पंचमकार और भ्रांतियां
विशिष्टानंद “कौलाचारी”-
Mystic Power- महापापवशान्नृणां तेषु वाञ्छामिजायते। तेषाञ्च सद् गतिर्नास्ति कल्पकोटि शतैरपि।। S मधपानेन मनुजो यदि सिद्धि लभेत है। मधपानरता सर्वे सिद्धि गच्छन्तु पामराः। मांसभक्षणक्षणमात्रेण यदि पुण्या गतिभर्वेत।लोके मांसाशिनः सर्वे पुण्यभाजो भवन्ति हि । शक्ति सम्भोगमात्रेण यदि मोक्ष भव्य वै। सवेअपिजन्तवो लोके मुक्ता: स: स्त्रीनिषेवनात् ।। कुलमार्गों महादेवी न मया निन्दित: क्वचित्। आचार पहिया ये अत्र निन्दितास्ते न चेतरे।। अन्यथा कौलिके धर्मे आचार: कथितो मया ।विचरन्त्यन्यन्यथा देवि मूढाः पण्डितमानिन:।कृपाणाधारागमनाद् व्याघ्रकण्ठाबल्बनात् । भुजंग धारणात्रुनमशक्यं कुलवर्त्तनम्।।
अर्थात्:–जब तक मन के पापो और उनके भय का संस्कार नही होता , कोटि कोटि कल्पो तक उन्हें सद् गति (मोक्ष) प्राप्त नही होती है । मुढ़मति केवल मध, मांस, मदिरा, मछली, मैथुन को देखते है, पर ऊपरी कृत्य अवलोकन से आन्तरिक सत्य को कैसे जाना जा सकता है, कोई भी मनुष्य मधपान करने मात्र से सिद्धि प्राप्त नही कर लेता । यदि ऐसा होने लगे तो प्रत्येक शराबी सिद्ध हो जाये । सभी नीच व शराबियों को मुक्ति मिल जाये ! इसी प्रकार केवल मांस भक्षण से सद्गति प्राप्त हो जाये तो प्रकृति के सभी मांसाहारी जीव मुक्त हो और पुण्यात्मा कहलाने के अधिकारी हो जाये।
यदि प्रियतमा का मुख और स्त्रियों के साथ सम्भोग करने से मुक्ति इतने सस्ते रूप मे मिलने लगे , तो समस्त कामुक और अय्याश जीव मुक्त हो जाये। कुलमार्ग आगम का एक अत्यन्त प्राचीन मार्ग , जिसमे पंचमकार की ही महत्ता सर्वोपरि है उसे कभी निन्दित नही कहा जा सकता । वास्तव मे जो अज्ञानी और धर्म के नियमो से अनभिज्ञ आचार हीन है वे ही इसकी आलोचना करते है । और उनके द्वारा जब मदिरा , मांस का आचरण एवं मर्यादा विहीन प्रयोग किया जाता है ,तो यह निन्दनीय है मर्यादा एवं आचरण (तन्त्र का) का ज्ञानी इन कर्मों को करने पर भी कभी निन्दनीय नही माना जाता है ।
कुलमार्ग के दुसरे स्तर पर इन सबकी महत्ता दूसरे ही स्वरूप मे बतायी है किन्तु आचार हीन लोग इसे किसी अन्य ही रूप मे परिभाषित करते है । तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलना सम्भव है , हिंसक व्याघ्र का आलिंगन भी सम्भव है , सर्वे की माला को धारण करना भी सम्भव है इसी प्रकार धर्म साधना के कठिन कार्यो को करना भी सम्भव है, पर इनके द्वारा कुलधर्म का पालन या उसका अनुवर्तन असम्भव है।
इस विवरण के अन्तिम श्लोक मे जो बताया गया है, उसे समझना चाहिए । केवल तन्त्र साधकों ने ही नही श्रीकृष्ण जी ने भी इस सम्बन्ध मे बहुत कुछ कहा है। मुक्ति और सिद्धियों के लिए अनेक लोग एक टाँग पर खडे होकर तपस्या करते है, नाहि बाल नही कटाने का व्रत रखते है, कुछ उपवास और फलाहार के कठिन व्रतों के पालन मे लगे रहते है।
इस प्रकार धर्माचरण एवं परमात्मा के नाम पर विश्व मे सर्कस के खिलाड़ियों की भांति अनेक प्रकार के तमाशे दिखाये पडते है । लेकिन क्या इस प्रकार वह परमात्मा प्राप्त हो जाता है , सिद्धियां मिल सकती है?
श्रीकृष्ण जी ने गीता मे कहा है कि कुछ भूत प्रेत को पूजते है , कुछ पर्वतों को पूजते है कुछ देवी देवताओं की कृपा प्राप्त करनी चाहते है । किन्तु ये सब भ्रम मे पडे़ है । हे अर्जुन ! यह योग( उनसे योग/ मुक्तियोग) न अधिक खाने वालों को सिद्ध होता न उपवास करने वालो को, यह न ही अधिक सोने वालो को सिद्ध होता न ही अधिक जागने वालों को ।
कबीरदास ( रामानन्द के शिष्य । रामानन्द , रामानुज परम्परा के तत्त्वज्ञानी थे) कहते है कि किसी ने जटाजुट बढ़ा रखी है, तो कोई एक पैर पर खडा है, तो कोई हाथ उठाये अलख जगा रहा है, किन्तु इन सब मे सत्य कही नही है यहां यही कहा गया है। यही बताया गया है कि कठिन अभ्यासों मे लगे ये लोग असम्भव लगने वाले कार्यों मे लगे रहते है , जिनमे कई खतरनाक है किन्तु ये लोग कुलमार्ग के लिए अयोग्य है। इतने कठोर आचरणों का पालन करने वाले ये लोग भी कुलधर्म के आचरणों को करने मे सक्षम नही ।
इस कथा पर दृष्टि पात करें यह कितनी सच लगती है । ब्रह्मा के मानस पुत्र वशिष्ठ का अर्थ आदिवशिष्ठ है त्रेता के ही वशिष्ठ मान लिया जाये कि वे आदि थे , इनके काल मे भगवान बुद्ध का ज्ञान जगत को नही हुआ था। बुद्ध ईसा से पूर्व ५०० के लगभग काल मे उत्पन्न हुए थे। इस समय वशिष्ठ, राम , दशरथ, रावण कोई नही थे । सनातन धर्मग्रंथो का काल इन्हें लाखों वर्ष पूर्व हुआ बताता है। यदि यह गणना झुठ है तो यह विवरण भी झुठ है कि इतने लाख वर्ष तपस्या की थी ।
इनका वचन कितना सत्य है मूल्यांकन का विषय यह नही है मूल्यांकन का विषय यह है कि बुद्ध का उत्पत्ति काल ज्ञात है , प्रसिद्ध सम्राट चन्द्रगुप्त के समय बुद्ध नही थे , चाणक्य और चन्द्रगुप्त के तो तथ्यात्मक जीवनकाल तक का हमे ज्ञान है। बुद्ध बिंबसार के समय उत्पन्न हुए थे, यह भी प्रमाणिक रूप से ज्ञात है । दुसरा गल्प यह है कि उस समय बुद्ध चीन मे थे ,बुद्ध चीन गये ही नही थे ,बौद्ध धर्म को चीन लेकर जानें वाले सम्राट अशोक थे जापान आदि देशो मे भी इनके उपदेशों को अशोक ने पहुँचाया था ।
तीसरा महान गल्प यह है कि बुद्ध भैरवीचक्र एवं देवी के उपासक थे। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार उनके दर्जनों जन्मे की कथाएं उपलब्ध है। यह कथन भी बुद्ध के ज्ञान पर अपमान जनक है। उनके समस्त आदर्शों की हत्या करके उनको उन तथ्यों का अवतार बताना, जिनका उनके आदर्श से छत्तीस का आकडा़ था। बुद्ध ईश्वरवादी नही थे, बुद्ध पुनर्जन्म सम्बन्धी विषय पर भी मौन थे। वे मन और आत्मा को मानते थे और मन को शुन्य करके समाधि सुख को चरमपद बताते थे ।
बुद्ध ने अनभूत किया कि जप – तप से सिद्धिया मिल सकती है ज्ञान नही। वे सम्यक् आचार को उचित मानते थे । न वीणा के तार को ढीला छोडो़ न इतना कसों कि वह टुट जाये ।
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