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गायत्री में प्रज्ञा तत्त्व
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध सम्पादक )-
Mystic Power– प्रज्ञा तत्त्व का प्रधान कार्य मनुष्य में सत्-असत् निरुपिणी बुद्धि का विलास परिष्कार करना है। इसके मिलने का प्रथम चमत्कार यह होता है कि मनुष्य वासना, तृष्णा की प्रवृत्तियों से ऊँचा उठकर मनुष्योचित कर्म, धर्म को समझने और तदनुसार उत्कृष्टवादी रीतिनीति अपनाने के लिए अन्तः प्रेरणा प्राप्त करता है और साहसपूर्वक आदर्शवादी जीवन जीने की दिशा में चल ही पड़ता है।
ऐसे व्यक्ति स्वभावतः दुष्कर्मों से विरत हो जाते हैं और उनके क्रियाकलाप में से फिर अवांछनीयताएँ एक प्रकार से चली ही जाती हैं। इस परिवर्तन को धर्म स्थापना और अधर्म निवारण के रुप में देखा जा सकता है।
य एतां वेद गायत्रीं पुण्यां सर्व गुणान्विताम्।तत्वेन भरत श्रेष्ठ सि लोके प्रणश्यति। (महाभारत भी.प.१ ।४ ।१६)
हे राजन्! जो इस सर्वगुण सम्पन्न परम पुनीत गायत्री के तत्त्व ज्ञान को समझकर उसकी उपासना करता है, उसका संसार में कभी पतन नहीं होता। मस्तिष्क को, सिर को गायत्री का केन्द्र संस्थान बताया गया है। इस प्रतिपादन का तात्पर्य गायत्री को दूसरे शब्दों में विवेक युक्त बुद्धिमत्ता ही ठहराया गया है। सिर उसी का तो स्थान है।
कहा भी है-अस्याश्च बुद्धिर्महत्त्वं स्वेतर सकल कार्य व्यापकत्वाद् महैश्वर्याच्च मन्तव्यम्। (सांख्य दर्शन २ ।१३) विज्ञानचक्षु मापक यह बुद्धि ही संसार के समस्त कार्यों में प्रकाशित है। इसी की बड़ी सामर्थ्य है।…. गायत्रं हि शिरः। शिरो गायत्र्यः।अर्कवतीषु गायत्रीषु शिरो भवति। -ताण्डव ब्राह्मण सूर्य के समान तेजस्वी गायत्री का स्थान सिर है।बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि। (गीता ७ ।१०)-बुद्धिमानों में बुद्धि मैं ही हूँ।अहं बुद्धिरहं श्रीश्च धृतिः कीर्ति स्मृतिस्तथा।श्रद्धा मेधा दया लज्जा क्षुधा तृष्णा तथा क्षमा।। -देवी भागवत हे राजन्। तुम कहीं पर लोगों को रोगी, दीन दरिद्र, भूखे, प्यासे, शठ, आर्त, मूर्ख, पीड़ित, पराधीन, क्षुद्र, विकल विह्वल, अतृप्त, असन्तुष्ट, इन्द्रियों के दास, अशक्त और मनोविकारों से पीड़ित देखो, तो समझना इन्होंने शक्ति का महत्त्व नहीं समझा और उसकी उपेक्षा अवहेलना की है।….
इस मन्त्र में ‘धियः’ अर्थात् बुद्धि का प्रयोग बहुवचन में किया है। ‘‘अनेक प्रकार की बुद्धि’’ ऐसा अर्थ उससे निकलता है। हिन्दू संस्कृति केवल आध्यात्मिकता का विचार करती है, ऐसा मानकर व्यक्ति आधिभौतिक की उपेक्षा करना अपना आदर्श बतलाते हैं। परन्तु ‘‘धियः’’ शब्द के प्रयोग से उसका खण्डन हो जाता है। केवल आध्यात्मिक ही नहीं, किन्तु भौतिक, आर्थिक, राजकीय सब प्रकार की बुद्धि बढ़ जाय, यह गायत्री मन्त्र की प्रार्थना है।
भूत विद्या, मनुष्य विद्या वाकोवाक्य, राशि, क्षात्र विद्या, नक्षत्र विद्या, जन विद्या इत्यादि नाम उपनिषदों में पाये जाते हैं। अर्थात् अनेक प्रकार की बुद्धि। यह अर्थ ‘धियः’ से लिया जाय तो उसमें अनौचित्य का कुछ भी संदेह नहीं होना चाहिए।….. ….आदमी जिस-जिस चीज का ध्यान करता है उसी प्रकार की उसकी वृत्ति बन जाती है, यह प्राकृतिक सिद्धान्त है। ‘सूर्य भगवान् के भ स्वर तेज का हम ध्यान करते हैं-ऐसा गायत्री मन्त्र के प्रथम चरण का अर्थ है। ऐसे तेजस्वी पदार्थ का ध्यान करने वाले स्वयं तेजस्वी बनेंगे यह मानस शास्त्र अथवा मनोविज्ञान द्वारा सत्य सिद्ध हो चुका है। …. … प्रब्रवाम शरदः शतम्। अदीन स्याम शरदः शतम्। ‘‘सौ वर्ष तक अधिकारपूर्ण वाणी से बोलते रहेंगे। सौ वर्ष तक हम दैन्य रहित जीवन बितायेंगे।’’ इस प्रकार की आकाँक्षायें वेद में (वाजसनेय संहिता ३६-२४) भी स्पष्ट हैं। सूर्य तेजस्विता का प्रतीक है। वही गायत्री मन्त्र का देवता है। … …इस मन्त्र में ‘‘धीमहि’’ (हम ध्यान करते हैं) और ‘‘नः’’ (हमारी) ये बहुवचन युक्त प्रयोग इस मन्त्र की सामुदायिकता पर प्रकाश डालते हैं, वास्तव में देखा जाय तो गायत्री मन्त्र सामुदायिक प्रार्थना मन्त्र है। …
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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