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शिव का रहस्य
श्री निश्चलानंद “कौलाचारी”
जो समस्त मासिक भेदों से रहित, अन्तरात्मा रूप और साक्षात प्रतीति का अविषय तथा अनन्त सच्चिदानन्द स्वरूप अद्वैत ब्रह्म है । संसार मे जितने भेद दिखाई देते है वे सब माया रूप के है तथा भ्रमित बुद्धि से मनुष्य को भेद की ही प्रतीति होती है। इनमे एक रूपता एवं एकत्व का ज्ञान आत्मज्ञानी को ही होता है जिसके ऊपर माया का पर्दा हट जाता है ।
ब्रह्म की साक्षात प्रतीति नही होती क्योंकि वह कोई वस्तु नही है । फिर वह स्वयं देखने वाला है । तथा उसी से सब कुछ जाना जा सकता है, इसलिए उसे अन्य किसी उपकरण से देखा अथवा जाना नही जा सकता , उसका अपरोक्ष अनुभव होता है । वह ब्रह्म ही सबकुछ है यहाँ यह स्पष्ट समझना चाहिए कि एक विलक्षण प्रकार के मूलतत्त्व का वर्णन है जो सर्वत्र अनन्त तक व्याप्त है यह कोई मानवेत्तर प्राणी या मानवरूप सदाशिव नही है।
यह वैदिक निराकार निर्गुण परमात्मा है जिसे उपनिषदों मे तत्त्व कहा गया है । सदाशिव, जो सदा निष्क्रिय निर्लेप रहते है। इसी से रूपको मे कहा गया है कि सदाशिव सदा समाधिस्थ रहते है। तंत्र के लगभग सभी साधकों एवं शिवज्ञान से सम्पन्न ग्रंथकारों ने सदाशिव की यही व्याख्या दी है । वेद, पुराण, गीता, आदि मे भी परमात्मा को ठीक इसी रूप मे वर्णित किया है।
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यह एक गोपनीय रहस्य है और इसको समझना अत्यंत दुर्गम है, कि इस प्रकृति के समस्त गुणो का कारण रहते हुए भी समस्त क्रियाओं का सम्पन्न करने वाला होकर भी स्वयं इस ब्रह्माण्ड का कारक होते हुए भी यह सदाशिव निर्लिप्त, निराकार, निष्क्रिय, ही बना रहता है । जगत की सम्पूर्ण क्रिया इसी से चलती है , परन्तु यह निष्क्रिय है।
कैलास शिखरासीनं देवदेवं जगद् गुरूम्। पप्रच्छेशं परानन्दं महाशक्ति परमेश्वरम् ।।
अर्थ:- कैलाश की चोटी पर देवों के देव महादेव, जो इस जगत् के सद् गुरू है आसीन है । उनमे परा (भौतिक अनुभूतियों से परा) आनन्द मे लिप्त परमेश्वर परम ईश्वर से महाशक्ति पार्वती ने प्रश्न किया।
इस श्लोक का अर्थ कैलास से हिमालय की चोटी से , कैलास लिया जाता है, किन्तु कोई तत्त्वज्ञानी, तंत्र साधक सिद्ध ही जानता है । इसके अर्थ का कारण, शिव पार्वती, की पर्वत की चोटी पर बैठे हुए मूर्तियाँ अवतरित हुई और सभी ऋषि- मुनि साधक भ्रम मे अन्धी आस्था के शिकार हो गये। कोई तंत्र शास्त्र कैलाश को इस अर्थ मे नही लेता । यदि ये सब विवरणों को पढ़कर चिन्तन किया जाये तो भी स्पष्ट हो जाता है कि यह इस कैलाश का वर्णन नही है । इसी अर्थ ने समस्त भारतीय तन्त्रज्ञान की वैज्ञानिकता नष्ट कर दी ।
यह इस ब्रह्माण्ड के कैलाश का वर्णन है इसके शीर्ष पर एक चन्द्राकार गडढा है जिस पर एक ऊर्जात्मक छतरी फैली हुई है। यह वह मानसरोवर है, जिसे ॐ के ऊपर के चन्द्र और शिव के शीर्ष के बीच चन्द्रमा के रूप मे दर्शाया जाता है । इस मानसरोवर के ऊपर और बीच मे मध्य से सुक्ष्म रूप मे यहाँ की ऊर्जा छतरी से कुछ ऊपर तक उठा शिव विधमान है ।
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और इसके चारो ओर पार्वती विधमान है जो ऊर्जा कमल है । एक ऐसी ऊर्जा छतरी, जिसके बर्नर की भाति फ्लेम के रूप मे ऊर्जा निकल रही है । कुण्डलिनी का सहस्त्रारचक्र इसी से विकसित होता है । सभी जानते है कि मस्तिष्क का कार्य जानकारियों को संग्रहीत करना है। शंका और प्रश्न करना इसकी प्रवृत्ति है अर्थात प्राकृतिक गुण है।
जीवन की गति वर्तुलाकार है । जहां से जीवन का आरम्भ होता है वही उसकी समाप्ति होती है। इसका आरम्भ एवं अन्त कि एक ही स्थान है अथवा वर्तुलाकार होने से कोई स्थान निश्चित नहीं है ।
आरम्भ कहां से होता है और अन्त कहां होता है इसका स्पष्ट विवेचन नही किया जा सकता इसी कारण इसे सृष्टि चक्र या गति चक्र कहते है जो निरन्तर अनवरत गतिशील है बिना रूके कैसे पता चल सकता है कि इसका आरंभ कहां से हुआ तथा अन्त कहां होगा ऐसा ही गति चक्र कर्मों का है।
क्रियमाण कर्मो से संचित कोश तैयार होता है । यही संचित पुन प्रारब्ध बनकर मनुष्य के नये क्रियमाण कर्मों या कारण बनता है अज्ञान सी अवस्था मे इस चक्र या कभी अन्त नही होता ज्ञान प्राप्ति पर ही इनकी गति रुकती है तथा इस गति या रूक जाना ही मोक्ष है
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