आत्म-विद्या की रूपरेखा
श्री स्वामी शंकरानन्द-
ॐ का अर्थ है परात्पर तत्त्व। उसे ब्रह्म, परमात्मा या परम सत् कह सकते हैं। वह सच्चिदानन्द स्वरूप है। वही हम सबका एक वास्तविक रूप है। जो व्यक्ति अपने इस स्वरूप को जानता है वह पूर्ण है। उसे कुछ भी करना या पाना शेष नहीं है। अतः हम सबके जीवन का अन्तिम लक्ष्य अपने इस स्वरूप को जानना और उसमें अखण्ड भाव से स्थित रहना है।
अज्ञान की अवस्था में हम सब अपने को शरीर समझते हैं। यह हमारा अविचार है। यह शरीर आत्मा नहीं हो सकता। विचार करने से यह सिद्ध हो जाता है। इसके लक्षणों पर ध्यान दें। हम अपने जिस शरीर को देख रहे हैं, वह स्थूल शरीर कहलाता है। यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश नामक पंचमहाभूतों से बना है। भौतिक पदार्थ जड़ होने के कारण उनसे बना शरीर भी जड़ है। किन्तु हम अपने को चेतन अनुभव करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि हम कोई चेतन सत्ता हैं, यह जड़ शरीर हम नहीं हैं।
स्थूल शरीर पशु-पक्षियों को भी प्राप्त हैं, किन्तु मनुष्य शरीर पुण्य कर्मों के फल से मिलता है। पूर्णता प्राप्त करने के लिए यह एक सुन्दर अवसर है। यह शरीर भोगायतन भी कहलाता है। इसमें रहकर जीव अपने कर्मों का फल सुख-दुःख भोगता है। यह शरीर नश्वर है, क्योंकि इसमें छः विकार देखे जाते हैं- अस्तित्व, जन्म, वृद्धि, परिवर्तन, क्षय और विनाश। इस प्रकार नश्वर होने के शरीर अनित्य है और अनित्य होने के कारण मिथ्या है। इस शरीर में आत्मा एक भी लक्षण नहीं हैं। यह नश्वर होने के कारण सत् नहीं, जड़ भूतों से निर्मित और कर्मफल का परिणाम होने से चित् नहीं है और विकारी होने से आनन्द रहित है।
प्रणव-बोध इस स्थूल शरीर में दो शरीर और है- सूक्ष्म और कारण सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म पंचमहाभूतों से निर्मित होने के कारण सूक्ष्म कहलाता है। भौतिक होने के कारण यह भी जड़ है। इसमें भासित होने वाली चेतना इसकी अपनी नहीं है। इसकी रचना पूर्व जन्म में किए गए कर्मानुसार होती है। सत्कर्मों से मनुष्य शरीर मिलता है। सूक्ष्म शरीर भोगों का साधन है। मन से बुद्धि इसी शरीर में हैं। उनसे ही सुख-दुःख का भोग होता है। सूक्ष्म शरीर में इन्द्रियाँ, प्राण और मन-बुद्धि आते हैं। इनको स्थूल शरीर से पृथक समझना चाहिए। स्थूल शरीर में इनके गोलक या ठिकाने हैं जहाँ स्थित रहकर ये शरीर को चलाते हैं।
ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं- कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, और नासिका। इनसे वाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए इन्हें ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं। इन सबके रूप सूक्ष्म हैं। सभी इन्द्रियों के कार्यक्षेत्र बटे हुए हैं। वे अपने ही क्षेत्र में कार्य करती हैं। इसलिए ज्ञानेन्द्रियों के लिए विषयों के क्षेत्र भी पाँच हैं। ये विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध हैं। इन्हीं को जगत कहते हैं। (देखें तालिका में दाहिनी ओर सब से नीचे) इन्द्रियाँ इन विषयों को मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं और वहीं से वे मन और बुद्धि को पहुंचते है।
कर्म करने के लिए वाक्, हाथ, पैर, गुदा, और उपस्थ पांच कर्मेन्द्रियाँ है। जिस हाथ से हम लेने-देने या लिखने का काम करते हैं, वह स्थूल शरीर का एक भाग है। इसी में हस्तेन्द्रिय वास करती है। उसके द्वारा काम होने पर स्थूल शरीर का यह अंग काम करता दिखाई देता है। हस्तेन्द्रिय सूक्ष्म शरीर का अंग है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों को भी समझना चाहिए। तालिका में कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के नाम दिये हैं।
सूक्ष्म शरीर में ही प्राण, मन और बुद्धि भी हैं। शरीर के अन्दर कार्य करने वाली शक्ति प्राण है। यद्यपि प्राण एक है किन्तु इसके पाँच कार्य होने के कारण यह पाँच प्रकार का है। इनके नाम प्राण, अपान, समान, और उदान हैं। प्राण श्वास-प्रश्वास को संचालित करता है और वाह्य जगत् के विषयों के उत्प्रेरकों को नियंत्रित रखता है। अपान विसर्जन शक्ति है। इसी शक्ति से मल, मूत्र, वाय, थूक, पसीना आदि विकार शरीर से बाहर निकलते हैं। समान प्राण पाचन शक्ति है। यह पेट में पहुँचे भोजन को पचाती है। व्यान रक्त संचालन शक्ति है। पचे अन्न से बने रक्त को यह शरीर में वितरित करती है। उदान विचार करने की शक्ति है। मृत्यु काल में जीव को यही शक्ति शरीर से बाहर निकाल कर दूसरे शरीर में ले जाती
प्राण से अधिक सूक्ष्म मन है। इसमें ज्ञान शक्ति है। ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त रूप, रस आदि मन को प्राप्त होते हैं। यद्यपि वे सब अलग-अलग होते हैं। किन्तु वे मन में एकीकृत होकर वस्तु का बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। मन इसे बुद्धि के सामने निर्णय देने के लिए प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त मन विचारों का सतत प्रवाह है। यदि प्रत्येक विचार को एक बाल्टी पानी माना जाय तो मन एक नदी है जिसमें जल निरन्तर प्रवाहित रहता है। रुके हुए पानी में उसकी शक्ति नहीं दिखाई देती किन्तु उसके प्रवाहित होने पर नदी में गति और शक्ति आ जाती है। इसी प्रकार जब विचार प्रवाहित होते हैं। तो उनमें बड़ा उद्वेग उत्पन्न होता है।
बुद्धि मन से भी अधिक सूक्ष्म ज्ञानशक्ति है। पूर्व स्मृति का उपयोग कर बुद्धि वर्तमान वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति पर विचार करने और निर्णय लेने की क्षमता रखती है। मन केवल ज्ञात क्षेत्र में विचरण करने की क्षमता रखता है, किन्तु बुद्धि ज्ञात क्षेत्र में रहने के अतिरिक्त अज्ञात क्षेत्र में भी प्रवेश करने की शक्ति रखती है। वह नयी खोज कर सकती है, नई बातों पर विचार कर सकती है और नये सिद्धान्तों को समझ सकती है।
तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है। यह सूक्ष्म और स्थूल शरीरों का कारण है। सब लोगों का यह कारण शरीर एक समान नहीं है, इसीलिए सबकी बुद्धि एक समान नहीं है। स्त्री-पुरुष, कीट-पतंग और पशु-पक्षियों के नाना रूप शरीरों का हेतु कारण शरीर ही है। यह अविद्यारूप भी है। अपने आत्मा का ज्ञान न होना अविद्या है। गहन निद्रा में इसका पूरा रूप अनुभव में आता है। उस समय अपना-पराया कुछ भी ज्ञात नहीं होता। कारण शरीर त्रिगुणात्मक है। सत्त्व में रजस और तमस के मिश्रण से उत्पन्न हुई मलिनता आवरण का कार्य करती है। यह मलिनता सब प्राणियों में एक समान नहीं है। अपने पूर्व जन्म के कर्मानुसार इसकी मलिनता कम-ज्यादा होती है। कारण और सूक्ष्म शरीरों में व्याप्त आत्म चैतन्य वहाँ प्रतिबिम्बित होकर एक देशीय अनुभव में आता है। इसे जीव कहते हैं। हम अपनी जिस वैयक्तिक चेतना का अनुभव करते हैं यह जीव ही है। जीव जब तक कारण और सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल शरीर में रहता है तब तक वह जीवित कहलाता है। जीव भाव में रहते हुए वह अपने को अन्य जीवों पृथक् समझता है। वह ईश्वर और अपने में भी भेद मानता है। वह ईश्वर को अपना स्वामी और अपने कर्मों का फलदाता स्वीकार करता है।
जब तक अविद्या की उपाधि के कारण मनुष्य का जीवभाव विद्यमान ‘के’ है तब तक वह शुभाशुभ कर्म करता है और ईश्वर से शासित होकर नाना प्रकार के शरीर धारण करता है। वह मुक्त नहीं होता। जब वह ज्ञान के द्वारा अविद्या की उपाधि नष्ट कर देता है तो उसे अपना शुद्ध आत्मा उपलब्ध हो जाता है। उसकी भेद बुद्धि समाप्त हो जाती है। अब वह अपने को आकाश के समान सर्व व्यापक अनन्त पाता है। तालिका में वह तीनों शरीरों से बाहर ऊपर की ओर ‘आत्मा’ नाम से स्थित है।
आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर मुक्त होने के लिए एक साधना प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। उसका वर्णन तालिका में बाईं ओर दिखाया गया है। सबसे पहले हमें धर्म और अधर्म का विवेक कर धर्म के मार्ग पर चलने का अभ्यास करना होता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले को इन्द्रिय निग्रह और निष्काम कर्म करना होता है। संयमी और निष्काम साधक उपासना कर मन को एकाग्र बनाते हैं। अब वे विवेक-वैराग्य आदि से सम्पन्न होकर गुरु के निकट जाते हैं और उनके उपदेश से आत्म-ज्ञान प्राप्त करते हैं।
आध्यात्मिक साधना का प्रवेश द्वार धर्माचरण है। कम इतनी बुद्धि होनी चाहिए कि वह धर्म और अधर्म का अन्तर समझ मनुष्य में कम सं सके। न्यायपूर्वक जो कार्य मनुष्य को करना चाहिये वही उसका धर्म है। धर्म और कर्तव्य कर्म एक ही बात है। यदि हम सत्य का पालन करें तो सभी धर्म सध जाते हैं। दूसरों को अपने स्वार्थ के लिये कष्ट देना या उनका स्वत्त्व हरण करना अधर्म है। उससे बैर भाव बढ़ता है और अपना मन अशान्त होता है। सामान्य रूप से हम कह सकते है कि जिस प्रकार से हमारा मन शान्त और प्रसन्न रहे, भविष्य में भी कोई संकट उत्पन्न न हो, वही हमारा धर्म है।
धर्म के दो प्रकार हैं स्वधर्म और सामान्य धर्म स्वधर्म का निर्णय वर्ण और आश्रम से होता है। चार वर्णों के कर्तव्य कर्म अपने अपने अलग हैं और चार आश्रमों के भी कर्तव्य कर्म अलग हैं। सामान्य धर्म वह है जो सबको पालन करना चाहिये। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि सामान्य धर्म हैं। इन दोनों प्रकार के धर्मों का पालन करने के तीन फल हैं- भौतिक सुख, कीर्ति और स्वर्ग तालिका में धर्म के कोष्टक में इन तीनों का उल्लेख है। इनके विपरीत अधर्म का फल भौतिक दुःख, निन्दा और नरक है। मनुष्य अधर्म के ये दुष्परिणाम नहीं भोगना चाहता, फिर भी लोभ में पड़कर अधर्म में ही प्रवृत्त होता है। यह उसकी मूढ़ता है।
धर्म के मार्ग पर चलना बड़ा कल्याणकारी है, किन्तु इसके फलस्वरूप सुख आदि प्राप्त होते हैं, वे नश्वर हैं। उनके समाप्त होने पर भी दुःख जो आ जाता है। स्वर्ग प्राप्त होने पर भी वह सदा उपलब्ध नहीं रहता, उसे छोड़कर जीव को मृत्यु लोक में फिर आना पड़ता है। इस समस्या से बचने के लिये आगे की साधना करनी चाहिये। सकाम धर्म के पालन से निष्काम धर्म श्रेष्ठ है। इसलिये निष्काम कर्मयोग की साधना करने का निर्देश है। कर्मयोगी को धर्म के तीन फल तो प्रकृत्या प्राप्त ही होते हैं, उसके साथ उसका सत्त्वगुण इतना बढ़ता है कि वह परमात्मा को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। साधनाओं के द्वारा बुद्धि क्रमशः निर्मल हो जाती है। उसमें उच्च आध्यात्मिक मूल्य समझ में आने लगते हैं। धार्मिक व्यक्ति को निष्काम कर्म का महत्व समझ में आने लगता है और उसे आचरण में भी ला सकता है। कर्मयोगी को ईश्वर की सत्ता समझ में आ जाती है। वह ईश्वर में निष्ठा रखकर उपासना कर सकता है। उपासना करने से चित्त एकाग्र होता है और अपने हृदय में आत्मा को देखने और जानने की क्षमता आ जाती है। वह व्यक्ति साधन चतुष्टय सम्पन्न हो जाता है। विवेक, वैराग्य, षट् सम्पत्ति और मुमुक्षत्व आ जाने पर साधक भौतिक आसक्तियाँ छोड़कर ज्ञान प्राप्त करने के लिये गुरु के चरणों में समर्पित हो जाता है।
ज्ञान के दो रूप हैं- ज्ञान और विज्ञान ज्ञान परोक्ष ज्ञान है और विज्ञान अपरोक्ष ज्ञान है। जब शास्त्र का श्रवण करने से आत्मा और परमात्मा के एकत्व का बौद्धिक ज्ञान स्पष्ट रूप से हो जाता है तो उसे ‘ज्ञान’ कहते हैं। मनन और निदिध्यासन के बल पर जब वह ज्ञान आत्मा के स्तर पर पहुँच कर अपरोक्ष हो जाता है तब उसे ‘विज्ञान’ कहते हैं। उस समय साफ अनुभव में आ जाता है कि आकाश की तरह सर्वव्यापी अनन्त चैतन्य ही अपना स्वरूप है।
इस प्रकार सद्गुरु के उपदेश द्वारा प्राप्त वेदान्त वाक्यों से सर्वभूतों में जिनकी ब्रह्म बुद्धि उत्पन्न हो गयी है, वे ‘जीवन्मुक्त’ हैं। मुक्ति दो प्रकार की होती है जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति। इसी शरीर में रहते हुये जब मनुष्य मुक्त हो जाता है तो जीवन्मुक्त कहते हैं। जब शरीर समाप्त होने पर उसे दूसरा शरीर नहीं धारण करना पड़ता, तब उसे विदेहमुक्त कहते हैं। जो पहले जीवन्मुक्त होता है, वही शरीर छोड़कर विदेहमुक्त होता है। जैसे अज्ञानी व्यक्ति का यह दृढ़ निश्चय होता है कि मैं शरीर हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं शूद्र हूँ इसी प्रकार जब दृढ़ निश्चय हो कि मैंन मैं ब्राह्मण हूँ, न शूद्र हूँ, न पुरुष हूँ किन्तु असंग, सच्चिदानन्द स्वरूप, प्रकाशरूप, सर्वान्तर्यामी, चिदाकाशरूप (आत्मा) हूँ और वह ज्ञान अपरोक्ष होता है तभी वह जीवन्मुक्त है।
परोक्ष ज्ञान के प्रभाव से कर्म-बन्धन समाप्त हो जाता है। शरीर, वाणी और मन से की जाने वाली क्रियायें कर्म कहलाती हैं। कर्म समाप्त होने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि कर्म नष्ट हो गया, किन्तु वह नष्ट नहीं होता। वह हमारे कारण शरीर में सूक्ष्म रूप से अंकित रहता है। यही कर्म आत्मा को आवृत कर अज्ञान उत्पन्न करता है। अपरोक्ष ज्ञान होने पर ऐसे कर्म नष्ट हो जाते हैं। ज्ञानी पुरुष भी कर्म करता है। उसके कर्म आगामी कर्म कहलाते
हैं। उनमें कर्त्ता भाव न होने के कारण वे कर्म न संस्कार बनते हैं और न बन्धनकारी होते हैं। अज्ञान की अवस्था में कर्त्ताभाव होने पर ही कर्म का संस्कार बन्धन बनता है। ये कर्म संचित कहलाते हैं। संचित कर्मों के भंडार का ही एक अंश प्रारब्ध कर्म है। वह अगले जीवन का कारण और सुख-दुःख का हेतु होता है। ज्ञान की अग्नि में संचित कर्म तो जल जाते है, किन्तु प्रारब्ध छूटे हुए बाण की तरह अपने समय पर ही समाप्त होता है। प्रारब्ध समाप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता। यही विदेहमुक्ति है।
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