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आष्टमहासिद्धियां
श्री सुशील जालान
अष्टमहासिद्धियों का वर्णन योग-तंत्र शास्त्रों में मिलता है। यह आठ हैं, अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व और प्राकाम्य।
“अणिमा महिमा चैव गरिमा लघिमा तथा
प्राप्ति: प्राकाम्यं ईशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धय:”
– मार्कण्डेय पुराण
श्रीदुर्गासप्तशती, अष्टम् अध्याय, रक्तबीज-वध में ध्यान प्रक्रिया है अणिमादि अष्टमहासिद्धियां के लिए।
“ॐ अरुणां करुणा तरङ्गित अक्षीं
धृत पाश अङ्कुश बाण चाप हस्ताम्।
अणिमादि भिर् आवृतां मयुखैर्
अहं इति एव विभावये भवानीम्॥”
यही श्रीललितासहस्रनाम स्तोत्रम् में भी दिया गया है। इसमें बाण के आगे और चाप के पूर्व में पुष्प लिखा गया है। पुष्प आकाश तत्त्व का द्योतक है, जिसमें अन्य तत्त्वों की तन्मात्राएं भी दृष्टिगोचर होती हैं, स्पर्श (वायु), रूप (अग्नि), रस (जल) व गंध (पृथ्वी)। आकाश तत्त्व की तन्मात्रा है स्वर।
अणिमा प्रथम महासिद्धि है अष्ट महासिद्धियों में। अणिमा का पदच्छेद है,
अण् + इ + म् + आ
अण्, अर्थात्, प्रत्याहार है, अ इ उ ण्, प्रथम माहेश्वर सूत्र है,
अ, है ब्रह्मा ग्रंथि, नाभि में स्थित मणिपुर चक्र, अग्नि तत्त्व,”र्” कूट बीज वर्ण, इ, है कामना स्वरूप, सृष्टि सृजन, संचालन और संहार हेतु, उ, है विष्णु ग्रंथि, हृदय में स्थित अनाहत चक्र, वायु तत्त्व, “य्” कूट बीज वर्ण, ण्, है वर्ण जिससे कोई शब्द प्रारंभ नहीं होता है, अर्थात्,
चेतना का अंतिम आयाम, शब्द ब्रह्म, अनुस्वार में परिवर्तन, बिन्दु, अनादि अनंत आकाश तत्त्व, जिसमें है सृष्टि का अव्यक्त कूट बीज।
अर्थ हुआ,
ध्यान-योगी मणिपुर चक्र जाग्रत कर सुषुम्ना नाड़ी से चेतना को अग्नि तत्त्व के सहारे ऊर्ध्व कर अनाहत चक्र में ले जाता है जहां बिन्दु का, शुक्र ग्रह जैसे चमकीले शुक्राणु का, महेश्वर लिङ्ग पर बोध करता है।
इमा, पदच्छेद है, इ + म् + अ + अ,
इ, है कामना,
म्, है महर्लोक, अनाहत चक्र,
अ, है चेतना को स्थिर करने के संदर्भ में,
अ, है कामना फलीभूत होने के संदर्भ में।
अर्थ हुआ,
महर्लोक में बिन्दु में चेतना को स्थिर करने से कामना विशेष फलीभूत होती है।
अणिमा महासिद्धि का मुख्य फल है सदेह अणु स्वरूप होना, अंतर्धान होना। पुनः अणु से स्व-सदेह होना।
महारास में त्रिपुरसुंदरी ललिता सखि (शक्ति) का उपयोग कर लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण अंतर्धान हुए और पुनः प्रकट भी हुए। श्रीमद्भागवतम्, दशम् स्कंध, रासपञ्चाध्यायी अध्याय में वर्णन है, अंतर्धान हुए –
“तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशव।
प्रशमाय प्रसादाय तत्र एव अन्तरधीयत॥”
- श्रीमद्भागवतम् (10.01.48)
पुनः सदेह प्रकट हुए –
“तासामाविरभूच्छौरि: स्मयमानमुखाम्बुज:।
पीताम्बरधर: स्रग्वी साक्षात् मन्मथमन्मथ:॥”
– श्रीमद्भागवतम् (10.04.02)
अणिमादि अष्टमहासिद्धियां जाग्रत करने के विधि –
अनुलोम विलोम प्राणायाम से इड़ा और पिंगला नाड़ियों को शुद्ध करे, प्राणवायु को सूक्ष्म करे। मूलाधार चक्र को ऊर्ध्व कर स्वाधिष्ठान चक्र से मिलाए। ब्रह्मचर्य का अभ्यास करे, जिससे शुक्राणुओं का बाह्य पतन न होकर ऊर्ध्वगमन होता है सूक्ष्म नाड़ियों में। सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है अग्नि तत्त्व के साथ मणिपुर चक्र से, अश्विनी मुद्रा के अभ्यास से।
बाह्य केवल कुंभक तथा मूर्छा प्राणायाम और खेचरी मुद्रा के अभ्यास से, त्रिबंध, मूल, उड्डीयान व जालंधर, के अभ्यास से, ध्यान-योगी अपनी चेतना को मुण्ड में प्रवेश कराता है, हृदयस्थ अनाहत चक्र और विशुद्धि चक्र का भेदन कर। विशुद्धि चक्र कण्ठ में स्थित है, जहां कालकूट विष पान करना पड़ता है।
षडरिपुओं, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य का वध करना पड़ता है ऊर्ध्वरेता ध्यान-योगी को। रिपुवध समभाव धारण करने से संभव होता है, अर्थात्, हानि-लाभ, शीत-उष्ण, सुख-दुख, मान-अपमान, हार-जीत, आदि में समभाव।
समभाव आवश्यक माना गया है शांत मन के लिए और समभाव से संसार के विषयों में मानसिक अनासक्ति योग प्रकट होता है। शांत मन ही सुषुम्ना नाड़ी में सूक्ष्म प्राण का आधार होता है, जिससे महेश्वर लिङ्ग का दर्शन होता है महर्लोक में, हृदयाकाश में। यहां जीव भाव त्याग कर मुक्तात्मा चैतन्य स्वरूप धारण करता है। चैतन्य तत्त्व ही वाहक है अष्टमहासिद्धियों का।
सुषुम्ना नाड़ी से प्रकट होती है सूक्ष्म चित्रिणी नाड़ी सुषुप्तावस्था में जिसमें अणिमा महासिद्धि, ललिता शक्ति के साथ प्रकट होती है ध्यान-योगी के उपयोग के लिए, कहीं भी, किसी समय भी। अणिमा सिद्धि स्थान व काल के बंधन से मुक्त है ध्यान-योगी के लिए।
श्रीविद्या के अंतर्गत त्रिपुरसुंदरी राजराजेश्वरी ललिता शक्ति में अष्टमहासिद्धियों का प्राकट्य होता है। निष्काम साधक योगी इन महासिद्धियों का उपभोग करने में समर्थ होता है। देवी, महादेव अथवा भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रह से संभव है इन अतिशय दुर्लभ योगसिद्धियों को प्राप्त करना।
महेश्वर लिङ्ग के साथ उमा शक्ति विशेष, चौंसठ योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी, भी प्रकट होती है महर्लोक में। ललिता श्रीदेवी हैं। उमा महादेवी हैं, महेश्वरी हैं, महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती, त्रिगुणात्मिका प्रकृति की एकात्मिक स्वरूप हैं।
निष्काम ध्यान-योगी महासिद्धियों में भी अनासक्त रह कर आज्ञा चक्र – सहस्रार में बोध कर सकता है परमेश्वरी शक्ति का। यह केवल ब्रह्मऋषियों के लिए ही संभव है। सहस्रार – आज्ञा चक्र में भी अणिमादि अष्टमहासिद्धियां उपलब्ध होती हैं अन्य ब्रह्मसिद्धियों के साथ साथ।
अष्टमहासिद्धियों में अणिमा के बाद महिमा महासिद्धि है। अग्नि तत्त्व से परिपूरित नाभिस्थ मणिपुर चक्र से सुषुम्ना नाड़ी प्रकट होती है। इसमें रक्तवर्णा रश्मि स्वरूप भवानी हृदयस्थ अनाहत चक्र/महर्लोक में दृष्टिगोचर होती है। यहीं वज्रिणी नाड़ी का उद्गम है जिसको जाग्रत किया जाता है महिमा महासिद्धि के उपयोग के लिए। वज्रिणी नाड़ी से देवनृप इन्द्र के अस्त्र, वज्रास्त्र, का उपयोग करता है ध्यान-योगी।
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श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय 10, ध्यान छंद –
“ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि-
नेत्रां धनुष् शर युक्त अङ्कुश पाश शूलम्।
रम्यैर्भुजश्च दधतीं शिवशक्ति रूपां
कामेश्वरीं हृदि भजामि धृत इन्दु लेखाम्॥”
वज्रिणी नाड़ी में रमण करते हुए ध्यान योगी शिवशक्ति रूपा ललिता कामेश्वरी का आवाहन करता है। महिमा महासिद्धि में स्व-देह से, ऊर्ध्व शुक्राणुओं से, अनेक देह प्रकट करना, प्रतिकृति या किसी भी योनि के जीवों को प्रकट करना, संख्या में, ध्येय है किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए।
पौराणिक आख्यान है कि देवासुर संग्राम में देवराज इन्द्र ने महर्षि दधीचि की अस्थियों से वज्रास्त्र बनाया और उसके उपयोग से वृतासुर/असुरों को पराजित किया था। ध्यान-योगी स्वयं ही इन्द्र है जब वह अपनी दशों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है।
महर्षि वह ध्यान-योगी है जो महर्लोक में, ऋत्/सत्य का बोध करे, चित्त में, चित्रिणी नाड़ी में। समस्त वेदादि का, सिद्धियों का, भंडार है चित्त और उनका उपयोग करने में सक्षम होता है महर्षि।
दधीचि, पदच्छेद है, द(त् + अ) + ध् + ई + च् + इ,
त्, है एकवचन, अ है उस एक में स्थित होना,
ध्, है धारण करने के संदर्भ में,
ई, है दीर्घ काल तक,
च्, है चित्त/चित्रिणी नाड़ी,
इ, है कामना।
अर्थ हुआ, दीर्घ काल तक चित्त/ चित्रिणी नाड़ी में ध्यान करे और कोई एक धारणा/कामना करे।
महर्षि दधीचि ने देह त्याग कर अस्थियां इन्द्र को प्रदान कर दी थीं वज्रास्त्र बनाने के लिए, यह कथा है। देह त्याग का अर्थ है जीवभाव का त्याग और आत्मबोध करना महर्लोक में। यह निर्गुण आत्मा चैतन्य तत्त्व धारण करता है। चैतन्य तत्त्व ही महासिद्धियों के उपयोग का हेतु है, साधन है।
अस्थि, पदच्छेद है, अ + स् + थ् + इ,
अ, है प्रकट होने के संदर्भ में,
स्, है उष्ण व्यंजन, मूलाधार चक्र में स्थित,
थ्, थमना के संदर्भ में,
इ, है कामना विशेष।
अर्थ हुआ, कोई एक कामना के प्राकट्य के लिए उष्ण मूलाधार चक्र में थमना। उष्ण का अर्थ है लाल अग्नि तत्त्व, भवानी रश्मियों से ओतप्रोत। मूलाधार चक्र है पृथ्वी तत्त्व, अर्थात् जगत् में प्रकट करना।
महर्षि दधीचि अस्थि / वज्रास्त्र का अर्थ हुआ,
ध्यान-योगी महर्लोक/अनाहत चक्र में, सुषुप्तावस्था में, जीवभाव त्याग कर चैतन्य स्वरूप आत्मा से, चित्रिणी नाड़ी जाग्रत कर दीर्घ काल तक रमे, कोई एक कामना करे, जीव विशेष के संबंध में, संख्या में, रक्तवर्णा रश्मियों में, वज्रिणी नाड़ी में, जिसका प्राकट्य होता है भूधरा पर, नियत समय तक। यह महिमा महासिद्धि है।
श्रीमद्भागवत, दशम् स्कंध, रासपञ्चाध्यायी अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण के महारास का वर्णन है। यहां श्रीकृष्ण स्वयं को अनेक रूपों में, गोपियों के मध्य में प्रकट करते हैं, महिमा महासिद्धि के उपयोग से, महारास में स्वयं के आनंद के लिए।
“रासोत्सव: सम्प्रवृत्तो गोपीमंडलमंडित: ।
योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयो: ।
प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रिय: ॥
(रा पं 10.05.03)
छान्दोग्य उपनिषद् भी वर्णन करता है महिमा महासिद्धि की,
“तत्तेज ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति”
(छा उ 6.2.3)
तत्तेज, पदच्छेद है, तत् + तेज,
तत्, है वह, उस एक,
तेज, है पौरुष बल, शुक्राणु,
अर्थ हुआ, उस एक पौरुष बल शुक्राणुओं से,
ऐक्षत, पदच्छेद है, ऐ( अ + इ) + क्ष + त् + अ,
आज्ञा चक्र में दो कूट वर्ण वर्ण हैं, क्ष और ह,
क्ष, है आज्ञा चक्र से दृष्टिपात करने के संदर्भ में,
इ, है कामना,
अ, है प्रकट करने के संदर्भ में,
त्, है एकवचन,
अ, है स्थिर करने के संदर्भ में।
अर्थ हुआ, आज्ञा चक्र से किसी स्थान विशेष पर दृष्टिपात कर एक विशेष कामना को प्रकट करना।
बहु स्यां
बहु, है अनेक के संदर्भ में,
स्यां, पदच्छेद है, स् + य + अयम्,
स्, है स्त्रीलिंग, धारण करने के संदर्भ में,
य, है (य् + अ)/ य् (प्राण) वायुतत्त्व, अ/स्थिरता के लिए, अयम्/प्रथमा विभक्ति एकवचन, कर्त्ता ने,
अर्थ हुआ,मैंने अपने प्राण/प्रण से अनेकों को धारण किया।
प्रजायेयेति, पदच्छेद है, प्रजायेय + इति,
अर्थात्, प्रजा उत्पन्न करना, जन्म देना, स्वयं के ऊर्ध्व शुक्राणुओं से विविध रूप प्रकट कर समापन करना।
इस श्रुति का गूढ़ अर्थ है कि वह सक्षम ऊर्ध्वरेता पुरुष, ध्यान-योगी, अपने ऊर्ध्व किए हुए शुक्राणुओं से सृजन करता है अनेक जीवों की, आज्ञा चक्र से, वज्रिणी नाड़ी से, अपने संकल्प से। यह संभव होता है महिमा महासिद्धि के उपयोग से।
कामधेनु एक दिव्य रत्न है, प्रकट होता है समुद्र मंथन से। समुद्र मंथन ध्यान-योग की क्रिया है, जहां अनाहत चक्र/महर्लोक में, सहस्रार में, दिव्य रत्न प्रकट होते हैं। कामधेनु महिमा महासिद्धि ही है जिसका उपयोग ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने किया था, अनेक सैनिक प्रकट किए थे, राजा विश्वामित्र की सेना को हराया था।
आज्ञा चक्र के दूसरे कूट वर्ण ह (विसर्ग + अ) से अभिचार षट्कर्म करना संभव होता है किसी भी जीव पर महिमा महासिद्धि से। विसर्ग कर्मप्रधान है। अभिचार षट्कर्म हैं, मारणं, मोहनं, वश्यं, स्तम्भनं, उच्चाटनं और विद्वेषणं/शान्ति। भगवान् श्रीकृष्ण ने मोहनं अभिचार कर्म से गोपियों को मोहित किया था, अपना प्रिय बनाया था।
महिमा महासिद्धि का, वज्रास्त्र का, अभिचार षट्कर्म का, प्रयोग आध्यात्मिक ब्रह्मगुरु की अनुमति से ही किया जा सकता है। अन्यथा शक्ति हीन हो सकता है साधक ध्यान-योगी, पराभव हो सकता है, पुंसत्व क्षीण हो सकता है। यह अति गूढ़ विद्या है, वेद विज्ञान है, केवल समर्थ ब्रह्मगुरु के सान्निध्य में सीखी जाती है।
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