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रोग नाश के लिए सूर्य मन्त्र
श्री शशांक शेखर शुल्ब ( धर्मज्ञ )
Mystic Power – ऋग्वेद के २ सूक्तों के देवता सूर्य हैं-ऋक् (१/५०/१-१), ऋक् (१/११५/१-७) तथा ऋक् (१०/३७/१-१२)।
इन तीनों को सूर्य सूक्त कहा जा सकता है। किन्तु प्रायः ऋक् (१/११५/१-७) को ही सूर्य सूक्त कहते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य कई मन्त्र सूर्य सम्बन्धित हैं।
सूर्य की शक्ति या उसके प्रभाव क्षेत्र को सावित्री कहा गया है। उसका जो भाग पृथ्वी पर ग्रहण होता है, वह गायत्री है।
सूर्य जिस ब्रह्माण्ड समुद्र में स्थित है वह सरस्वान् है तथा उसकी शक्ति सरस्वती है। सम्पूर्ण विश्व की निर्माण शक्ति नियति है।
सूर्य से कई रोगों की चिकित्सा भी होती है। सूर्य तापिनी उपनिषद् के अनुसार सूर्य से आयु, तेज, बल की वृद्धि होती है, हरिमाण तथा हृदय रोग दूर होता है। हरिमाणः सम्बन्धित मन्त्र ऋक् (१/५०/११-१२) में हैं जिनमें प्रथम मन्त्र यक्ष्मा निवारण के लिए पढ़ा जाता है। हरिमाणः का अरबी में रहिमानः हो गया है।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय॥ (ऋक्, १/५०/११)
हरिमाणः का बीज मन्त्र ह्रीं तन्त्र में प्रयुक्त होता है। हृदय के ३ कर्म हैं-हृ = आहरण या लेना।
द = देना, य = यम, नियमन।
ह्रीं के भी तीन खण्ड हैं-ह्, र्, ईं। इनके विभिन्न अर्थ हैं।
हृदय का सूर्य से सम्बन्ध प्रकाश गति से है। वह १ मुहूर्त में ३ बार जा कर लौट आता है- त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्तमागात् (ऋक्, ३/५३/८)। इस पर अन्य ग्रहों के प्रभाव का वर्णन वाज. यजुर्वेद (१५/१५ आदि) में है।
चक्षु रोग नाश के लिए चाक्षुषोपनिषद् भी है।
शुक्ल यजुर्वेद में विभिन्न अध्यायों से सूर्य सम्बन्धित मन्त्रों का संग्रह कर सूर्य सूक्त है।
एक कहावत है-‘पहला सुख निरोगी काया’। शरीर का निरोग रहना मुख्य सुख है। शरीर है, लग्न। लग्न का कारक है, सूर्य । अतः शरीर को रोगयुक्त व रोगमुक्त करना सूर्य सापेक्ष है। रोग शरीर का धर्म है। सबको रोगी होना पड़ता है। इससे बचाव का एक अमोद्य मार्ग है। यह मार्ग श्रुति पतिपाद्य/वैदिक है।
इसका अवलम्बन करने वाले के सम्मुख रोग अपनी पीठ दिखाता है। तीन रोग हैं-
१. दैहिक- इसका स्थान प्रथम भाव है। २. भौतिक- इसका संबंध पञ्चम भाव से है।
३. दैविक यह नवम भाव में होता है।
प्रथम पञ्चम, नवम में परस्पर मैत्री संबंध होता है।
अतः तीनों भाग्यस्थान हैं।
१ मंगल, ५ सूर्य, ९ गुरु.
२ शुक्र, ६ बुध, १० शनि
३ बुध, ७ शुक्र, ११ शनि –
४. चंद्र, ८ भौम, १२ गुरु.
उपरोक्त चारों परस्पर नैसर्गिक मित्र हैं।
त्रिकोण राशियाँ स्वभावतः मित्र हैं। ये तीनों भाग्य कारक हैं। नवम में जो राशि होती है, उससे पञ्चम एवं नवम अर्थात् लग्न एवं पञ्चम की राशि उसकी मित्र होती है। यही कारण है कि कोई न कोई रोग जातक को रहेगा ही। सभी रोगों के देवता हैं। इन देवताओं का अधिदेव सूर्य है। इसके अर्चन से समस्त रोग शान्त होते हैं।
भाग्य को जानने से विशेष लाभ नहीं होता। भाग्य को सुधारना, चमकाना महत्वपूर्ण है। भाग्य चमकता है, सूर्य से। दिव्यात्मा सूर्य के प्रसन्न होने से दैहिक, बौद्धिक (भौतिक) तथा दैविक सभी रोग भाग जाते हैं। रोगों का भाग जाना भाग्य का उत्कर्ष है। इसके लिये मैं सूर्य की शरण में जाता हूँ। यह व्यास वाक्य है…
“आरोग्यकामोऽथ रविं धनकामो हुताशनम्
कर्मणां सिद्धिकामस्तु पूजयेद् वै विनायकम् ॥”
( कूर्म पु. उ.वि. २६ । ४०)
आरोग्य की इच्छा वाले को सूर्य को, धर्मालिभा को अग्नि को कर्मों में सिद्धि पाने वाले को विनायक की पूजा करना चाहिये।
” किं किं न सविता सूते काले सम्यगुपासितः ।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं वसूनि स पशूंस्तथा ॥ मित्रपुत्रकलत्राणि क्षेत्राणि विविधानि च। भोगानविधांश्चापि स्वर्ग चाप्यपवर्गकम् ॥”
(स्कन्दपुराण, काशी खण्ड ९ । ४७-४८)
जो मनुष्य सूर्य को यथा समय सम्यक् प्रकार से उपासना करते हैं, उन्हें वे क्या-क्या नहीं देते ? वे अपने उपासकों को दीर्घायु, आरोग्य, ऐश्वर्य, धन, पशु, मित्र, पुत्र, कलत्र, विविध भूमियाँ, आठ प्रकार के भोग, स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) प्रदान करते हैं। ऐसे सूर्य की उपासना सावित्री मंत्र के द्वारा अनादिकाल से ब्राह्मणों द्वारा होती चली आ रही है। ऐसे ब्राह्मणों को मेरा नमस्कार !
हृदय और यकृत का कारक सूर्य है। हृदय परिवहन का कारक है। यकृत से पित्त का स्राव पाचकाग्नि के दीपन हेतु होता है। हृदयरोग और पित्तरोग / पीलिया / रक्ताल्पता को दूर करने का मन्त्र इस प्रकार है-
“‘उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम् । हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥’
(ऋग्वेद १।५० | ११ )
अन्वय- उद्यन्, उत्तरां दिवं आरोहन् मित्रमह सूर्य !
अद्य मम हरिमाणं हृद्रोगं च नाशय ।
उद्यन् = उदयगच्छन् उदय प्राप्नुवन् सन्, उदय होते हुए।
उत्तराम् = उत्कृष्टतरम् ऊपर की ओर, आगे को।
दिवम्= द्युलोकम् दीप्तिम् वा द्युलोक को, उज्जवलता को ।
आरोहन् =चढ़ते हुए, उठते हुए, आरुढ़ होते हुए।
मित्रमह = हे उन्नत मित्र, हे प्रसन्न मित्र, हे सुप्रकाशित मित्र!
(मह = हर्ष उत्सव)।
सूर्य=सूर्य हे सूर्य देव ।
अद्य मम= आज मेरे ।
हरिमाणम्= हरि + मतुप् + अम्। पीलेपन को पीलिया रोग को, (हरि=पीला)।
च हृद्रोगम् = और हृदयरोग को, मनोव्यथ को, (हृद् =मन।)
नाशय = दूर करो।
मन्त्रार्थ: हे शोभा सम्पन्न सूर्य । उदय होते हुए पुनः ऊपर की ओर उठते हुए आप, मेरे एवं हृदयरोग को दूर कर दें।
शरीर को आरक्त करने के लिये उसके पीलेपन को भगाना है। देह की इस पीलाई को यथा स्थान रखना है, जहाँ कि यह पीला रंग स्वभावतः पाया जाता है और वहाँ शोभा भी देता है। इसके लिये आगे यह ऋचा है…
“शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्यसि। अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि ॥”
( ऋग्वेद १ । ५० । १२, अथर्व १ । २२ । ४)
अन्वय…
मे हरिमाणं रोपणाकासु शुकेषु दध्मसि । अथो मे हरिमाणं हारिद्रवेषु निदध्मसि ।
मे हरिमाणम् = मेरे (अपने) पीलिया रोग को।
रोपणाकासु, शुकेषु दध्मसि =अमरबेलों, शुकों में हम स्थापित करते हैं। वृक्षों के ऊपर पर्णहीन सूत्रवत् पीले रंग की लता को आकाश बेल कहते हैं। इसका कभी नाश नहीं होता। जिस पेड़ पर एक बार यह हो गई तो सदा उस पर बनी रहती है। इसलिये इसे अमरबेल कहते हैं। कुष्ठरोग की यह महौषधि है।तोता हरेपीले रंग का होता हो है।
अथो= और भी, पुनः।
हारिद्रवेषु नि दध्मसि= पीले रंग के पुष्पों कनेर, कदम्बादि) में हम प्रस्थापित करते हैं।
मंत्रार्थ- हम अपने पीलिया रोग को आकाश बेलों में रखते हैं, तोतों में रखते हैं। पुनः हम अपने पीलिया रोग को पीले रंग के कदम्ब कनेर के पुष्पों में रखते है।
विशेष-जब इस मंत्र को दूसरे के लिये प्रयुक्त किया जाय तो ‘मे हरिमाणं’ के स्थान पर ‘ते हरिमाण’ कहा जाय।
वास्तव में रोग का नाश नहीं होता। रोग देवता होता है। यह अमर होता है। इसलिये इसका नाश अशक्य है। केवल इसे हटाया जाता है। इसके लिये इसका निवास स्थान निश्चित करना आवश्यक है, जहाँ वह सुख से रहे। ऐसा करने से फिर वह नहीं लौटता। औषधि से रोग जाता है, फिर आता है। यह वैदिक मंत्र सदा-सदा के लिये रोग निवारक है।
इस मंत्र के प्रयोग से दुर्भाग्य का पलायन होता है और यही सौभाग्य है। यह कैसे ? चतुर्थ भाव से षष्ठ स्थान है, न अर्थात् नवम भाव, चतुर्थ का शत्रु हुआ भाग्य जब शत्रु हो जाय तो उसे दुर्भाग्य कहते हैं। हृदय और यकृत का रोग नवम में है। इस रोग के हटते ही दुर्भाग्य हटता है। फलतः सौभाग्य जागता है। इन मंत्रों के द्रष्टा प्रष्कण्व ऋषि को में प्रणाम करता हूँ।
सूर्य की आरोग्यदायका के विषय में पुनः एक श्लोक…
“आरोग्य भास्करादिच्छेद् धनमिच्छेद्धताशनम् ।
ईश्वराज्ञानमिच्छेच्च मोक्षमिच्छेज्जनार्दनात् ॥”
(-मत्स्यपुराण ६७ /७१ )
सूर्य से आरोग्य की कामना करे, अग्नि से धन की कामना करे, शंकर से ज्ञानाने की इच्छा करे, तथा विष्णु से मोक्ष की चाह करे। वास्तव में सूर्य डी अग्नि, शिव एवं विष्णु हैं। अतः ये सर्वप्रदाता है। मैं इन्हें प्रणाम करता हूँ।
आरोग्यदायक पुनः यह मन्त्र…
“अनु सूर्यमुदयतां हृद्द्योतनो हरिमा च ते।
गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परि दध्मसि ॥’
( अथर्ववेद १ । २२ । १)
अनुसूर्यम् =सूर्य के उदय होने के पश्चात् अर्थात् प्रातः कालीन किरणों से
ते हृद् द्योतः=तेरे हृदय का सन्ताप।(द्युत्तपने+घञ्=द्योतः)
च हरिमा = और पीलिया रोग (रक्त को लालिमा को हरने वाला रोग)।
उदयताम् = उत्-अयताम् उड़ जायें, भाग जायें।
तेन रोहितस्य गोवर्णेन =उस लाल सूर्य के वर्ण द्वारा।( गो =सूर्य, निरू: २ । २।६) । त्वा (म्) परि-दध्यसि =तुझे हम ढाँपते हैं।
इस मंत्र में सूर्य के लाल रंग के प्रकाश से रोगमुक्ति का कथन हुआ है। अनु सूर्यम् का यह भी अर्थ है- सूर्य जिसका अनुसरण करता है अर्थात् उपा की लालिमा पूर्व दिशा का आरक्त वर्ण रोग नाश हेतु महत्वपूर्ण है। स्नान घरों में स्नान करने वालों के लिये यह प्रकाश दुर्लभ है। स्वास्थ्य के लिये अब लाल रंग का मूंगा पहनते है।
दीर्घायु के लिये यह सूर्य मंत्र…
“परि त्वा रोहितैर्वणैर्दीर्घायुत्वाय दध्मसि ।
यथायमरपा असदधो अहरितो भुवत्॥” ( अथर्व. १ । २२ । २)
त्वा (म्) दीर्घायुत्वाय =तुझे दीर्घायु करने के लिये।
रोहितै: वर्णैः = लाल रंग (की किरणों के) द्वारा।
परि-दध्मसि = हम आच्छादित करते हैं।
यथा अयम् अरपाः असत्= जिस प्रकार यह (शरीर) पाप जन्य रोग से रहित हो।
अथो अहरितः भुवत् = तथा पीलेपन से रहित हो।
असत् एवं भुवत् दोनों लेट् लकार के हैं। अर = गति। अरपाः= गति का पान करने वाले =शरीर को निश्चेष्ट वा अशक्त करने वाले रोग। हरित् = पीला। अहरित् = पीला विहीन।
कायाकल्प के लिये यह सूर्यमन्त्र…
“या रोहिणीर्देवत्या गावो या उत रोहिणीः ।
रूपं रूपं वयोवयस्ताभिष्ट्वा परि दध्मसि ॥”
या तेवत्याः रोहिणीः = जो लाल रंग की रश्मियाँ हैं।
उत या रोहिणी: गावः = हाँ । जो लाल रंग की किरणें हैं। (यहाँ उत विस्मय/ आश्चर्य बोधक अव्यय है। उत = अहोस्वित्)
ताभिः त्वा(म्) रूपं रूपं वयः वयः = उन रश्मियों के द्वारा तुम्हारे रूप (सौन्दर्य) एवं वय (अवस्था) को
परि दध्मसि = हम आच्छादित करते हैं।
इन मंत्रों के देवता सूर्य तथा ऋषि ब्रह्मा को मैं प्रणाम करता हूँ । कृमिजन्य रोगों के नाश के लिये सूर्यमत्र…
“उद्यन्नादित्यः क्रिमीन, हन्तु, निम्लोचन् हन्तु, रश्मिभिः ।
य अन्तः क्रिमयो गवि ॥’
( अथर्व. २ । ३२ । १)
उद्यन् आदित्यः = उदय होता हुआ सूर्य। निम्लोचन् = अस्त होता हुआ। क्रिमीन् हन्तु= क्रिमियों का हनन करे । रश्मिभिः= रश्मियों द्वारा। ये अन्तः क्रिमयः =जो कीड़े कीटाणु भीतर हैं। गवि = पृथ्वी में। (गौः पृथिवी नाम। निघण्टु १ । १) । क्रम् पाद विक्षेपे क्रामतीति अथवा, कृञ् हिंसायाम् क्या. + इ = कृमि (उणा. ४ । १२३) = क्रिमि ।
नि + म्लुच् + अञ् = निम्लोच =सूर्यास्त ।
वस्तुतः जो हानि पहुँचाये वही कृमि हैं, भले ही वह छोटा अणुरूप वा बड़ा हो। क्रिमियों के रूपाकार के विषय में अगला मंत्र…
“विश्वरूपं चतुरक्षं क्रिमि सारंगमर्जुनम् । शृणाम्यस्य पृष्टीरपि वृश्चामि यच्छिरः ॥”
(अथर्व. २ । ३२ । २)
विश्वरूपम् = व्यापक वा नाना रूप वाले । चतुरक्षम् =चारों ओर सर्वत्र व्याप्त/पाये जाने वाले । (अक्ष व्याप्तौ अक्षति-अक्ष्णोति) सारंगम् =विविध रंगों वाले। अर्जुनम् = श्वेत वर्ण वाले। क्रिमिम्= हानिप्रद जीवाणुओं को। शृणामि = मारता हूँ। अस्य पृष्टीः= इसकी रहने की जगह को भी (नष्ट करता हूँ शृणामि) । यत् शिरः = इसका जो सिर है। वृश्चामि = (उसे) काटता हूँ।
इस सूर्य विद्या के ज्ञाता अनेक ऋषि हो चुके हैं। इनमें अत्रि, कण्व, जमदग्नि तथा अगस्त्य प्रख्यात हैं। अगस्त्य ने राम को ‘आदित्य हृदय स्तोत्र’ नाम का ब्रह्मास्त्र दिया था। अतः इस विधा में इन ऋषियों …
“अत्रिवद् वः क्रिमयो हन्मि कण्ववज्जमदाग्निवत् । अगस्त्यस्य ब्रह्मणा सं पिनष्म्यहं क्रिमीन् ॥”
(अथर्व. २ । ३२ । ३)
क्रिमयो वः हन्मि = हे क्रिमयों मैं तुम्हारा हनन करता हूँ।
अत्रिवत् कण्ववत् जमदग्निवत् = अत्रि की तरह, कण्व की तरह तथा जमदग्नि मुनि की तरह।
अगस्त्य ब्रह्मणा = अगस्त के ब्रह्मास्त्र (सौर प्रयोग) द्वारा।
अहं किमी संपिनष्मि =मैं क्रिमियों को चटनी करता, पीसता हूँ।
इन मंत्रों के ऋषि द्रष्टा काण्व तथा आदित्य देवता है। मेरा इन्हें सतत प्रणामः ।
यह बात श्रुति सम्मत है कि उदय और अस्त होते हुए सूर्य की आराधना, ध्यान करने वाला विद्वान् ब्राह्मण सब प्रकार के कल्याण को प्राप्त करता है। यह वाक्य है… ‘उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणों विद्वान् सकलं भद्रमश्रुते।’ ( तैत्तिरीय आरण्यक प्र. २, अ. २ ।)
जो विद्वान ब्राह्मण इस आदित्य को ब्रह्म रूप से उपासते हैं, उनके समीप शीघ्र ही सुन्दर घोष आते हैं और उसे सुखेन तृप्त करते हैं। वाक्य है…
” स य एतमेवं विद्वानादित्यं ब्रह्मेति उपास्तेऽभ्याशो ह
यदेनँ साधवो, घोषा आ च गच्छेयुरुप च निम्रेडेरन्निम्रेडेरन् ।”
(छान्दोग्योपनिषद ३ । १९ । ४)
सः यः = वह जो। एतम् इसको । एवम् = इस प्रकार के ।आदित्यम् ब्रह्म = सूर्यरूप ही ब्रह्म है। इति = ऐसे। उपास्ते = उपासना करता है, यदएनम् = इस (उपासक) को। अभ्याशः ह = समीप ही है, जल्दी हो, निकट भविष्य में। साधकः = अच्छे, भले । घोषाः = शब्द, वाक्य, कथन। च = और।आगच्छेयुः= आवें, प्राप्त हों। च = और। उपनिम्रेडेरन् = वे (घोष) आनान्दित करें, सुख के कारण हो । निम्रेडेरन् = सुखी करें। (द्विरुक्ति आदरार्थ है)।
ऐसे आदित्य भगवान् को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। उनके उपासकों को भी मेरा प्रणाम ।
ये ही सूर्य बहा, विष्णु और शिव हैं तथा त्रिमूल्यात्मक एवं त्रिवेदात्मक सर्वदेवमय हैं। ये ही हरि हैं। वचन है-
‘एष ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्र एव हि भास्करः । त्रिमूर्त्यात्मा त्रिवेदात्मा सर्वदेवमयो हरिः ॥’ ( सूर्यतापिन्युपनिषद् १ । ६)
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