कराचार्य जी ने महत्त्वपूर्ण “अद्वैत तत्व-ज्ञान” प्रस्तुत किया। इन्हीं तत्त्व विचारों को अपना कर कुछ अलग ढंग से श्रीगोरक्षनाथ जी ने “द्वैताद्वैत-विलक्षण” के नाम से तत्त्व प्रतिपादन किया है।
नाथ-पन्थीय तत्त्वज्ञान में “शिव-शक्ति” का विवेचन प्रधान है। “शक्ति-युक्त “शिव” ही नाथ पन्थ का अन्तिम सत्य है। यह तत्व स्वयं-प्रकाशी, स्व-संवेध, अविनाशी, अनन्त तथा व्यक्ताव्यक्त-विवर्जित है। इसमें “शक्ति” तत्त्व “शिव तत्त्व” से अलग कदापि नहीं है। जिस प्रकार कपूर व सुगन्ध, शक्कर व मीठेपन आदि का एक दूसरे से अलग विचार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार इन तत्त्वों की अभिन्नता जानें। आगे रूपकात्मकता से विवेचन इस प्रकार है कि शिव ने शक्ति द्वारा चराचर सृष्टि का खेल शुरू किया। इसी को श्रीगोरक्षनाथ जी “शिव की आत्म रति” नाम से सम्बोधित करते हैं। जो ब्रह्माण्ड में है, वही पिण्ड में है ऐसा भी उनका सिद्धान्त है। इसी के अनुसार ब्रह्माण्ड की शक्ति “कुण्डलिनी” के रूप में हमारे पिण्ड में भी कार्यरत है। इसका स्थान है मूलाधार चक्र तथा शिव हैं हमारे ‘सहस्रार चक्र’ में इन दोनों का मिलाप “शिव-शक्ति-साम रस्य” कहलाता है। ऐसी अवस्था ही “परमानन्दमय सहज समाधि” है। यह स्वयं सिद्ध समाधि है। यह न लगाई जाती है, न उतारी जाती है। शैव सिद्धान्त इसे ही ‘जीव-शिव-मिलन’ कहता है, परन्तु इसमें जो शिव की शक्ति है, वह सांख्यों की प्रकृति कदापि नहीं है यह बात ध्यान में रखें।
शैव तथा शाक्तों का झुकाव ‘जीव’ की ओर है और श्रीशङ्कराचार्य जी का तात्त्विक दृष्टिकोण पारमार्थिकता की ओर है। ‘नाथ- पन्थ’ ने भी यही स्वीकार कर देह को भी महत्वपूर्ण माना है शिव की शक्ति ‘कुण्डलिनी’ है ऐसा सर्वथा भिन्न विचार ‘नाथ- पन्थ’ में किया है। वेदों में वर्णित ब्रह्मा की शक्ति ‘माया’ कुण्डलिनी नहीं है- यह महत्वपूर्ण विचार नाथों ने हमारे सामने रखा है। यह ‘शिव-शक्ति ही चित्-शक्ति, चिर-रूपिणी, अनन्त-रूपा, जगदम्बा आदि नामों से ‘नाथ-पन्थ’ में सुविख्यात है। इसी के सहारे शिव सृष्टि-नियन्त्रण में समर्थ होते हैं। यह शक्ति धीरे धीरे सूक्ष्म हो जाती है। इसी का स्फुरण ‘सदाशिव’ है। सृष्टि-व्यापार हेतु सदाशिव अहन्तावस्था को प्राप्त होते हैं। वही ५ प्रकार का आनन्द है -१ परमानन्द, २ प्रबोध, ३ चिद्रम, ४ प्रकाश तथा ५ सोऽहं । इस आनन्द में से ही जीव-रूप की धारणा होती है। पहले पिण्ड, फिर आव-पिण्ड, साकार-पिण्ड, महा-साकार पिण्ड, प्राकृत पिण्ड और अन्त में गर्भ पिण्ड इस क्रम से स्थूल होते-होते शरीर धारणा हो जाती है। यह नाथ-पन्थी तत्त्व-ज्ञान’ श्रुति से अलग नहीं है। आनन्द से जीव उत्पन्न होता है-उसी में रहता है—उसी में वापस जाता है-यह श्रुति-सिद्धान्त नाथ-पन्थ में ज्यों का त्यों स्वीकार किया जाता है।
सत्व-रज-तम की साम्यावस्था में प्रकृति द्वारा सृष्टि का निर्माण होता है- यह ‘सांख्य सिद्धान्त है उसके अनुसार ऐन्द्रिय सृष्टि के ११ व निरिन्द्रिय स्रष्टि के सूक्ष्म तत्व है। तथा ”गीता’ के अनुसार स्थूल व सूक्ष्म मिलाकर कुल ३६ तत्त्व हैं। श्री गोरक्षनाथ जी भी यही स्वीकार करते हैं। इन्द्रिय-गम्य जगत् का अधिष्ठान ‘ब्रह्म’ है। यहाँ तक हम जान सकते हैं, लेकिन अनन्त काल से सप्त जगों का निर्माण किस तरह हुआ यह तर्क द्वारा जानना सम्भव है। ऐसा श्रीशङ्कराचार्य जी का कथन है।
जैसे कि पहले बताया जा चुका है कि ‘नाथ सम्प्रदाय द्वैताद्वैत विलक्षण है अर्थात द्वैत व् अद्वैत से परे है। ‘संस्था’ को केवल उपाधि मानकर उसके बाद के अखण्ड ज्ञान-रूपी ‘निरजन’ तत्व का नाथ-पन्थ पुरस्कार करता है। शक्ति-विस्फोट से जगत् प्रतीत होने लगता है। अतः शक्ति ‘कर्ता’ है। ‘शिव’ सृष्टि का ‘बादल’ है। शिव-शक्ति निर्वाहिका है। फिर भी वह ‘उपास्या’ इसीलिए है कि उसके बिना जगत् का निर्माण असम्भव है। ‘नाथ’ के अनुसार ‘शक्ति’ चेतन ही है। केवल व्यवहार की सुविधा हेतु उसका अलग विचार करना है क्योंकि ‘शिव’ गुणातीत है, परातीत हैं। उनके स्वरूप का निर्धारण करना सम्भव नहीं। उपासना हेतु ‘सदाशिव’ स्वीकार्य नहीं हैं। अतः उनसे अभिन्न (फिर भी सुविधा के लिए भित्र समझ कर ) ‘शक्ति’ ही उपास्या हो सकती है। इसी से ‘परम शिव’ का ज्ञान होता है।
(विशेष: शाबर-मन्त्र-संग्रह भाग की सभी शक्ति-साधनाएँ उक्त सूक्ष्म तत्व को ध्यान में रखते हुए ही करनी चाहिए।)
‘शक्ति-उपासना का साधन हमारा शरीर है। उसके १६ आधार, २ लक्ष्य, ५ व्योम आदि का ज्ञान होने पर ही सिद्धि सम्भव है। दूसरे शब्दों में- ‘सहज समाधि द्वारा मन से ही मन को जानना’ इस अवस्था को मोक्ष कहते हैं। इस विवेचन से स्पष्ट है कि शाक्तों का तन्त्र नाथ-सम्प्रदाय’ ने अधिक व्यापक रूप में स्वीकार किया है। बौद्धों के ‘शून्य’ के बजाय नवनाथों ने शिव-शक्ति-ज्योति का प्रति पादन किया है। द्वैत मत के क्रिया-ब्रह्म्म तथा अद्वैत मत के निष्क्रिय ब्रह्म्म आदि से ‘नाथ-तत्त्व’ इस प्रकार भिन्न है, व्यापक भी है क्योंकि यह निरुपाधिक, अवाच्य चित्त स्वभावी माना गया है। इसी के अनुसार शिव ही शक्ति युक्त होकर स्फुरित होता है। यह जगत् चित्-शक्ति के विकास और विलास का ही परिणाम है। इस प्रकार सभी ‘नाथ-सिद्धान्त’ तत्व सापेक्ष है व्यक्ति सापेक्ष नहीं।
‘नाथ-पन्थ’ की ‘हठ-योग-साधना’ भी स्वतन्त्र तथा मन्त्र-शुद्ध है। उस युग में योग-साधना के अन्तर्गत ‘योग’ के तन्त्रशुद्ध वैचारिक शोध का प्रत्यक्षीकरण करने वाला एक मात्र पन्थ नाथ-पन्थ है। श्री जालन्धरनाथ जी की कथा से इसे जाना जा सकता है। इस साधना का सम्बन्ध ‘अवधूत-साधना से है। द्वैत अद्वैत, विशिष्टाद्वैत,द्वैताद्वैत आदि सभी का ऐक्य-समन्वय जिस ‘नाथ-ब्रहम्म’ में होता है, वही ‘नाथ-पन्थीय अवधूत सिद्धान्त’ है। श्रीदत्तात्रेय जी को नव-नाथ ‘गुरु’ कहते हैं- इसका रहस्य यही है कि ‘हठ योग’ के इस त्रिगुणात्मक शक्ति के ही हैं।
प्रत्येक शक्ति की साधना-पद्धति ‘नाथ पन्थ’ में है। श्रीदत्तात्रेय याने ब्रह्मा-विष्णु-महेश का एकीकरण। इस त्रिदेव मूर्ति से ब्रह्मा द्वारा ज्ञान-साधना, विष्णु से भक्ति, और शिव से योग-साधना ‘नवनाथ’ ने ली है। उस युग में तन्त्र-विद्या की कुछ निम्न श्रेणी की साधनाएं बहुत अधिक प्रचलित थीं। इन्हीं का संस्करण नव-नाथों ने किया है। शाक्त मतानुसार सर्व श्रेष्ठ ‘कौलाचार’ में वर्णित ज्ञान को भी स्वीकार कर लिया गया है क्योंकि इसमें शिव का शक्ति के साथ सम्बन्ध है तथा यह आचार पूर्णतः सत्कार्यों से भरपूर है ।
श्री जालन्धरनाथ जी ने कापालिक तत्त्वों के सभी सुसंस्कृत अंश ग्रहण कर, अपनी साधना में समाविष्ट किए हैं। इसके क्रूरता पूर्ण अंशों को अहिंसा का बौद्धिक अधिष्ठान देकर, योग-साधना द्वारा यही तत्त्व-ज्ञान उन्होंने शक्ति-रूप में प्रस्तुत किया है। यह अत्यन्त महत्त्व- पूर्ण व कठिन कार्य था। उन्होंने ‘शिव साधना’ में ‘शक्ति उपासना’ अन्तर्भूत की है। कापालिकों के क्रूर आचारों का संस्करण करने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया है।
‘नाथ सम्प्रदाय’ में मत्स्येन्द्रनाथ जी व गोरक्षनाथ जी की ‘कौल- साधना तथा श्री जालन्धरनाथ जी की ‘कापालिक साधना’- दोनों प्रकार दिखाई देते हैं। एक ने शाक्त-मत वादियों को अपनाया है और दूसरे ने शक्ति उपासकों को पच मकार साधना के गूढ़ार्थ का शास्त्र शुद्ध विचारों से विवरण तथा तन्त्र-दृष्टि से प्रत्यक्षीकरण नाथ-पन्थ’ में है। शरीर त्याग के बाद की मुक्ति के बजाय नाथ प्रणीत साधना द्वारा देह में रहते हुए ही मुक्ति पाने का मार्ग ‘नाथ’ बताते हैं। मोक्ष या मुक्ति मरणोत्तर प्राप्त होनेवाली ‘गति’ (सद्गति ) नहीं है, अपितु सभी कर्म करते हुए अनुभव करने की ‘स्थिति’ है- यह ‘नाथ- पन्थीय’ दृष्टिकोण सचमुच व्यवहार्यं तथा अपने आप में अन्य- तम है। नाथों के सभी सिद्धान्त कर्म-व्यापी हैं, कर्मठ नहीं। यह बात अति महत्त्वपूर्ण है ।
‘सांख्य’ २४ तत्त्वों का है और नाथ २५ तत्त्व मानते हैं अर्थात् ‘ईश्वर’ का स्वतन्त्र विचार इसमें है । ‘सांख्य’ त्रिगुणात्मक प्रकृति को जगत् का कारण बताते हैं, किन्तु ‘नाथ’ इसके साथ ही ईश्वर को भी प्रेरक रूप में स्वीकार करते हैं । ‘नाथ पन्थीय एक और सिद्धान्त’ है – पिण्ड से पिण्ड वा ग्रास करना । ‘श्रीगोरक्ष-पद्धति’ कहती है कि ‘कुण्डलिनी’ ही ‘अजपा गायत्री’ है। यही ‘महा-विद्या’ है। इसी से जीव-शिव-सामरस्य सिद्धि की प्राप्ति होती है। यह चर्चा की नहीं प्रत्यक्षानुभूति की बात हैं। ऐसी अनुभूति केवल गुरु ही दे सकते हैं । इसी से ‘नाथ- पन्थ’ में गुरु-तत्त्व ईश्वर से भी श्रेष्ठ है।
‘नाथ पन्थीय’ तत्त्वों का अत्यन्त संक्षिप्त विवेचन यहाँ किया गया है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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