हम ईश्वर के बारे में सवाल कब उठाते हैं ?
डॉ.अजय भाम्बी ( विश्व प्रसिद्ध ज्योतिषी ) –
Mystic Power- ईश्वर के साथ हमारा अवचेतन संबंध-मनुष्य का ईश्वर के साथ गहरा अवचेतन संबंध है। जब वह कष्ट में होता है तो ही ईश्वर को याद करता है। जब उसे चोट लगती है तो कराहते हुए ईश्वर का नाम पुकारता है। इसी प्रकार आनंदातिरेक में भी ईश्वर को याद करता है। इस प्रकार अनजाने में ही ईश्वर हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ईसाई धर्म में जीसस क्राइस्ट को जब सूली पर चढ़ाया जा रहा था तो वे पूरी चेतना के साथ अपने पिता को याद कर रहे थे और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि वह उन्हें क्षमा कर दे क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं और महात्मा गाँधी की नृशंस हत्या के बाद भी उनके आखिरी शब्द थे, ‘हे राम’।
ईश्वर के साथ हमारे संबंध का दूसरा आयाम है, व्यवसायीकरण का। ईश्वर के साथ हमारे अधिकांश संबंधों का दृष्टिकोण शुद्ध व्यावसायिक होता है। हम ईश्वर को सब कुछ भेंट चढ़ाने के लिए तैयार रहते हैं, भोजन, पैसे, कपड़े, गहने आदि और हर मौके पर हर तरह का त्याग करने के लिए भी तैयार रहते हैं बशर्ते कि हमारे सभी प्रयासों की क्षतिपूर्ति भी की जाए। हममें से कुछ लोग ईश्वर को खुश रखने के लिए नियमित रूप से कुछ न कुछ करते रहते हैं और कुछ लोग ऐसे हैं जो मुसीबत पड़ने पर ही उसे भेंट चढ़ाते हैं। ईश्वर को खुश रखने का यह सिलसिला निर्बाध रूप में तब तक चलता रहता है जब तक कि कोई बड़ी बाधा सामने न आ जाए।
हम ईश्वर के बारे में सवाल कब उठाते हैं ?
ईश्वर के साथ मनुष्य के संबंध का स्वरूप उस समय पूरी तरह बदल जाता है जब कुछ गड़बड़ होती है या जीवन में कुछ अनहोनी हो जाती है। यही समय है जब वह ईश्वर के अस्तित्व पर ही संदेह करने लगता है और अपने बारे में भ्रम का शिकार होने लगता है। यही वह समय है जब मनुष्य एक ऐसी विरोधाभासी दुनिया में प्रवेश करने लगता है कि वह ईश्वर के अस्तित्व को लेकर अपने दिमाग में ही वाद-विवाद में उलझ जाता है। बचपन से ही ईश्वर की प्रतिमा और स्वरूप उसके दिमाग में इतना असीम हो जाता है कि वह आसानी से उसकी उपेक्षा नहीं कर पाता। संकट और भ्रम की स्थिति में आम तौर पर मनुष्य अपनी ही कमियों के बारे में सोचने लग जाता है और उन्हें सुधारने की कोशिश में जुट जाता है। इस प्रक्रिया में वह वांछित परिणाम हासिल करने के लिए पहले चरण में असफल रहने पर भी निडरता से जी-तोड़ कोशिश करता जाता है। और इस बीच उसे कई ऐसे लोग भी मिलते हैं जो उसे बताते हैं कि पहले चरण में उसके प्रयासों में ऐसी कौन-सी कमी रह गयी थी कि वह कामयाब नहीं हो पाया था।
इस बीच परिस्थितियाँ उसे विवश कर देती हैं और वह अपने देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। वह किसी के भी कहने से या अन्य स्रोतों से उसे जो कुछ भी जानकारी अब तक मिली है उसके आधार पर वह कुछ भी करने को तैयार रहता है। नयी उम्मीद और नये लक्ष्य को लेकर वह ईश्वर तक पहुँचने के लिए पहले से कहीं अधिक ईमानदारी और उत्साह से नये सिरे से अपनी यात्रा शुरू करता है। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक कर्मकांड करने के लिए वह अपनी भूख और नींद की भी परवाह नहीं करता। इस प्रक्रिया में वह ऐसे तीर्थस्थानों और मकबरों का भी पता लगा लेता है और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए वहाँ के चक्कर भी लगाने लगता है। उसे पूरा भरोसा होता है कि इन नये उपायों से वह निश्चय ही अपने मकसद में कामयाब हो जाएगा और वह दूने उत्साह से इन कर्मकांडों का पालन करने में जुटा रहता है। परंतु उसकी कुछ इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं और कुछ पूरी नहीं भी होतीं तो वह एक बार फिर से हतोत्साहित होने लगता है। बुरे से बुरे विचारों की आशंका से ग्रस्त होकर वह कल्पना करने लगता है कि उसकी असफलता के पीछे कुछ अज्ञात शक्तियों का हाथ है और उनके कारण ही ईश्वर ने उसकी मनोकामना पूरी नहीं की है। इस आशंका से उसका मनोबल टूटने लगता है और वह दिग्भ्रमित हो जाता है। इस प्रकार निराश होकर वह ईश्वर के अस्तित्व को ही मानने से इंकार करने लगता है।
यही वह समय है जब मनुष्य की जीवन-यात्रा कुछ समय के लिए थम जाती है। ऐसे समय में वह किसी भी विचार को अपने दिमाग में आने से रोक देता है और जीवन से निराश होकर अपने आपमें सिमट जाता है। संदेह की इस घड़ी में भी ईश्वर के अस्तित्व के प्रति उसका गहरा विश्वास उसमें नयी उम्मीद जगाता है और वह नये विकल्प तलाशने में जुट जाता है। परंतु साथ ही इस समय वह किसी पर आसानी से विश्वास भी नहीं कर पाता।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -: