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रुद्रोपसना महात्म्य
शशांक शेखर शुल्ब – (धर्मज्ञ )
Mystic Power – जो सबका है, उसे यह नहीं कहा जा सकता कि यह मेरा है, उसका है, इसका है। परमात्मा ऐसा ही है। यह परमात्मा किसी एक व्यक्ति विशेष, समुदाय विशेष जाति विशेष, वर्ग विशेष का कैसे हो सकता है ? क्योंकि यह सबका है, सर्वरूप है। सत्य सबका है, किन्तु सत्य पर सबका अधिकार नहीं है। जब कि सत्य सब में प्रतिष्ठित है। यह सत्य किसी के लिये प्रकट है, किसी को परोक्ष है, किसी के लिये है ही नहीं, किसी की समझ में ही नहीं आता। इस अद्भुत सत्य को व्यापक दृष्टि से देखने दिखाने वाले श्री महाराज जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
श्रावण मास वर्ष का चतुर्थ मास है। श्रवण = संख्या ४। श्रवण नक्षत्रेश चन्द्रमा है। चन्द्रमा की राशि कर्क है। कर्क=४। चतुर्थ भाव मन है। मन= ४ चन्द्रमा से की उत्पत्ति है। ‘चन्द्रमा मनसो जात: ।’- पुरुष सूक्त। अतएव मन = ४। श्रावण मास में शिव नामक देवता की विशेष पूजार्चा होता है। लोग रुद्राभिषेक करते हैं। यह पूरा महीना शिव को समर्पित है। इसका क्या तात्पर्य है ? रहस्य क्या है ? वास्तविकता क्या है ? अब इस पर विचार करता हूँ।
शिव= सूर्य=रुद्र= अग्निस्वरूप, उप, कठोर, उष्ण, तीक्ष्ण, दाहक, तापकारक सूर्य जब कर्क = = रुद्र = राशि का भोग करता है कर्क राशि में सूर्य का चार होता है तो इससे कर्क का स्वामी चन्द्रमा वा मन पीड़ित होता है। सूर्य के ताप से मन दग्ध होने लगता है। मन ज्ञानेन्द्रिय है। इससे ज्ञान विचार दूषित होता है, अशान्ति उत्पन्न होती है। अशान्ति ही दुःख है। ‘अशान्तस्य कुतो सुखम् ?’- गीता २ / ६६ ।
अशान्त चित्त मनुष्य को सुख कहाँ ? शान्ति रहित मनुष्य को सुख नहीं मिलता। मन अशान्त होता है, सूर्य के ताप से सूर्य शान्त होता है, जल से क्योंकि सूर्य का पुत्र है जल ।सूर्य= अग्नि= रूप।रूप से रस की उत्पत्ति होती है। रस = जल । पुत्र को देख कर पिता प्रसन्न (शान्त) होता ही है।
इसलिये सूर्य को अर्थ में जल दिया जाता है। पिता पुत्र के स्वभाव में कितना वैषम्य है ? सूर्य उष्ण है तो जल शीतल। दोनों एक दूसरे के प्रभाव को नष्ट करते हैं। सूर्य को जल देना रूद्राभिषेक है।
सूर्य लग्न का कारक है। लग्न शिर है। शिर में मस्तिष्क है। यह मस्तिष्क विचार चेतना का केन्द्र है। यह कठोर कपाल से ढका हुआ इसमें सुरक्षित है। यह कपाल शिवलिंग है। कपाल को जल से सींचने पर मस्तिष्क (सूर्य) की उष्णता शान्त होती है। यहाँ रुद्राभिषेक है। श्रावण मास की गर्मी (उमस) असह्य होती है। शीतल जल से सेचन इस का एक निदान है। अतः ऐसी दशा (श्रावण मास) में कपाल पर जल उड़ेलते हुए स्नान करना चाहिये। रुद्राभिषेक मस्तका-भिषेक = मस्तक पर जलधारा गिराना। ऐसा करते हुए इस मंत्र का जाप किया जाना श्रेष्ठ होता है…
“नमः शम्भवाय च मयोभवाय च।
नमः शिवाय च शिवतराय च ॥
( यजुर्वेद १६/४१ )
यही शवार्चन है। इससे रौद्र प्रभाव क्षीण होता है तथा शान्ति मिलती है। शान्त होना ही सुख है। में जो सुखी है, वह धन्य है। जो मछलियाँ अगाध जल में होती हैं, वे सुखी होती हैं। अगाध जल मनुष्य की गति कहाँ ? अतः वे अभय होती हैं। अभय होना ही सुख है। श्री हरि की शरण में जाने से सभी बाधाएँ (दुःख) भाग जाते हैं। गोस्वामी जी कहते हैं…
“सुखी मीन जे नीर अगाधा।
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ।।”
(किष्किन्धा काण्ड, रा.च.मा. )
मन चञ्चल है। मन को जल प्रिय है। मछली चञ्चल है। जल मछली का आवास है। अतः मन = मछली। इस मन को जल चाहिये। जल में श्री हरि लक्ष्मी के साथ रहते हैं। मन को जल मिलने पर श्री हरि की प्राप्ति स्वतः हो जाती है। श्री हरि की शरण में जाना रुद्राभिषेक है। जो श्री हरि की शरण में है, उसे मेरा नमस्कार !
सूर्य/ अग्नि कठोर है। पत्थर कठोर है। इसलिये अज्ञानी जनों ने पत्थर के खण्ड को शिव मान लिया। शिव हिलता डुलता नहीं। यह अडिग एवं सर्वव्यापक आकाश है। पत्थर को भूमि में गाड़ कर, अडिग बना उसे शिव कह दिया। लोगों ने असीमित मूर्ति को सीमित मूर्ति मान कर पूजना प्रारंभ किया। यह सर्वमान्य एवं शाश्वत व्यापक न होने से असत्य है। असत्य की पूजा का फल क्या है ? यह सर्वत्र देखा जा रहा है। व्यक्ति, देश, समाज के दुःख का अन्त नहीं। संसार असत्य से चलता है। इसलिये यह होता रहेगा। असत्याय नमः ।
ब्रह्म जी के क्रोधमय वयु से रुद्रों की उत्पत्ति हुई। संख्या में ये ग्यारह है। ११ = लाभ। अतः रुद्रगण लाभप्रद हैं। ११ रुद्र हैं तो ११ रुद्राणियाँ इनकी पत्नियाँ हैं। ये युग्म रूप से इस देह में निवास करते हैं । ११ इन्द्रियाँ इन सबके स्थान हैं। इन्द्रियाँ ११ हैं, इसलिये रुद्र भी ११ हैं। इन्द्रियाँ ५ ज्ञानेन्द्रियों + ५ कर्मेन्द्रियाँ + १ मन= ११ ग्यारह।
शरीरस्थ रुद्रगण
१. कर्ण-स्थ …रुद्र आकाश…रुद्राणी ध्वनि ।
२. त्वक्-स्थ… रुद्र-वायु… रुद्राणी – स्पर्श ।
३. नेत्र- स्थ …रुद्र-अग्नि…रुद्राणी-रुप।
४. रसना स्थ… रुद्र- जल…रुद्राणी-रूप
५. नासा स्थ… रुद्र- पृथ्वी…रुद्राणी-गन्ध।
६. हस्त स्थ… रुद्राणी-क्रिया…रुद्र-प्राण।
७. पाद-स्थ…रुद्राणी-गति… रुद्र-व्यान।
८. उपस्थ-स्थ…रुद्राणी-रति… रुद्र-अपान ।
९. पायु-स्थ…रुद्राणी-शुद्धि… रुद्र समान।
१०. मुख- स्य… रुद्राणी-वाणी… रुद्र-उदान।
११. हृदयस्थ…. रुद्राणी- भावना…
रुद्र-विचार ।
ये एकादश रुद्र सर्व उपास्य हैं। इनके कुपित होने पर तद् तद् अंगों में विकार उत्पन्न होता है। इस विकलांगता से बचने के लिये जातक को नित्य रुद्रोपासना करना है।
सभी रुद्रों के जोड़े हैं। इसलिये रुद्रस्थान भी दो-दो हैं।
१. आकाश रुद्र- वायाँ कान दायाँ कान। २. वायु रुद्र- रोमहीन (करतल, पादतल) त्वचा, रोमिल त्वचा ।
३. अग्नि रुद्र- बायीं आँख दायीं आँख । ४. जल रुद्र बाह्य जिह्ना, अन्तर्जिह्वा ।
५. पृथ्वी रुद्र वाम नासाद्वार दक्षिण नासाद्वार।
६. प्राण रुद्र- वाम हस्त, दक्षिण हस्त । ७. व्यान रुद्र- वाम चरण, दक्षिण चरण । ८. अपान रुद्र- वाम वृषण, दक्षिण वृषण।
९. समान रूद्र अन्तर्गुदा, बाह्यगुदाद्वार। १० उदान रुद्रमुख का ऊपरी हनु (जबड़ा), मुख का निचला हनु (जबड़ा)। ११. विचार रुद्र- अचल हृदय वा बुद्धि कपाल में, सबल हृदय वा मन वक्ष में।
विचार = वि + चार।=गति का अभाव, विशिष्ट गति। = व्यापक तत्व । = चतुर्भुजविष्णु।भावना=चंचला । = लक्ष्मी। चतुर्भुज विष्णु ऐसे रुद्र हैं जिनकी कृपा से मन बुद्धि ठीक रहती है। इसलिये मैं अपनी मनबुद्धि इन्हें अर्पित करता हूँ। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी ऐसी रुद्राणी हैं जिनकी कृपा से धन धान्य सुख सम्पत्ति अक्षुण्ण रहती है। लक्ष्मी के बिना जीवन व्यर्थ है। ऐसी लक्ष्मी वसुमती को मेरा प्रणाम । शिव को जटाजूट धारी कहा गया है। ११ रुद्रों का शिव का स्वरूप माना जाता है। अतः ये भी शिव के समान जटाधारी है। जय = बालों का समूह। एकादश रुद्र स्थान बालों से आवृत होने से जटाजूटधारी हुए। कानों के ऊपर, दायें बायें बाल होते हैं। त्वचा के ऊपर बाल उगे होते हैं। आँखों के चारों ओर बरौनियाँ होती है। जिह्वा मुख के भीतर दाँतों से घिरी होती है। नांसाछिद्रों में बाल उगे हुए होते हैं। हथेली के पृष्ठ भाग पर बाल होते हैं। चरण के ऊपर बालों का गुच्छा होता है। उपस्थ स्थान बालों से घिरा होता है। गुदा स्थान के चतुर्दिक बाल पाये जाते हैं। मुख पर दाढ़ी मूंछ के बाल पाये जाते हैं। कपालस्थ हृदय के ऊपर शिर के केश समूह होते हैं तथा वक्षस्य हृदय के ऊपर छाती के बाल होते हैं। इससे स्पष्ट है ये सभी रुद्र जटाजूटधारी एवं शिव रूप है। तेभ्यः जटिभ्यः रुद्रेभ्यः नमः । इन सभी जटाजूटधारी एकादश रुद्रों को मैं नमस्कार करता हूँ।
चन्द्रमा की कलाओं में रुद्रों का निवास है। चन्द्रमा मन है। चन्द्रमा की कलाएँ मन की वृत्तियाँ हैं। मन अपना स्वामी होने के साथ-साथ समस्त इन्द्रियों का स्वामी है। अतः इन रुद्रों का मन सहित समस्त ११ इन्द्रियों पर शासन है। ११ करण =११ रुद्र ।
तिथि का आधा भाग या आधी तिथि जितने समय में बीतती है, उसे करण कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर १२° होने पर एक तिथि होती है। अतः तिथ्यर्थ १२/२= ६° = एककरण। ७ चर = करण तथा ४ स्थिर करण मिल कर कुल ११ करण हैं।
इनमें से ६ करण-बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज शुभ है। विष्टिकरण अशुभ है। शेष चार स्थिर करण- शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंस्तुघ्न मध्यम हैं। विष्टिकरण को भद्रा कहते हैं।
नाम भद्रा है, प्रभाव अभद्रा (अशुभ) है। यह विशेष बात है।
१. कृष्ण चतुर्दशी का उत्तरार्ध =शकुनि । २. अमावस्या का पूर्वार्ध = चतुष्पद।
३. अमावस्या का उत्तरार्ध = नाग।
४. शुक्ल प्रतिपदा का पूर्वार्ध= किन्स्तुघ्न ।
५. शुक्ल प्रतिपदा का उत्तरार्ध = बव।
६. शुक्ल द्वितीया का पूर्वार्ध = बालव।
७. शुक्ल द्वितीया का उत्तरार्थ =कौलव।
८. शुक्ल तृतीया का पूर्वार्ध= तैतिल ।
९. शुक्ल तृतीया का उत्तरार्ध = गर
१०. शुक्ल चतुर्थी का पूर्वार्ध= वणिज । ११. शुक्ल चतुर्थी का उत्तरार्ध= विष्टि (भद्रा)) अशुभ।
बव से विष्टि पर्यन्त ७ चर करणों की ८ आवृत्ति होती है। बार-बार आने से इन्हें चर संज्ञक कहा गया है। शकुनादि चार करण केवल एक बार ही महीने में आते हैं। इसलिये ये स्थिर कहे गये हैं। १ मास में २ पक्ष होते हैं। प्रत्येक पक्ष में १५ तिथियाँ होती हैं। शुक्ल पक्ष की १५ तिथियों एवं कृष्ण पक्ष की १५ तिथियों = मास की १५ + १५= ३० तिथियाँ १ तिथि = २ करण। अतः २ मास २ x ३० = ६० करण। इन ६० करणों में से ७ x ८ = ५६ चर करण हैं। शेष ४ स्थिर करण हैं। ये ग्यारह करण ११ रूद्रों के वास स्थान हैं।
११ रुद्रों के नाम पुराणों में रैवत, अज, भव, भीम, नाग, वृषाकपि, उप, अजैकपाद, अहिर्बुध्य, बहुरूप, महान् [ हैं। प्रत्येक रुद्र तीन आँखों वाला होने से त्रिनेत्र कहलाता है। ११ रुद्रों की कुल आँखों की संख्या ११ X ३ – ३३ है । ३३ व्यञ्जन वर्ण ही रूदों की ३३ आँखें हैं। विराट पुरुष का वाड्मय शरीर वेद । वेद इन ३३ आँखों से परिपूर्ण है। ये ३३ आंखें अक्षर हैं। अक्षरेभ्यः नमः ।
बब आदि ११ करणों में सूर्य की संक्रांति पड़ने पर सूर्य को रैवतादि ११ रूद्र कहा गया है। पर एकादश करण संक्रांतियों में सूर्य के ११ वाहन, ११ आयुध तथा ११ हविष्यान्न होते हैं। ऐसा नारद पुराण के त्रिस्कन्ध ज्योतिष संहिता प्रकरण में कहा गया है।
प्रत्येक महीने में सूर्य की संक्रान्ति पड़ती है। महीने के जिस करण में सूर्य एक राशि को छोड़ कर दूसरी राशि में जाय तत् संबंधी सूर्य (रूद्र) के वाहन की पूजा, आयुध का दर्शन तथा हविष्यान्न का दान करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है।
एकादश रुद्रों की अर्थना का अर्थ है- एकादश इन्द्रियों को पुष्ट करना, अपने उत्कर्ष के लिये उन्हें विषयों में लगाना, इन्द्रियाधिपति मन को मर्यादित करना, मन को शान्त करना। मन के शान्त होने पर विषयों/भोगों का अभाव खलता नहीं। शान्त मन वाला जातक अभाव में सुख से रहता है। मन चन्द्रमा है। यदि (चन्द) आह्लादने दोप्तौ च चन्दति… चन्द्र प्रसन्नता, आनन्द, हर्ष, दीप्ति, चमक। शिवजी अपने ललाट पर चन्द्रमा को धारण करते हैं, का अर्थ है-शिवजी प्रसन्नता को धारण करते हैं, शिव जी आनन्द मग्न हैं, शिव जी के ललाट पर चमक है, दीप्ति है। अतः जो व्यक्ति सतत प्रसन्न है, आनन्दमग्न है, हर्षोत्फुल्ल है, वह निश्चय ही शिव है। शिव की उपासना का तात्पर्य है, शिव होना, शान्त होना, प्रसन्न होना, दीप्तिवन्त रहना। चन्द्रमा दीप्ति और हर्ष का द्योतक है। जिसमें दीप्ति और आनन्द है, वह चन्द्रघर/ चन्द्रशेखर चन्द्रमौलि है। शिव रोता नहीं। शिव का उपासक किसी के सामने क्यों रोए ? शिव के सच्चे उपासक को मेरा प्रणाम ।
सावन मास में शिवलिंग पर दूध की धारा गिराना दम्भ है, पाखण्ड है, आत्महत्या है। यह अवैदिक है, अकल्याणकर है। यह बात बालकों को समझ में कैसे आये ? दूध अमृत है। दुग्धामृत से नवनीत (मक्खन) तथा इससे सुगन्धित घृत निकलता है। इस घृत की अग्नि में आहुति देने से, ब्राह्मण के मुख में -डालने से शिवजी अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। यज्ञ रूप शिव को नमस्कार है। शिवलिंग पर जलधारा गिराने का उद्देश्य केवल इतना है कि जो देव कठोर है, हमारे प्रति नरम हो जाय, जो कालरूप एवं उम्र है, वह हम पर कृपा करे, दयालु हो। ऐसे शिव को प्रणाम है।
शिव का नाम भव है। भव को भाव चाहिये। भावहीन पूजा व्यर्थ है। भगवान् स्वयं कहते हैं…
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपमश्नामि प्रयतात्मनः ॥”
(गीता ९/ २६)
जो भक्त मेरे लिये प्रेम भाव से पत्र पुष्प फल जल अर्पित करता है, उस प्रयतात्मा/ शुद्धात्मा पुरुष का प्रेमपूर्वक दिया हुआ वह पदार्थ में खाता / ग्रहण / स्वीकार करता हूँ। पूजा की ये चार सुलभ सामग्रियाँ हैं। इनमें से कोई एक वस्तु ही पर्याप्त है। शिव को बिल्वपत्र, मन्दार पुष्प, बेर फल तथा गंगा जल प्रिय है। गंगाजल = गमन करता हुआ / बहता हुआ/ संधार जल विष्णु को तुलसीपत्र कनेर (पीला) पुष्प, रसाल (र. स.) फल तथा शुद्ध जल अर्पित किया जाता है। इन दोनों देवों की पूजा में अन्तर केवल इतना है कि शिव के सिर पर ये वस्तुएँ रखी जाती हैं तथा विष्णु के चरणों पर इन्हें चढ़ाया जाता है। शिव का सिर पूज्य है। विष्णु का २ पूज्य है। शिव पत्थर है। विष्णु भी पत्थर है। नर्मदा नदी का हर पत्थर शिवलिंग है तो गण्डक नदी का हर पत्थरशालमाम विष्णु है। शिवलिंग पर जल की धारा गिराई जाती है तो शालग्राम को जल में डुबोकर धोकर उस जल को चरणामृत के रूप में पिया जाता है। प्रत्येक श्वेत पत्थर शिव है तो कृष्ण पत्थर विष्णु है। प्रकाश शिव है। अन्धकार विष्णु है। गौर वर्ण जातक शिव है। काले रंग के लोग विष्णु हैं। यह विश्व श्वेतश्याममय है। जो श्वेत शिव हैं, वही श्याम विष्णु है। श्वेत हो श्याम होकर प्रकट होता है तथा श्याम अपने को श्वेत रूप में प्रस्तुत करता है। श्वेत श्याम की अभिन्नता को जानने वाला ही ब्राह्मण है। ऐसे ब्राह्मण को मेरा प्रणाम !
जिस पत्थर को शिवलिंग एवं शालग्राम के रूप में शैव एवं वैष्णव लोग क्रमशः पूजते हैं, उसका क्या उद्देश्य है ? ये दोनों पत्थर चिकने सुडौल और सुन्दर होते हैं। ऐसा होने में इन पत्थरों को असंख्य वर्षों तक शीत घाम सहना पड़ा। यहीं इनका तप है। इस तप के कारण ये पत्थर शिव एवं विष्णु के रूप में पूजे जाते हैं। जो जातक अपने को तपश्चर्या में लगाता है और तप कर जिस स्वरूप को पाकर शान्त होता है, वह रूप ही शिव विष्णु है। जो जातक इस रूप को प्राप्त कर चुका है, उसे मेरा प्रणाम ।
यह पृथ्वी शिवलिंग है। यही पृथ्वी विष्णु पाद भी है। मेघ जलधारा से इसे धोता. साँचता, स्नान कराता है। जो जातक मेघ बन कर नामोच्चार के शब्द प्रवाह से अपनी आत्मा को निमज्जित करता है, वह शैव वैष्णव दोनों है, भक्त है, ज्ञानी है, महान् है उसके लिये सब दिन सावन मास है। उसे मैं बारम्बार नमन करता हूँ।
शिव के तीन नेत्र हैं। विष्णु के तीन पाद हैं। इन्हीं तीन नेत्रों / पादों की पूजा सर्वत्र हो रही है। प्रातः एवं सायंकालीन सूर्यमण्डल शिव के दक्षिण एवं वाम नेत्र हैं तथा विष्णु के दक्षिण एवं बाम पाद (चरण) हैं। मध्यान्ह काल का देदीप्यमान प्रतप्त सूर्य शिव का मध्य (ललाटस्थ) नेत्र है तथा यही विष्णु का मध्य पाद (चरण) है। जो इस तथ्य से परिचित नहीं है, वह मूर्खेश्वर है। ऐसे मूर्खराज को मेरा नमस्कार ।
शास्त्रों में तीन बार आचमन करने का प्रावधान है। प्रत्येक पूजा साधना से पूर्व आचमन करना अनिवार्य है। आचमन करने से शरीर में विद्यमान त्रिनेत्र शिव का मस्तकाभिषेक होता है तथा अथवा त्रिपाद विष्णु का पाद प्रक्षालन होता है। प्रत्येक व्यक्ति में अग्निकाय शिव विष्णु है। यह जल आचमन से शान्त तुष्ट होता है। अतः जातक स्वयं शिव विष्णु रूप है। शिव विष्णु को अर्पित किये जाने वाले पदार्थ ऑवरूप हैं, अरोग्यकारक एवं दीर्घायुकारक हैं। इन का सेवन करना चाहिये। बेलपत्र- तुलसीपत्र, बेर (सूखे फल-रसीले पाल तथा गंगा (प्रवहमाण) जल रोग प्रतिरोधक एवं स्वास्थ्यप्रद हैं। इनका सेवन शिव विष्णु पूजा है। यह न हो सके तो शिव विष्णु नामौषधि सतत सुलभ है। नित्य इसका सेवन क्यों न किया जाय ?
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