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आगम में शक्ति का एक स्वरुप वर्णमालिनी
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)-
mysticpower- तंत्र तथा आगम में शक्ति का एक स्वरुप वर्णमालिनी भी है। यह वर्णमालिनी है हमारे वर्णमाला के ‘अ’ से प्रारम्भ हो, ‘ह’ तक के सारे बावन अक्षरों का समूह ! यद्यपि व्याख्या की आवश्यकता तो नहीं है, तब भी अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, ऋ, ॠ ऌ, तथा ॡ ये सोलह स्वर जिनमें अनुस्वार तथा अनुनासिक (अं तथा अँ) दो भेद से कुल सत्रह स्वर, कवर्ग के क् ख् ग् घ् ङ्, चवर्ग के च् छ् ज् झ् ञ्, टवर्ग के ट् ठ् ड् ढ् ण् (तथा द्विगुण व्यञ्जन ड् एवं ढ् भी), तवर्ग के त् थ् द् ध् न्, पवर्ग के प् फ् ब् भ् म्, चार अन्तःस्थ व्यञ्जन य्, र्, ल्, व्, चार ऊष्म व्यञ्जन श् ष् स् ह् ये कुल बावन वर्ण हमारी वाचा की बावनी रचते हैं। व्यञ्जन मात्र वर्णों के व्यञ्जक हैं, वर्ण नहीं। ये वर्ण तब बनते हैं जब कोई स्वर इनसे संयुक्त होता है इसी कारण ये अपने मूल रूप में अर्धाक्षर हैं तथा हल् चिह्न (् ) के साथ व्यक्त होते हैं। चार संयुक्त व्यञ्जन क्ष, त्र, ज्ञ तथा श्र संयुक्ताक्षर होने के कारण वर्णमाला की इस तंत्र-बावनी से पृथक हैं। ध्यान रहे कि यह व्याख्या आधुनिक हिन्दी में प्रयुक्त देवनागरी लिपि की वर्ण-संख्या से समान होते हुए भी अपने दार्शनिक अभिज्ञान में भिन्न है।
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तंत्र-शास्त्र इन बावन वर्णों को पूर्णम् की संज्ञा देता है। ये पूर्णम् अपने अ-क्षर रूप में निराकार शक्ति के प्रतीक हैं किन्तु जब ये शब्द रूप में ढलते हैं तो सगुण-साकार हो जाते हैं। यह ‘अ’ से ‘ह’ तक की बावनी, यह वर्णमाला, यह निराकार भगवती, यह ‘अ’ से ‘ह’ तक का ‘अहं’, हमारे भाषा-शक्ति का बीज है और यह बावन की संख्या भी उसी षोडशी, उसी त्रिपुरसुन्दरी का यंत्र-चक्र है जो अपने मूल में सपाद-त्रयषोडश अर्थात सवा तीन सोरही है। तो यह षोडशी, यह हमारे बोल-चाल की सोरही, वेदों में तो है ही, परन्तु यह तंत्र तथा आगम में भी भगवती शक्ति बन कर समाई है तथा हमारी नागरी लिपि में भगवती वर्णमालिनी के रूप में अवस्थित हो कर हमारी भाषा का भी आलबाल रचती है। आलबाल का अर्थ है थाला, किसी पौधे के चतुर्दिक बनाई जाने वाली वह मेंड़ युक्त स्थालिका या थाली जैसी संरचना जो पौधे को सींचने पर जल को बह जाने से रोकती है।
शास्त्रों तथा अन्यान्य ऐतिहासिक कथानकों में भी, प्राचीन भारत की जिन मुद्राओं का वर्णन प्राप्त होता है जैसे कपर्दिका या वराटका, काकिणी, पण, द्रम्म तथा निष्क आदि वे सभी इसी षोडश पद्धति में मानकीकृत थीं। दैवज्ञकुल-मार्तण्ड श्री भास्कराचार्य ने अपने लीलावती नामक ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में ही मंगलाचरण के तत्काल पश्चात इन मुद्राओं का जो विवरण दिया है उससे स्पष्ट है कि एक सपादषोडशी अर्थात बीस कौड़ियों (वराटका या कपर्दिका – कौड़ी नामक समुद्री जीव जो कभी मुद्रा रूप में व्यवहृत होता था) का मुद्रामान एक काकिणी तुल्य, चार काकिणी एक पण तुल्य, सोलह पण एक द्रम्म तुल्य तथा सोलह द्रम्म एक निष्क ‘तुल्य होता था –
‘वराटकानां दशकद्वयं यत् सा काकिणी ताश्च पणश्चतस्रः।
ते षोडश द्रम्म इहावगम्यो द्रम्मैस्तथा षोडशभिश्च निष्कः ॥”
(लीलावती, श्लोक २)
मुझ मूर्ख को यह कहने का साहस नहीं है और अधिकार तो कदापि नहीं है कि गणित के चक्कर में पड़े आचार्य ललित में चूक गये। आचार्य भास्कर थे एक खाँटी आर्य और ऊपर से गणितज्ञ! उनका काव्य भी धनुष की प्रत्यंचा सा खिंचा जैसा था जो चार और सोलह की लचीली धनुषाकृति मापनियों के बीच ‘दशकद्वयं’ से एक सीधे बाण जैसा ही अपना अभिप्राय-लक्ष्य वेध कर संतुष्ट हो रहा। कोई रसिक होता तो लिखता :
“कपर्दिकानां सपादषोडश यत् सा काकिणी ताश्च पणश्चतस्रः।
ते षोडश द्रम्म इहावगम्यो द्रम्मैस्तथा षोडशभिश्च निष्कः ॥”
तब यह सूत्र उस व्यंग्योक्ति से भी समन्वय स्थापित कर लेता जो मुझ पर सटीक बैठती है – ‘गृहे कपर्दिका नास्ति, द्वारे नृत्यति नर्तकी !’ जिसको भोजपुरिया माटी ने अपने अनुसार ढाल लिया है – ‘घर में नाहीं कौड़ी, दुआरे नाचे छौंड़ी!’। कपर्दिका या कौड़ी ठहरी सबसे छोटी मुद्रा, सकें ! जिसमें मुझ जैसे सोलह क्रय किये जा सके।
कालान्तर में, जब मुद्रा स्वर्ण-निष्क की न रह कर रजत या रौप्य की होने लगी तब उसे रौप्य – मुद्रा कहा जाने लगा जो लोक भाषा में रुपया हो गया किन्तु षोडश-पद्धति जस की तस रही भले मुद्राओं के नाम परिवर्तित हो गये और तब एक रौप्य में १६ आना, एक आने में ४ पैसे, एक पैसे में ४ छदाम, १ छदाम में २ दमड़ी, १ दमड़ी में २० कौड़ी, १ कौड़ी में २० फौड़ी तथा १ फौड़ी में २० रचौड़ी होने लगी और ये सब उसी षोडश पद्धति में मानकीकृत थीं।
भार मापन में भी मन, पसेरी, सेर, पाव, छटांक, तोला, माशा, रत्ती, चावल तथा खसखस आदि इसी षोडश-पद्धति आधारित मात्रक रहे। १ मन में ८ पसेरी या ४० सेर, १ सेर में चार पाव, १ पाव में ४ छटांक, एक छटांक में पञ्च तोल या पांच तोला या ६० माशा (एक तोला = १२ माशा), १ माशा में ८ रत्ती, १ रत्ती में ८ चावल और १ चावल में ८ खसखस होते थे। तात्पर्य यह, कि भारतवर्ष दाशमिक संख्या पद्धति के साथ षोडश संख्या पद्धति को साथ ले कर चलता रहा है और यह षोडश संख्या पद्धति हमारे शास्त्रों से ले कर हमारे दैनिक व्यवहार, कथा-कहानियों, तंत्र- आगम, दर्शन तथा भाषा तक में अपना महत्वपूर्ण हस्तक्षेप रखती थी।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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मालिनी और मातृका दो भिन्न क्रम स्वरसोदित परा वाक् अभ्युदय के। इन आचार्य को और आगम अनुशीलन करना चाहिए। आगमोक्त दीक्षा प्राप्ति पूर्वक लब्ध साधना ही व्यक्ति को क्षुब्ध मालिनी वर्ण क्रम का ज्ञान करा सकता है। नारायण