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अमृत-तत्त्व
श्री सुशील जालान
बृहदारण्यक उपनिषद् एक मुख्य उपनिषद् है। इसकी ऋचाएं (01.03.28) हैं,
“असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मा अमृतंगमय”
इन ऋचाओं से ऋषि उपदेश करता है शिष्य को अमृत तत्त्व, आत्मबोध के लिए, उसकी प्रक्रिया का वर्णन करता है।
असतोमासद्गमय
असतो,
पदच्छेद है, अ + स् + त् + ओ (अ + उ)
– अ है आदिकाल से,
– स् स्त्रीलिंग है धारण करने के संदर्भ में,
– त् एकवचन है,
– ओ (अ + उ), अ है प्रकट होने के संदर्भ में, उ है ऊर्ध्व
लोक में।
अर्थ हुआ,
वह आदि काल से एक ही है धारण करने के लिए, जो ऊर्ध्व लोक में प्रकट होता है।
मा,
पदच्छेद है, म् + आ,
– म् है महर्लोक, अनाहत चक्र,
– आ है दीर्घ काल तक प्रकट होने के संदर्भ में।
अर्थ हुआ,
वह प्रकट है आदि/दीर्घ काल से ऊर्ध्व महर्लोक/अनाहत चक्र में।
सद्गमय,
पदच्छेद है, सत् + ग + म + य,
– सत्, है उस एक को धारण करने के लिए,
– ग (ग + अ), ग् है गमन, अ है स्थिर होना,
– म (म् + अ), है महर्लोक/अनाहत चक्र में स्थित होना,
– य ( य् + अ), है सूक्ष्म प्राण (वायु) को स्थिर करना।
अर्थ हुआ,
सूक्ष्म प्राण को ऊर्ध्व गमन कराए महर्लोक/अनाहत चक्र में स्थिर करने के लिए।
ऋचा अर्थ हुआ,
वह निराकार व निर्गुण आत्मा एक ही है। प्राणायाम के अभ्यास से सूक्ष्म प्राण ऊर्ध्व गमन करता है महर्लोक/अनाहत चक्र में जहां वह एक ही स्थित है आदि काल से और दीर्घ काल तक स्थित रहेगा।
तमसोमाज्योतिर्गमय
तमसो,
पदच्छेद है, तमस् + ओ (अ + उ),
– तमस्, तमोगुण के संदर्भ में,
– ओ (अ + उ), अ है प्रकट होने के संदर्भ में, उ है ऊर्ध्व
लोक से।
अर्थ हुआ,
यह बाह्य जगत् तमोगुण प्रधान है, जो ऊर्ध्व लोक से प्रकट हुआ है।
मा, पदच्छेद है, म् + आ,
– म्, है महर्लोक/अनाहत चक्र,
– आ, है आदि काल से।
अर्थ हुआ,
महर्लोक/अनाहत चक्र से आदि काल से।
ज्योतिर्गमय,
पदच्छेद है, ज्योति + र् + गमय,
– ज्योति, है अंगुष्ठ माप की दीपक की लौ,
– र्, है अग्नि तत्त्व मणिपुर चक्र में,
– गमय, है महर्लोक/अनाहत चक्र में सूक्ष्म प्राण का दीर्घ
काल तक स्थिर होना।
अर्थ हुआ,
सूक्ष्म प्राण से, अंगुष्ठ माप की दीपक की लौ के स्वरूप में ज्योति प्रकाशित है महर्लोक/अनाहत चक्र में आदिकाल से, मणिपुर चक्र की अग्नि से।
ऋचा अर्थ हुआ,
यह बाह्य जगत् तमोगुण प्रधान है जो ऊर्ध्व महर्लोक/अनाहत चक्र से प्रकट हुआ है। उस महर्लोक/अनाहत चक्र में अंगुष्ठ माप की दीपक की लौ के सदृश्य वह चैतन्य तत्त्व (आत्मा) प्रकट है, जिसे सूक्ष्म प्राण से दीर्घ काल तक स्थिर किया जाता है, मणिपुर चक्र की अग्नि से।
मृत्योर्माअमृतंगमय
मृत्योर्,
पदच्छेद है, म् + ऋ + त् + य् + ओ (अ + उ) + र्
– म्, है महर्लोक/अनाहत चक्र,
– ऋ, है बोध करने के संदर्भ में,
– त्, है एकवचन,
– य्, है वायु तत्त्व (सूक्ष्म प्राण) अनाहत चक्र,
– र्, है अग्नि तत्त्व मणिपुर चक्र।
अर्थ हुआ,
उस एक का बोध करे सूक्ष्म प्राण से मणिपुर चक्र के अग्नि तत्त्व को जाग्रत कर महर्लोक/अनाहत चक्र में।
मा,
पदच्छेद है, म् + आ,
– म्, है महर्लोक/अनाहत चक्र,
– आ, है आदि काल के संदर्भ में।
अर्थ हुआ,
महर्लोक/अनाहत चक्र में आदिकाल से स्थित।
अमृतंगमय
पदच्छेद है, अ + म् + ऋ + त (त् + अं) + गमय,
– अ, है प्रकट होने के संदर्भ में,
– म्, है महर्लोक/अनाहत चक्र,
– ऋ, है बोध करने हेतु,
– तं (त् +अं), एकवचन, बिन्दु (अनुस्वार) में स्थित है,
– गमय, है महर्लोक/अनाहत चक्र में सूक्ष्म प्राण का
दीर्घ काल तक स्थिर होना।
अर्थ हुआ,
सूक्ष्म प्राण को दीर्घ काल तक स्थिर करना उस एक का बोध करने के लिए जो प्रकट है महर्लोक/अनाहत चक्र में, बिन्दु में।
ऋचा अर्थ हुआ,
महर्लोक/अनाहत चक्र में वह एक चैतन्य आत्मा बिन्दु में आदि काल से स्थित है जिसका बोध सूक्ष्म प्राण को ऊर्ध्व कर मणिपुर चक्र की अग्नि को जाग्रत कर किया जाता है।
बृहदारण्यक उपनिषद् का ऋषि कहता है बाह्य जगत् तमोगुण प्रधान है। आदि काल से चैतन्य तत्त्व आत्मा एक ही है और उसका बोध सूक्ष्म प्राण से मणिपुर चक्र की अग्नि को जागृत कर महर्लोक/अनाहत चक्र में स्थित बिन्दु में किया जाता है, जहां वह अंगुष्ठ माप से दीपक की लौ (चैतन्य तत्त्व) के सदृश प्रकट होता है।
इस निर्गुण निराकार चैतन्य आत्मतत्त्व, अमृत-तत्त्व, का बोध करने से ध्यान-योगी जीवन्मुक्त होता है, कर्मबंधनों से मुक्ति मिलती है और जन्ममृत्यु के चक्र से छुटकारा मिलता है। यही बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित ब्रह्म विद्या का प्रयोजन है।
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