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ज्योतिष का धर्म से क्या संबंध है ?
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
Mystic Power – “ज्योतिषम् नेत्रमुच्यते” इसका अर्थ होता है कि वेद को समझने के लिए, सृष्टि को समझने के लिए ‘ज्योतिष शास्त्र’ को जानना आवश्यक है। ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है, लेकिन सवाल यह उठता है कि कौन-सा ज्योतिष? वेदों में जिस ज्योतिष विज्ञान की चर्चा की गई वह ज्योतिष या आजकल जो प्रचलित है वह ज्योतिष?
कहते हैं कि ऋग्वेद में ज्योतिष से संबंधित 30 श्लोक हैं, यजुर्वेद में 44 तथा अथर्ववेद में 162 श्लोक हैं। वेदों के उक्त श्लोकों पर आधारित आज का ज्योतिष पूर्णत: बदलकर भटक गया है। भविष्य बताने वाली विद्या को फलित ज्योतिष कहा जाता है जिसका वेदों से कोई संबंध नहीं है। ज्योतिष को 6 वेदांगों में शामिल किया गया है। ये 6 वेदांग हैं- 1. शिक्षा, 2. कल्प, 3. व्याकरण, 4. निरुक्त, 5. छंद और 6. ज्योतिष।
फलित ज्योतिष : फलित ज्योतिष के नाम से आजकल प्रचलित हैं, जैसे हस्त-रेखा विज्ञान, भविष्य-फल, राशिफल, जन्म-कुंडली। इससे वर्तमान के ज्योतिषशास्त्री लोगों का भविष्य बताते हैं या उनकी जिंदगी में आए दुखों का समाधान करते हैं और उनमें से कुछ इसी बात का फायदा उठाते हैं। वेदों में आने वाले बुद्ध, बृहस्पति, शनि आदि शब्द ग्रहों के परिचायक नहीं।
वेदों में ज्योतिष तो है, परंतु वह फलित ज्योतिष कदापि नहीं है। फलित ज्योतिष में यह माना जाता है कि या तो जीवों को कर्म करने की स्वतंत्रता है ही नहीं, अगर है भी तो वह ग्रह-नक्षत्रों के प्रभावों से कम है अर्थात आपका भाग्य-निर्माता शनि ग्रह या मंगल ग्रह है। यह धारणा धर्म विरुद्ध है। रावण ने जिस शनि को जेल में डाल रखा था, वह कोई ग्रह नहीं था। जिस राहु ने हनुमानजी का रास्ता रोका था, वह भी कोई ग्रह नहीं था। वे सभी इस धरती पर निवास करने वाले देव और दानव थे।
हिन्दू धर्म कर्मप्रधान धर्म है, भाग्य प्रधान नहीं। वेद, उपनिषद और गीता कर्म की शिक्षा देते हैं। सूर्य को इस जगत की आत्मा कहा गया है। एक समय था जबकि ध्यान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्योतिष का भी सहारा लिया जाता था लेकिन अब नहीं। प्राचीनकाल में ज्योतिष विद्या का उपयोग उचित जगह पर करने के लिए घर, आश्रम, मंदिर, मठ या गुरुकुल बनाने के लिए ज्योतिष विद्या की सहायता ली जाती थी।
वैदिक ज्ञान के बल पर भारत में एक से बढ़कर एक खगोलशास्त्री या ज्योतिष हुए हुए हैं। इनमें गर्ग, आर्यभट्ट, भृगु, बृहस्पति, कश्यप, पाराशर, वराह मिहिर, पित्रायुस, बैद्यनाथ आदि प्रमुख हैं। उस काल में खगोलशास्त्र ज्योतिष विद्या का ही एक अंग हुआ करता था। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ज्योतिष के 18 महर्षि प्रवर्तक या संस्थापक हुए हैं। कश्यप के मतानुसार इनके नाम क्रमश: सूर्य, पितामह, व्यास, वशिष्ट, अत्रि, पाराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमेश, पौलिश, च्यवन, यवन, भृगु एवं शौनक हैं।
गीता में लिखा गया है कि ये संसार उल्टा पेड़ है। इसकी जड़ें ऊपर और शाखाएं नीचे हैं। यदि कुछ मांगना और प्रार्थना करना है तो ऊपर करना होगी, नीचे कुछ भी नहीं मिलेगा। आदमी का मस्तिष्क उसकी जड़ें हैं। उसी तरह यह ज्योतिष विज्ञान भी वृहत्तर है जिसे समझना और समझाना मुश्किल है। यहां हम ज्योतिष विज्ञान का विरोध नहीं कर रहे हैं।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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