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कौलमत-
डॉ. रूपेश कुमार चौहान
Mystic Power- कौलमत शक्ति की पूजा से सम्बन्धित है। कौलमत में ही साधक साधना के चरम उत्कर्ष को प्राप्त करता है। कौलानुयायियों के अनुसार. तपस्या भन्त्रसाधना आदि से चित्त शुद्धि होने पर ही कौलज्ञान धारण करने की मनुष्य में योग्यता आती है। साथ ही उसमें सिद्ध गुरु का होना अत्यन्त आवश्यक है।
पुराकृततपोदानं यज्ञतीर्थजपव्रतैः ।
‘शुद्धचित्तस्य शान्तस्य धर्मिर्णो गुरुसेविनः ।।
अति गुप्तस्य भक्तस्य कौलज्ञानं प्रकाशते ।
कौलमत तन्त्र साहित्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण साधनातन्त्र है। विज्ञान भैरव की टीका के अनुसार वेदादि से परम शैवतन्त्र है। शैव से वाम श्रेष्ठ है। वाम से दक्षिण श्रेष्ठ, दक्षिण से श्रेष्ठतर कौल।
साधन श्रेष्ठ और कौल साधन से श्रेष्ठ कोई भी नहीं है, किन्तु कुछ ग्रन्थों में इसकी निन्दा की गई है। जैसे कि ‘शुभागम पञ्चक’ के अन्तर्गत सनत्कुमार संहिता में कौलक क्षपणक दिगम्बर और वामक आदि के सम्प्रदाय समान माये गये हैं।
विशाल भारत में किसी समय तन्त्रों का व्यापक विस्तार हुआ था। कादि मादि मत 56 प्रदेशों में प्रचलित थे। भारतवर्ष के बाहर भी इनका प्रचार हुआ। देवराज नाम से शिव की उपासना और विभिन्न प्रकार की शक्तियों की उपासना भारत से बाहर जाकर प्रचलित हुई। इन शक्ति रूप देवियों के नाम हैं- भगवती, महादेवी, उमा, पार्वती, महाकाली, महिषमर्दिनी, पाशुपत भैरव आदि आदि चीनी भाषा में लिखित प्राचीन इतिहासों से पूर्ण विवरण जाना जा सकता है।
भले ही कौल साधना की लोगों ने आलोचना की हो; परन्तु आजकल शक्ति के उपासकों की अधिक संख्या है; क्योंकि शक्ति (प्रकृति) इसे (Nature) कहा जाता है, वह साक्षात् है। उसके सौम्य एवं उग्ररूप से समस्त जनसमुदाय परिचित है। इसलिए तो सर्वत्र प्रकृति के सौम्यवातावरण में शक्तिपीठों की स्थापना की गई है। सर्वत्र विद्यापीठ तन्त्रपीठ और मन्त्रपीठ स्थापित हैं। कामकोटि, जालंधर, पूर्णागिरि तथा उड्डीयान के विषय में लोग जानते हैं। कामद्दद के साथ मत्स्येन्द्रनाथ का सम्बन्ध था। जालन्धर पीठ के साथ अभिनवगुप्त के गुरु शम्भुनाथ का सम्बन्ध था, जो आजकल ज्योतिलिङ्ग का स्थान माना जाता है। विभिन्न तान्त्रिक विद्याओं की साधना इन पीठों में होती थी। बाद में बौद्धों द्वारा नालंदा, विक्रमशिला, उदन्तपुरी आदि में इन प्राचीन पीठों का अनुवर्तन हुआ। तक्षशिला का तो नाम सर्वत्र प्रसिद्ध ही है। सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध पीठ है, जिनका विस्तृत वर्णन तन्त्र साहित्य में उपलब्ध होता है। पीठ का तात्पर्य है- जहाँ पर शक्ति जागृत है। जहाँ महत्तत्त्व (बुद्धि) अहंकार (अहंतत्व) मन चित्त आदि का विषय अलिङ्ग परमतत्त्वज्योति स्वरूप है। इस प्रकार ये जो शक्ति के वाह्य अंग कहे गये हैं। इन्हीं आडम्बरों पर यह संस्कृति टिकी हुई नहीं है। इसका महत्व तो आत्मदर्शन में है। आगमशास्त्र में यह स्पष्ट निर्देश है कि आत्मा का स्वरूप नित्य शुद्ध है। उस स्वरूप को देखना होगा तथा उस नित्य शुद्ध स्वरूप का देखना ही आत्मतत्त्व को जागृत करना है। इसी आधार पर तन्त्र संस्कृति यह स्पष्ट घोषणा करती है कि मनुष्य को जगना चाहिए, सोते रहने से काम नहीं चलने वाला है।
।।प्रबुद्धः सर्वदा तिष्ठेत्।।
मनुष्य के जीवन का लक्ष्य पूर्णता को प्राप्त करना है। उसके लिये सबसे आवश्यक है, वह अनादि निद्रा से जागे और उसके बाद आत्मा के क्रमिक ऊर्ध्वमार्ग से परमशिव या परा शक्ति या परा सत्ता को साक्षात्कार करे ऐसा रुद्रयामल में कहा गया है।
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