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रुद्राक्ष जपमाला के लक्षण और महात्म्य
बाबा औढरनाथ तपस्वी-
Mystic Power – ईश्वर उवाच
लक्षणं जपमालायः शृणुवक्ष्यामि षण्मुख,
रुद्राक्षस्य मुखं ब्रह्मा बिदू रुद्र इतीरितः ।
ईश्वर वोले- हे पण्मुख, जपमाला का लक्षण सुनो, में कहता हूँ – रुद्राक्ष का मुख ब्रह्मा और बिन्दु रुद्र है ।
विष्णुः पुच्छं भवेच्चैव भोगमोक्षफलप्रदम, पंचविशतिभिश्चाक्षे पंचवक्त्रः संकटकः ।
रक्तवर्णेः सितेमिश्रः कृतरन्ध्रविदमितः, अज्ञसूत्र प्रर्कतव्य गोपुच्छवलयाकृति ।
विष्णु पुच्छ है, जो भोग और मोक्ष को देने वाला है। पच्चीस रुद्राक्ष की पंचमुखी कंटक माला जो लाल श्वेत वर्णो से मिश्रित रन्ध्र द्वारा ग्रथित हो तो गोपुच्छ के आकार के समान बढ़ाके माला निर्मित करनी चाहिये ।
वक्त्रं वक्त्रेण संयोज्य पुच्छेन योजयेत्, मेरुमूर्ध्वमुखं कुर्यात्दृध्वं नागपाशकम् एवं संग्रथितां मालां मन्त्रसिद्धि प्रदायिनीम् ।
मुख से मुख और पुच्छ से पुच्छ संयुक्त करे, मेरू को ऊठर्वमुख करे, उसके ऊपर नागपाश धारण करे। इस प्रकार से ग्रथित की गई गोपुच्छ माला सब सिद्धि देने वाली होती है ।
प्रक्षास्य गंधतोयेन पंचगव्येन चोपरि, ततः शिवभसाक्षात्य ततो मन्त्रगणान्नय सेत।
स्पृष्टवा शिवास्त्रमन्त्रेण कवचेनावगुंठयेत, मूलमन्त्रं न्यसेत्वश्वा पूर्ववत्कारयेत्तथा ।
फिर शुद्ध जल से प्रक्षालन करके मन्त्र समूहों का न्यास करे तथा शिवास्त्र मंत्र से जो षडंग में है स्पर्श कर कवच मन्त्र हुम् से संयुक्त करे। फिर मूल मन्त्र से न्यास करे, ये स्वयं पूर्वोक्त प्रकार से करे या गुरु से कराये ।
सद्योजातादिभिः प्रोक्ष्य पाववष्टत्तर शतम्, मूलमन्त्र समुच्चार्य शुद्धभूमौ निधाय च ।
तस्योपरि न्यसेत्सांवं शिवं परम्कारणम्, प्रतिष्ठता भवेन्माला सर्वकामफल प्रदा ।
सद्योजातादि मन्त्रों के शोधित एक सौ आठ मूलमन्त्र को उच्चारण करके शुद्ध भूमि में रख, उनके ऊपर साम्बशिव शंकर का न्यास करें। इस प्रकार से प्रतिष्ठित माला सब कामनाओं और फल को देने वाली होती है।
यस्य देवस्य यो मन्त्रस्तां तेनेवाभिपूजयेत्. मूधिन कठेऽथवा कर्णेन्यसेद्वा जपमालिकाम् ।
रुद्राक्ष मालाया चंच जप्तव्यं नियतात्मना, कठे मधिन हृदि प्रांते कण बाहुयुगेऽथवा, रुद्राक्ष धारणं नित्यं भक्त्या परमयायुतः ।
जिस देवता का जो मन्त्र है उसको उसी से पूजन करे। (अर्थात् जितने मुखवाला रुद्राक्ष है उसी के स्वरूप वाले देवता के मन्त्र से पूजन करे) मूर्दा, कष्ठ या हाथ में जपमाला का न्यास करे अर्थात् जप के अन्त में इन स्थानों पर धारण करते । नित्यात्मा होकर रुद्राक्ष माला से जप करना चाहिए। कुष्ठ, सिर, हृदय, कान व बाहु इनमें परमभक्ति से रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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