सांख्य दर्शन के अनुसार भौतिक विज्ञान का वेदानुकूल स्पष्टिकरण
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)-
Mystic Power – संख्य सृष्टि रचना की व्याख्या एवं प्रकृति और पुरूष की पृथक-पृथक व्याख्या करता है। सांख्य सर्वाधिक पौराणिक दर्शन माना जाता है। भारतीय समाज पर इसका इतना व्यापक प्रभाव हो चुका था कि महाभारत (श्रीमद्भगवद्गीता),विभिन्न पुराणों, उपनिषदों, चरक संहिता और मनु संहिता में सांख्य के विशिष्ट उल्लेख मिलते है। इसके पारंपरिक जन्मदाता कपिल मुनि थे। सांख्य दर्शन में छह अध्याय और ४५१ सूत्र है।
प्रकृति से लेकर स्थुल-भूत पर्यन्त सारे तत्वों की संख्या की गणना किये जाने से इसे सांख्य दर्शन कहते है। सांख्य सांख्या द्योतक है। इस शास्त्र का नाम सांख्य दर्शन इसलिए पड़ा कि इसमें २५ तत्व या सत्य-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। सांख्य दर्शन की मान्यता है कि संसार की हर वास्तविक वस्तु का उद्गम पुरूष और प्रकृति से हुआ है। पुरूष में स्वयं आत्मा का भाव है जबकि प्रकृति पदार्थ और सृजनात्मक शक्ति की जननी है। विश्व की आत्मायें संख्यातीत है जिसमें चेतना तो है पर गुणों का अभाव है। वही प्रकृति मात्र तीन गुणो के समन्वय से बनी है। इस त्रिगुण सिद्धान्त के अनुसार सत्व, राजस्व तथा तमस की उत्पत्ति होती है।
प्रकृति की अविकसित अवस्था में यह गुण निष्क्रिय होते है पर परमात्मा के तेज सृष्टि के उदय की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही प्रकृति के तीन गुणो के बीच का समेकित संतुलन टूट जाता है। सांख्य के अनुसार २४ मूल तत्व होते है जिसमें प्रकृति और पुरूष पच्चीसवां है। प्रकृति का स्वभाव अन्तर्वर्ती और पुरूष का अर्थ व्यक्ति-आत्मा है। विश्व की आत्माएं संख्यातीत है। ये सभी आत्मायें समान है और विकास की तटस्थ दर्शिकाएं हैं। आत्माए¡ किसी न किसी रूप में प्रकृति से संबंधित हो जाती है और उनकी मुक्ति इसी में होती है कि प्रकृति से अपने विभेद का अनुभव करे। जब आत्माओं और गुणों के बीच की भिन्नता का गहरा ज्ञान हो जाये तो इनसे मुक्ति मिलती है और मोक्ष संभव होता है।
प्रकृति मूल रूप में सत्व,रजस्,रजस् तमस की साम्यावस्था को कहते है। तीनो आवेश परस्पर एक दूसरे को नि:शेष (neutralize) कर रहे होते हैं। जैसे त्रिकंटी की तीन टांगे एक दूसरे को नि:शेष कर रही होती है।
परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) की साम्यावस्था को भंग करता है और असाम्यावस्था आरंभ होती है।रचना-कार्य में यह प्रथम परिवर्तन है।
इस अवस्था को महत् कहते है। यह प्रकृति का प्रथम परिणाम है। मन और बुध्दि इसी महत् से बनते हैं। इसमें परमाणु की तीन शक्तिया बर्हिमुख होने से आस-पास के परमाणुओ को आकर्षित करने लगती है। अब परमाणु के समूह बनने लगते है। तीन प्रकार के समूह देखे जाते है। एक वे है जिनसे रजस् गुण शेष रह जाता है। यह तेजस अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में इलेक्टोन कहते है।
दूसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें सत्व गुण प्रधान होता है वह वैकारिक अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक प्रोटोन कहते है।
तीसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें तमस् गुण प्रधान होता है इसे वर्तमान विज्ञान की भाषा में न्यूटोन कहते है। यह भूतादि अहंकार है।
इन अहंकारों को वैदिक भाषा में आप: कहा जाता है। ये(अहंकार) प्रकृति का दूसरा परिणाम है।
तदनन्तर इन अहंकारों से पाँच तन्मात्राएँ (रूप, रस) रस,गंध, स्पर्श और शब्द) पाँच महाभूत बनते है अर्थात् तीनों अहंकार जब एक समूह में आते है तो वे परिमण्डल कहाते है।
और भूतादि अहंकार एक स्थान पर (न्यूयादि संख्या में) एकत्रित हो जाते है तो भारी परमाणु-समूह बीच में हो जाते है और हल्के उनके चारो ओर घूमने लगते है। इसे वर्तमान विज्ञान `ऐटम´ कहता है। दार्शनिक भाषा में इन्हें परिमण्डल कहते हैं। परिमण्डलों के समूह पाँच प्रकार के हैं। इनको महाभूत कहते हैं।
१ पार्थिव
२ जलीय
३ वायवीय
४ आग्नेय
५ आकाशीय
संख्या का प्रथम सूत्र है।
अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:।। १ ।।
अर्थात् अब हम तीनों प्रकार के दु:खों-आधिभौतिक (शारीरिक), आधिदैविक एवं आध्यात्मिक से स्थायी एवं निर्मूल रूप से छुटकारा पाने के लिए सर्वोकृष्ट प्रयत्न का इस ग्रन्थ में वर्णन कर रहे हैं।
सांख्य का उद्देश्य तीनो प्रकार के दु:खों की निवृत्ति करना है। तीन दु:ख है।
आधिभैतिक- यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि।
आधिदैविक- यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आंधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप ।
आध्यात्मिक- यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं जैसे कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ-कोई अपनी संतान अपना माता-पिता के बिछुड़ने पर दु:खी होता है अथवा कोई अपने समाज की अवस्था को देखकर दु:खी होता है।
सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति: प्रकृतेर्महान,
महतोSहंकारोSहंकारात् पंचतन्मात्राण्युभयमिनिन्द्रियं
तन्मात्रेभ्य: स्थूल भूतानि पुरूष इति पंचविंशतिर्गण:।।
अर्थात् सत्व, रजस और तमस की साम्यावस्था को प्रकृतिकहते है। साम्यावस्था भंग होने पर बनते हैं: महत् तीन अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, १० इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत। पच्चीसवां गण है पुरूष।
मन तरंग की frequency और बुद्धि तरंग का amplitude है। जैकि तरंग का गुण कहलाती है ।अब किसी भी उदासीन परमाणु को आवेशित करने के लिए वाह्य उर्जा की आवश्यखता है जो कि यह काम परमात्मा का है।
उपरोक्त से पृथ्वी और सृष्टि में अंतर समझ आता है।
मन का कार्य समझें
कितनी ही बार हम बोलते है हमारा मन नही लगता यह एक व्यवहारिक बात है अब हम सब विश्लेषण करें
जो हमारें विचार है वो तरंगों के द्वारा और शब्द के द्वारा निकलते है लेकिन जो शब्द निकलते है उसको हम नियंत्रण कर सकते है और अपने आप को बचा सकते है अब विचार कोई उत्पन्न हुआ और मन लग गया तो विज्ञान यह कहता है कि जिस तरंग कि जितनी ज्यादा आवृत्ति होगी उसकी ऊर्जा उतनी ही ज्यादा होती है मतलब ये Energy=h*frequency
अब मन लगने का अभिप्राय यह हुआ कि मन frequency modulator कि तरह काम करता है जितना मन लगेगा विचारों कि तरंगों कि आवृत्ति बढती चली जायेगी और उस तरंग की ऊर्जा भी अनुक्रमानुपाती होने के कारण बढती रहेगी। तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि मन जितना अध्यारैपित होगा उसकी ऊर्जा उतनी ही तीव्रता से बढेगी उस तरंग का मार्ग मे विभाजन नहीं हो पायेगा scattering नही होगी और वो तरंग उस source तक पहुंच जायेगी जिसका हम विचार कर रहें है । uplink frequency हमेशा ज्यादा होती है उसके बाद वो तरंग उस source से परावर्तन नियम के अनुसार source के गुणों को लेकर चलेगी और as a receiver downlink frequency के माध्यम से जो विचार रहा है उसे समाधान मिलेगा
मन को इसलिए ही स्थिर रखना चाहिए
जो मन् है यह मह् तत्व से उत्पन्न है जिसका संबन्द्ध प्रकृति से है।
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