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अथर्ववेद में मेस्मरिज्म और हिप्नॉटिज्म
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
Mystic Power-अथर्ववेद में हस्त-स्पर्श से रोग निवारण की पूरी विधि दी गई है।(अथर्ववेद ४/१३/१ से ७ )इस विधि की वर्तमान मेस्मरिज्म और हिप्नॉटिज्म से तुलना करने से ज्ञात होता है कि अथववेद की विधि इनसे मिलती हुई है। अथर्ववेद के अनुसार हस्तस्पर्श से रोग निवारण की विधि इस प्रकार है-शरीर में दो वायुएँ हैं- प्राण और अपान । इनमें से प्राणवायु शरीर को शक्ति प्रदान करती है और अपान वायु शरीर के दोषों को बाहर निकालती है।(अथर्ववेद ४/१३/२).प्राण वायु शरीर में प्रवेश कर शक्ति प्रदान करती है। अपान वायु बाहर निकलती है और शरीर के दोषों को बाहर निकालती है। ये दोनों वायुएँ सभी प्रकार के रोगों के इलाज है।(अथर्ववेद ४/१३/३). रोग-निवारण के लिए रोगी की चिकित्सा करते समय अपने हाथों को फैलाना, अंगुलियों को बोलना, हाथों में आरोग्यदायक शक्ति का अनुभव करना, दोनों हाथों से रोगी के शरीर को छूना और साथ ही मन्त्र बोलना । हाथ से छूते समय यह कहना कि मेरे दोनों हाथ सुखदायी है, इसका स्पर्श लाभकारी है, ये तेरे सारे रोगों को नष्ट करेंगे, अब तेरे अन्दर शक्ति आ रही है और रोग दूर हो रहा है। इस प्रकार कहते हुए अंगुलियों से रोगी के शरीर को स्पर्श करना और हाथ फेरना।(अथर्ववेद ४/१३/ ५ से ७).इस विधि से मरणासन्न व्यक्ति तक को जिलाया जा सकता है।(अथर्ववेद ४/१३/१).
मेस्मरिज्म यह नाम मेस्मर के नाम पर पड़ा है। श्री फ्रेडरिक एन्टाइन मेस्मर (Frederick Antoine mesmer) का जन्म सन् १७३४ में वियेना में हुआ था। उसने मेस्मरिज्म के नियमों को २७ सूत्रों में दिया है। उसने अपने सूत्र १३ और १९ में प्राण और अपान शक्तियों को जीवस्थ चुम्बक शक्ति ( Animal Magmatism ) कहा है। उसका कथन है कि प्राणशक्ति को उद्बुद्ध किया जा सकता है और हस्तस्पर्श के द्वारा उसे दूसरे व्यक्ति में अन्तरित किया जा सकता है। इस हस्तस्पर्श के द्वारा स्नायुसम्बन्धी रोगों को साक्षात् दूर किया जा सकता है और अन्य रोगों को असाक्षात् दूर कर सकते हैं। श्री ब्रेड (Braid ) ने सन् १८४३ में हिप्नोटिज्म विषय पर अपनी पुस्तक प्रकाशित की और हिप्नॉटियम की विधि तथा पारिभाषिक शब्दावली प्रस्तुत की। श्री लीवो (Liebautr) ने हिप्नोटिज्म को पुष्ट और परिवर्धित किया। इन दोनों विधियों के साथ ही विचारप्रवेश और आत्मविचारशक्ति ( Auto-Suggestion ) का सम्बन्ध श्री एम० एमिल कू (M. Emile coue ) ने किया। इन तीनों विधियों के समन्वय से यह विधि पूरी मानी जाती है।
यह विधि संक्षेप में इस प्रकार है-लेटकर या बैठकर लम्बे सांस लेकर प्राणवायु या प्राणशक्ति को अन्दर पहुँचाना और उसी प्रकार लम्बे सांस छोड़कर दूषित अपान वायु को बाहर फेंकना । प्रतिदिन इसके अभ्यास के साथ ही किसी केन्द्र बिन्दु पर अपना ध्यान एकाग्र करने का अभ्यास करना। हाथों को रगड़कर उनमें, विशेष रूप से अंगुलियों के अग्रभाग में, कम्पन या झन- झनाहट अनुभव करना। जिस व्यक्ति की चिकित्सा करनी हो, उसे बैठाकर या लिटाकर दोनों आंखों के मध्य भाग में नाक की जड़ में अपना ध्यान एकाग्र करते हुए देखना, दोनों हाथों को रगड़कर कम्पन अनुभव करते हुए उसके शरीर पर शिर से पैर तक धीरे-धीरे छूते हुए या बिना छुए हुए हाथ फेरना । साथ ही उसे नींद आने का विचार बार चार देना। थोड़ी देर में रोगी को नींद आ जाती है और उस अवस्था में हाथ फेरते हुए तीव्र निद्रा आने का आदेश दिया जाता है । पुनः हाथ फेरते हुए यह विचार दिया जाता है, कि अब तेरा यह रोग नष्ट हो रहा है। इस कृत्रिम निद्रा की अवस्था में अन्तःकरण को भी प्रयोक्ता आदेश देता है, वह उसका पालन करता है और तदनुसार रोग दूर होता है। पुनः आदेश देने पर रोगी जाग जाता है और अपने आपको रोगमुक्त पाता है । श्री कू के कथनानुसार आत्मविचार-शक्ति या मनोबल के द्वारा प्रबल विचारों की सहायता से मनुष्य कठिन से कठिन रोगों से मुक्त हो जाता है ।
अथर्ववेद में प्राण और अपान शक्तियों के जो गुण बताए हैं, वे मेस्म- रिज्म और हिप्नॉटिज्म में प्राप्त होते हैं। दोनों स्थानों पर प्राणशक्ति को बढ़ाने और अपान शक्ति के द्वारा दूषित वायु को बाहर निकालने का वर्णन है । हस्त- स्पर्श, विचारों और आदेशों को देना, मन्त्र का पाठ या कथन, समान है । इससे ज्ञात होता है कि इन दोनों वर्तमान पद्धतियों में जो ढंग अपनाया गया है, उसका ही सूत्ररूप में निर्देश अथर्ववेद में है।
अथर्ववेद में हिप्नोटिज्म को स्वप्नाभिकरण या स्वापन विद्या कहा है।(अथर्ववेद ४/५/७). इसके प्रयोग से व्यक्ति को कृत्रिम रूप से सुलाया जाता है। यह स्वापनविद्या प्रभावकारी है । इसके द्वारा लोगों को सुलाया जाता है।(अथर्ववेद ४/५/१) अथर्ववेद में इस स्वापन विद्या का प्रभाव स्त्रियों पर और कुत्तों आदि पर माना है।(अथर्ववेद ४/५/२). हिप्नॉटिज्म के विद्वानों का मत है कि इस विद्या का प्रभाव स्त्रियों और बच्चों पर विशेषतया होता है । उनकी मानसिक शक्ति न्यून होती है, अतएव वे शीघ्र इसके प्रभाव में आ जाते हैं ।
मन्त्र-चिकित्सा को ही हिप्नॉटिज्म या झाड़फूंक की विद्या कहा जाता है । इसमें हस्त-स्पर्श आदि कार्य होता है, अतः इसे झाड़ना कहते और मन्त्र-पाठ आदि के द्वारा फूंकना होता है, अतः इसे फेंकना कहते हैं। इस प्रकार मन्त्र-विद्या और मन्त्र-चिकित्सा को ही जन्तर-मन्तर ( यन्त्र-मन्त्र ) या झाड़- फूंक कहते हैं ।
अथर्ववेद में मन्त्रविद्या या वाणी के प्रयोग से विष दूर करने का वर्णन है ।(अथर्ववेद ४/६/२). पूर्वोक्त विधि से हस्तस्पर्श करने और आदेश देने से विष का प्रभाव नष्ट हो जाता है । अथर्ववेद में मन्त्रविद्या के तीव्र प्रयोग से सर्पविष को भी उतारने का वर्णन है ।(अथर्ववेद ५/१३/१).उग्र शब्द से संकेत है कि साधारण विधि से सर्प का विष दूर नहीं होता, अपितु विधि में विशेष उग्रता आवश्यक है। तभी यह प्रयोग सफल होगा । हृदय के रोगों, शारीरिक रोगों और विविध रोगों को मन्त्रविद्या या झाड़-फूंक से दूर करने का उल्लेख है ।(अथर्ववेद ५/३०/१से१७). अथववेद में विचारशक्ति, मनोबल, मन्त्रपाठ आदि के अतिरिक्त पीपल की शाखा या टहनी के द्वारा झाड़-फूंक से शत्रुनाशन, रोगनाशन और कुदृष्टि दोष नाशन का वर्णन है ।(अथर्ववेद ३/६/१से८). अथर्ववेद में जो और तिल के बौर के द्वारा झाड़-फूंक करने से आनुवंशिक रोगों को का उल्लेख है ।
(अथर्ववेद २/८/३)।
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