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बार्हस्पत्य संवत्सर गणना
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
हर मत से गणना एक ही आती है, पर वराहमिहिर को संवत् प्रवर्त्तक विक्रमादित्य का राज ज्योतिषी मानने के बदले उनके ६५० वर्ष बाद मानने के कारण गणना में भूल होती है।
१. बार्हस्पत्य संवत्सर २ प्रकार का होता है। गुरु (बृहस्पति) ग्रह १२ वर्ष में सूर्य की १ परिक्रमा करता है। मध्यम गुरु १ राशि जितने समय में पार करता है वह ३६१.०२६७२१ दिन (सूर्य सिद्धान्त, अध्याय १४) का गुरु वर्ष कहा जाता है। यह सौर वर्ष से ४.२३२ दिन छोटा है। अतः ८५+ ६५/२११ सौर वर्ष में ८६ + ६५/२११ बार्हस्पत्य वर्ष होते हैं। दक्षिण भारत में पैतामह सिद्धान्त के अनुसार सौर वर्ष को ही गुरु वर्ष कहा गया है। रामदीन पण्डित द्वारा संग्रहीत-बृहद्दैवज्ञरञ्जनम्, अध्याय ४-
नारदः-गृह्यते सौरमानेन प्रभवाद्यब्दलक्षणम्॥१॥ वेदाङ्ग ज्योतिषे-माघशुक्ल प्रपन्नस्य पौषकृष्ण समापिनः। इति चान्द्रमासेन प्रभवादि सम्वत्सराणां प्रवृत्तिरुक्ता। भानुघ्नभागादि समैरहोभिस्तस्य प्रवृत्तिः प्रथमं क्रियात्स्यात्। इत्यनेन क्वचित्सौरमानेनोक्ता। इति त्रिधा प्रभवादि षष्टिसम्वत्सराणां प्रवृत्तिर्दृश्यते, तत्र साधु पक्षो विचार्यते। अत्र प्रभवादि प्रवृत्तिः बार्हस्पत्यमानेनैव शोभना। तदाह सूर्य सिद्धान्ते-मानान्तरं तदा पूर्वक बार्हस्पत्य मानेनैव षष्ट्यब्द गणनोक्तेति तत्र। द्रष्टव्यम्-यथा-बार्हस्पत्येन षष्ट्यब्दं ज्ञेयं नान्यैस्तु नित्यशः॥
२॥ लघुवसिष्ठसिद्धान्ते-मध्यगत्या भभोगेन गुरोर्गौरव वत्सराः॥३॥
भास्कराचार्योऽपि-बृहस्पतेर्मध्यमराशिभोगं साम्वत्सरं सांहितिका वदन्ति॥ अनेन मध्यमगुरु राशिपूरण समय एव प्रभवादि षष्ट्यब्द प्रवृत्तिरिति सूचितम्। फलनिर्देशस्तु गुरुमानोत्पन्न प्रभवादि सम्वत्सराणामित्येवाह। वसिष्ठोऽपि-षष्ट्यब्दजन्मप्रभवादिकाना फलं च सर्वं गुरुमानतः स्यात्॥
४॥ इति वेदाङ्गज्योतिषवचनं तु ततोऽन्यविषयं यदाह गर्गः-माघशुक्लं समारभ्य चन्द्रार्कौ वासवर्क्षगौ। जीवशुक्लौ यदा स्यातां षष्ट्यब्दादिस्तदा भवेत्
॥५॥ श्रीपतिः-इयं हि षष्टिः परिवत्सराणां बृहस्पतेर्मध्यमराशि भोगात्। उदाहृता पूर्वमुनि प्रवीणैर्नियोजनीया गणना क्रमेण॥
६। तपसि खलु यदासावुद्गमं याति मासि प्रथमलवगतः सन् वासवे वासवेज्यः। निखिलजनहितार्थं वर्षवृन्दे वरिष्ठः प्रभव इति स नाम्ना जायतेब्दस्तदानीम्॥
७॥ तृतीयपक्षस्तु फलाभावादुपेक्ष्य इत्युपरम्यते। वराहः-आद्यं धनिष्ठांशमभिप्रवृत्तो माघे यदा यात्युदयं सुरेज्यः। षष्ट्यब्दपूर्वः प्रभवः स नाम्ना प्रपद्यते भूतहितस्तदाब्दः॥
८॥ पैतामह सिद्धान्ते-प्रमाथी प्रथमं वर्षं कल्पादौ ब्रह्मणा स्मृतम्। तदा हि षष्टिहृच्छाके शेषं चान्द्रोऽत्र वत्सरः
॥९॥ व्यावहारिकसंज्ञोऽयं कालः स्मृत्यादिकर्मसु। योज्यः सर्वत्र तत्रापि जैवो वा नर्मदोत्तरे॥
१०॥ आर्ष्टिषेणिः-स्मरेत्सर्वत्र कर्मादौ चान्द्रसम्वत्सरं तदा। नान्यं यस्माद्वत्सरादौ प्रवृत्तिस्तस्य कीर्तिता
॥११॥ मकरन्दे-द्विवेदपञ्चेन्दुविहीनशाके ग्रहाग्रहाणां दशयुक्त्रिभागः। लवा ग्रहाः स्वीयदिगंशहीना लिप्ता विलिप्ता रसकुञ्जराङ्गम्। तष्टानि खाङ्गैर्भवनानि भूमि युतानि शुक्लादिह वत्सरः स्यात्। भानुघ्नभागादिसमैरहोभिस्तस्य प्रवृत्तिः प्रथमं क्रियात्स्यात्
॥१३॥ अतः कलि आरम्भ (१७-२-३१०२ ई.पू. उज्जैन मध्य रात्रि) के समय सूर्य सिद्धान्त मत से विजय सम्वत्सर (२७ वां) चल रहा था। उसके ६ मास ११ दिन (१८८ दिन बाद, २९.५ दिन का चान्द्र मास) २५-८-३१०२ ई.पू. को जय संवत्सर आरम्भ हुआ तो परीक्षित को राज्य दे कर पाण्डव अभ्युदय के लिये हिमालय गये। इस दिन से युधिष्ठिर जयाभ्युदय शक आरम्भ हुआ। दक्षिण भारत के पितामह सिद्धान्त के अनुसार कलि आरम्भ से प्रमाथी (१३वां) संवत्सर आरम्भ हुआ। इसके १२ वर्ष पूर्व से प्रभव वर्ष का चक्र आरम्भ हुआ था। अतः मेक्सिको के मय पञ्चाङ्ग का आरम्भ १२ वर्ष पूर्व ३११४ ई.पू. से हुआ था। दोनों प्रकार के बार्हस्पत्य वर्ष चक्र ५१०० (८५x ६०) वर्ष में मिल जाते हैं अतः मय पञ्चाङ्ग ५१०० वर्ष का था।
वर्त्तमान विक्रम संवत् का आरम्भ २५ मार्च २०२० को हो रहा है। इस दिन प्रमादी (४७वां) सम्वत्सर है जो ११ मई २०२० तक चलेगा। उसके बाद आनन्द (४८ वां) संवत्सर आरम्भ होगा। अधिकांश पञ्चाङ्ग निर्माता विक्रम संवत् तथा बार्हस्पत्य संवत्सर का अन्तर भूल गये हैं तथा लिख रहे हैं कि विक्रम संवत् के साथ ही प्रमादी संवत्सर भी आरम्भ हो रहा है। केवल पण्डित मदनमोहन पाठक (लखनऊ राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के ज्योतिष विभागाध्यक्ष) के जगन्नाथ पञ्चाङ्ग में लिखा है कि इस वर्ष मेष संक्रान्ति (१३ अप्रैल, २०३९ बजे) प्रमादी के गत मास आदि ११/०३/०७/१२ दिन तथा भोग्य मास आदि ००/२६/५२/४८ हैं (कुल ३६० दिन मान कर गणना)। गणना की कठिनाई के कारण अधिकतर पञ्चाङ्ग पूरे वर्ष यही संवत्सर मान लेते हैं तथा सङ्कल्प में भी यही पढ़ा जाता है।
बार्हस्पत्य वर्ष को फल की दृष्टि से ५-५ वर्ष के १२ युगों में बांटा गया है। अन्य विभाजन है २०-२० वर्षों के ३ खण्ड-ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र विंशतिका।
ब्रह्मा-१. प्रभव, २. विभव, ३ शुक्ल, ४. प्रमोद, ५. प्रजापति, ६. अङ्गिरा, ७. श्रीमुख, ८. भाव, ९. युवा, १०. धाता, ११. ईश्वर, १२. बहुधान्य, १३. प्रमाथी, १४. विक्रम, १५. वृष, १६. चित्रभानु, १७. सुभानु, १८. तारण, १९. पार्थिव, २०. व्यय।
विष्णु-२१. सर्वजित्, २२. सर्वधारी, २३. विरोही, २४. विकृत, २५. खर, २६. नन्दन, २७. विजय, २८. जय, २९. मन्मथ, ३०. दुर्मुख, ३१. हेमलम्ब, ३२. विलम्ब, ३३. विकारी, ३४. शर्वरी, ३५. प्लव, ३६. शुभकृत्, ३७. शोभन, ३८. क्रोधी, ३९. विश्वावसु, ४०. पराभव।
रुद्र-४१. प्लवङ्ग, ४२. कीलक, ४३. सौम्य, ४४. साधारण, ४५. विरोधकृत्, ४६. परिधावी, ४७. प्रमादी, ४८. आनन्द, ४९. राक्षस, ५०. नल, ५१. पिङ्गल, ५२. कालयुक्त, ५३. सिद्धार्थ, ५४. रौद्र, ५५. दुर्मति, ५६. दुन्दुभि, ५७. रुधिरोद्गारी, ५८. रक्ताक्ष, ५९. क्रोधन, ६०. क्षय।
२. सूर्यसिद्धान्त गणना-अध्याय १-
ऐन्दवस्तिथिभिः तद्वत् सङ्क्रान्त्या सौर उच्यते। मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते॥१३॥
सुरासुराणामन्योऽन्यमहोरात्रं विपर्ययात्। षट् षष्टिसङ्गुणं दिव्यं वर्षमासुरमेव च॥१४॥
चान्द्र तिथियों (३०) के मास की तरह एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति तक का समय सौर मास है। १२ मासों का १ वर्ष है जिसे दिव्य दिन कहते हैं॥१३॥ देवों का दिन (उत्तरायण) असुरों की रात है। इस दिव्य अहोरात्र का ३६० गुणा दिव्य वर्ष है।
तद्द्वादश सहस्राणि चतुर्युगमुदाहृतम्। सूर्याब्दसंख्यया द्वित्रिसागरैरयुताहृतैः॥१५॥
सन्ध्यासन्ध्यांशसहितं विज्ञेयं तच्चतुर्युगम्। कृतादीनां व्यवस्थेयं धर्मपादव्यवस्थया॥१६॥
युगस्य दशमो भागः चतुस्त्रिद्व्येक सङ्गुणः। क्रमात् कृतयुगादीनां षष्ठांशः सन्ध्ययोः स्वकः॥१७॥
= १२,००० दिव्य वर्षों का चतुर्युग है जिसमें ४३,२०,००० सौर वर्ष हैं। इसमें धर्म के ४ चरणों की तरह ४ युग हैं-सत्य (कृत), त्रेता, द्वापर, कलि। युग वर्ष के १/१० में क्रमशः ४, ३, २, १ से गुणा करने पर इनका मान आता है। हर युग का १/६ भाग सन्ध्या तथा सन्ध्यांश है (आरम्भ और अन्त मिला कर)।
युगानां सप्ततिस्सैका मन्वन्तरमिहोच्यते। कृताब्द संख्या तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्तो जलप्लवः॥१८॥
ससन्ध्यस्ते मनवः कल्पे ज्ञेयाश्चतुर्दश। कृतप्रमाणः कल्पादौ सन्धिः पञ्चदश स्मृताः॥१९॥
= ७१ महायुग का १ मन्वन्तरहै, जिसके अन्त में सत्ययुग के बराबर सन्ध्या होती है जिसमें जलप्लव होता है। सन्धि सहित १४ मन्वन्तरों का १ कल्प है जिसके आरम्भ में सत्ययुग के बराबर सन्ध्या होती है। १ कल्प = १४ मन्वन्तर + १५ सत्ययुग सन्ध्या।
कल्पादस्माच्च मनवः षड् व्यतीतावस्ससन्धयः। वैवस्वतस्य च मनोः युगानां त्रिघनो गतः॥२२॥
अष्टाविंशाद् युगादस्माद् यातमेकं कृतं युगम्॥२३॥
कल्प के आरम्भ से सन्धि सहित ६ मनु बीत चुके हैं। ७वें वैवस्वत मन्वन्तर के २८ युग में सत्ययुग बीता है (सूर्य सिद्धान्त रचना के समय)।
ग्रहर्क्ष देवदैत्यादि सृजतोऽस्य चराचरम्। कृताद्रिवेदा दिव्याब्दाः शतघ्ना वेधसो गताः॥२४॥
= ग्रह, नक्षत्र, देव, दैत्य, आदि चराचर की सृष्टि में ब्रह्मा को ४७,४०० दिव्य वर्ष (१,७०,६४,००० सौर वर्ष लगे)।
युगे सूर्यज्ञशुक्राणां खचतुष्करदार्णवा॥ कुजार्किगुरुशीघ्राणां भगणाः पूर्वयायिनाम्॥॥२९॥
बृहस्पतेः खदस्राक्षिवेदषड्वह्नयस्तथा॥३१॥
= १ युग में सूर्य, बुध, शुक्र के ४३,२०,००० पूर्व गति से भगण (परिक्रमा) होते हैं, इतना ही मंगल, शनि, गुरु शीघ्र के भगण हैं॥२९॥ बृहस्पति के ३,६४,२२० भगण होते हैं॥३१॥
द्वादशघ्ना गुरोर्याता भगणा वर्तमानकैः। राशिभिस्सहिताश्शुद्धाष्षष्ट्या स्युर्विजयादयः॥५॥
= बृहस्पति के गत भगणों को १२ से गुणा कर वर्तमान भगण में जिस राशि में बृहस्पति हो उसकी क्रम संख्या को जोड़ दें। योग में ६० से भाग देने पर जो शेष बचे उस क्रम का संवत्सर विजय से आरम्भ हो कर चल रहा है।
गुरु का युग भगण ३,६४,२२०
कल्प आरम्भ से वर्ष-कल्प की आदि सन्ध्या (सत्ययुग) १७,२८,००० वर्ष
६ मन्वन्तर = ६ x ३०,६७,२०,००० = १,८४,०३,२०,०००
६ मन्वन्तर की ६ सन्ध्या = ६ x १७,२८,००० = १,०३,६८,०००
सातवें मन्वन्तर के २७ महायुग =२७ ४३,२०,००० = ११,६६,४०,०००
२८वें महायुग का सत्य युग = १७,२८,०००
त्रेता =१२,९६,०००
द्वापर = ८,६४,०००
कलियुग में बीते वर्ष विक्रम संवत् २०७७ + ३०४४ = ५,१२१ वर्ष
सृष्टि निर्माण में लगे वर्ष ४७४०० दिव्य वर्ष x ३६० =१,७०,६४,००० कम होंगे।
२०२० चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तक (सूक्ष्म रूप से मेष संक्रान्ति तक) वर्ष =१,९५,५८,८५,१२१ वर्ष
इतने वर्षों में गुरु का भगण निकालने के लिए ३६४२२० से गुणा कर युग वर्ष ४३,२०,००० से भाग देना पड़ेगा।
२०२० मेष संक्रान्ति तक गुरु भगण = १,९५,५८,८५,१२१ x ३,६४,२२०/४३,२०,००० = १६,४९,०१,०३६.७५२४५८३
पूर्ण भगण में मास संख्या = १६,४९,०१,०३६ १२ = १,९७,८८,१२,४३२
मेष संक्रान्ति (१३ अप्रैल, २०३९ बजे) को गुरु की राशि संख्या = १०
इसे जोड़ कर ६० से भाग देने पर (१,९७,८८,१२,४३२ + १०)/६० = ३,२९,८०,२०७, शेष २२
२७वें विजय से २२वां वर्ष ४८वां आनन्द है।
कलि आरम्भ से भी ५१२१ वर्ष के लिए गणना की जा सकती है, क्योंकि कलियुग का आरम्भ भी विजय वर्ष से हुआ था।
३. आर्यभटीय गणना-युगरविभगणा ख्युघ्रि, शशि चयगियिङुशुछ्लृ, कु ङिशिबुण्लृष्खृ प्राक्।
शनि ढुङ्विध्व, गुरु स्त्रिच्युभ, कुज भद्लिझ्नुखृ, भृगुबुधसौराः॥१/३॥
१ युग में पूर्व दिशा में भगण हैं-सूर्य ४३,२०,०००, चन्द्र, ५,७७,५३,३३६, पृथ्वी, १,५८,२२,३७,५००, शनि, १,४६,५६४, गुरु, ३६४,२२४, मंगल, २२,९६,८२४, बुध, शुक्र का सूर्य के बराबर है।
आर्यभट संख्या पद्धति-क से म तक १ से २५। य, र, ल, व, श, ष, स, ह= ३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८०, ९०, १००। मात्रा लगाने पर अ= इकाई, उसके बाद इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, ओ, औ-क्रमशः १००-१०० गुणा।
गुरुभगणा राशिगुणास्त्वाश्वयुजाद्या गुरोरब्दाः॥३/४॥
= गुरु भगण में १२ से गुणा करने पर अश्वयुक् (अश्विनी) से गुरुवर्ष होते हैं।
इसमें चान्द्रमास के नामों के अनुसार गुरु वर्षों के नाम हैं-आश्विन से आरम्भ कर।
६० वर्ष के चक्र के अनुसार इनकी गणना विजय से आरम्भ होगी।
आर्यभट के अनुसार युग में गुरु भगण सूर्य सिद्धान्त से ४ अधिक हैं। इनके अनुसार युगों के ४ भाग-सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि-के मान बराबर हैं। आर्यभट का मन्वन्तर ७२ युग का है तथा १ कल्प में १४ मन्वन्तर होने से १००८ युग (सूर्य सिद्धान्त के १००० युग) है।
युग आरम्भ से कलि आरम्भ तक वर्ष = ४३,२०,००० ३/४ = ३२,४०,०००
कलि आरम्भ से ५१२१ वर्ष मेष संक्रान्ति तक। इतने समय में गुरु भगण = (३२,४५,१२१ ३,६४,२२४)/४३,२०,००० = २,७३,५९९.७५७२
इसमें १२ से गुणा करने पर ३२,८३,१९७.०८६४ गुरु वर्ष होंगे। ६० से भाग देने पर ५४,७१९.९५१४४ चक्र ६० वर्ष के हुए। अन्तिम चक्र में ५७ वर्ष बीत कर ५८वां चल रहा है। यदि २ भगण (२४ राशि) के बाद गणना की जाय तो इसके अनुसार भी आनन्द संवत्सर होगा।
४. मानसागरी पद्धति-शकेन्द्रकालः पृथगाकृति (२२) घ्नः शशाङ्कनन्दाश्वियुगैः (४२९१) समेतः।
शराद्रिवस्विन्दु (१८७५) हृतः सलब्धः, षष्ट्याप्त शेषे प्रभवादयोऽब्दाः॥ (मानसागरी, १/१०)
= वर्तमान शकाब्द को २२ से गुणा कर गुणनफल में ४२९१ जोड़ कर १८७५ से भाग देने पर जो लब्धि हो, उसे अभीष्ट शकाब्द में जोड़ कर ६० का भाग देने से शेष प्रभव से गत संवत्सर होता है। शेष में १ जोड़ने से वर्तमान संवत्सर की संख्या होती है।
वर्तमान शक १९४२ (२०२० ईस्वी)
१९४२ x २२ = ४२७२४ + ४२९१ = ४७,०१५
१८७५ से भाग देने पर ४७,०१५/१८७५ = लब्धि २५, शेष १४०. लब्धि को शकाब्द १९४२ में जोड़ कर ६० का भाग दें १९४२ +२५ = १९६७/६० = लब्धि ३२, शेष ४७। गत संवत्सर प्रभव से ४७वां प्रमादी है। वर्तमान संवत्सर १ अधिक ४८वां आनन्द संवत्सर है।
५. वराहमिहिर की बृहत् संहिता के अनुसार गणना-अध्याय ८-
गतानि वर्षाणि शकेन्द्र कालाद्, हतानि रुद्रैर्गुणयेच्चतुर्भिः। नवाष्टपञ्चाष्ट युतानि कृत्वा विभाजयेच्छून्यशरागरामैः॥२०॥
लब्धेन युक्तं शकभूपकालं संशोध्य षष्ट्या विषयैर्विभज्य। युगानि नारायण पूर्वकाणि लब्धानि शेषाः क्रमशः समाः स्युः॥२१॥
=यहां शकेन्द्र या शकभूप का अर्थ है वह राजा जिसने शक (वर्ष गणना) आरम्भ की। किसी भी शक राजा ने अपनी काल गणना आरम्भ नहीं की थी। उनके यहां ईरान या सुमेरिया के कैलेण्डर चलते थे।
वराहमिहिर के समय जो शक चल रहा था उसमें २५२६ जोड़ने पर युधिष्ठिर शक (३१३८ ईपू से) होता था।
आसन् मघासु मुनयः शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ।
षड्द्विकपञ्चद्वियुतः (२५२६) शककालस्तस्य राज्ञस्य॥ (बृहत्संहिता, १३/३)
६१२ ई.पू (३१३८-२५२६) से अब तक २०१९ + ६१२ = २६३१ वर्ष चल रहा है (इसवी सन् में ० वर्ष नहीं है)
गुरु वर्ष की विधि-शक वर्ष में ४४ से गुणा कर ८५८९ जोड़ें। फल में ३७५० से भाग दें। लब्धि में शक वर्ष जोड़ दें। योग में ६० से भाग देने पर शेष वर्तमान चक्र में गुरु वर्ष की संख्या होती है। इसमें ५ से भाग देने पर नारायण आदि १२ युगों की संख्या आती है। प्रतियुग के ५ वर्षों में शेष संख्या के अनुसार वर्ष संख्या होगी।
६० वर्ष चक्र के १२ युग हैं-विष्णु, बृहस्पति, इन्द्र, अग्नि, त्वष्टा, अहिर्बुध्न्य, पितृ, विश्वेदेवा, सोम, इन्द्रानल, अश्विन्, भग। हर युग में वर्षों का क्रम है-संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर, इद्वत्सर (श्लोक, २३, २४)।
जब बृहस्पति धनिष्ठा प्रथम पाद में तथा सूर्य के साथ माघ मास में युति हो तो प्रभव वर्ष से चक्र आरम्भ होता है। (श्लोक, २८)
गणितीय आधार-आर्यभट के अनुसार युग में गुरु भगण = ३,६४,२४
इसमें १२ से गुणा करने पर गुरु वर्ष संख्या = ४३,७०,६८८ = ३७९४ x ११५२
युग में सौर वर्ष = ४३,२०,००० =३७५० x ११५२
अर्थात् ३७५० सौर वर्ष में ३७९४ गुरु वर्ष हैं।
१ सौर वर्ष = १ + ४४/३७५० गुरु वर्ष।
शक आरम्भ में कलियुग के २५२६-३६ = २४९० वर्ष बीते थे। कलियुग आरम्भ में विजय वर्ष था। २४९० वर्ष में २४९० (१ + ४४/३७५०) = २५१९.२१६ = २५२०वां वर्ष या ४२ चक्र पूरा हो चुका था तथा पुनः विजय वर्ष आरम्भ हो गया।
वर्तमान २६३१ शक में गुरुवर्ष संख्या = २६३१ (१ + ४४/३७५०) = २,६६१.८७०४
६० से भाग देने पर ४४ चक्र पूरा हो गया है। ४५ वें चक्र में २१.८७०४ वर्ष अर्थात् २२वां वर्ष चल रहा है। विजय से २२वां वर्ष आनन्द है।
यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि वराहमिहिर ६१२ ईपू का ही शक प्रयोग कर रहे थे।
६. वराहमिहिर का स्वयं कथन-उनके अनुसार उनका जन्म युधिष्ठिर शक ३०४२ चैत्र शुक्ल अष्टमी को हुआ था।
वराहमिहिर-कुतूहल मञ्जरी-
स्वस्ति श्रीनृप सूर्यसूनुज-शके याते द्वि-वेदा-म्बर-त्रै (३०४२) मानाब्दमिते त्वनेहसि जये वर्षे वसन्तादिके।
चैत्रे श्वेतदले शुभे वसुतिथावादित्यदासादभूद् वेदाङ्गे निपुणो वराहमिहिरो विप्रो रवेराशीर्भिः॥
बृहत् संहिता के टीकाकार उत्पल भट्ट के अनुसार इनका देहान्त ९० वर्ष की आयु में अर्थात् ५ ई.पू. में हुआ। इसके ८३ वर्ष बाद ७८ ई. में शालिवाहन शक आरम्भ हुआ, जिसका प्रयोग वराहमिहिर द्वारा असम्भव है, जो वर्त्तमान इतिहासकारों की कल्पना है।
७. पञ्चसिद्धान्तिका गणना-बृहत् संहिता में मकर राशि से सूर्य का उत्तरायण कहा है तथा उसी के अनुसार पञ्च सिद्धान्तिका में योग गणना लिखी है।
वराहमिहिर-बृहत् संहिता (३/१-२)-आश्लेषार्द्धाद्दक्षिणमुत्तरमयनं रवेर्धनिष्ठाद्यम्।
नूनं कदाचिदासीद्येनोक्तं पूर्वशास्त्रेषु॥१॥
साम्प्रतमयनं सवितुः कर्कटकाद्यं मृगादितश्चान्यत्। उक्ताभावो विकृतिः प्रत्यक्षपरीक्षणैर्व्यक्तिः॥२॥
= प्राचीन ग्रन्थों में आश्लेषा के मध्य (११३०२०’) से सूर्य का दक्षिणायन तथा धनिष्ठा से उत्तरायण कहा है। आजकल (वराहमिहिर काल मे) ये कर्क आरम्भ (९००) तथा मकर राशि के आरम्भ (२७००) से आरम्भ होते हैं जो प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। वर्त्तमान उपलब्ध पुराणों में उत्तरायण आदि का यही आरम्भ लिखा है जो प्रमाणित करता है कि ये विक्रमादित्य काल के संस्करण हैं। (विष्णु पुराण (२/८/६८-६९, श्रीमद् भागवत पुराण, ५/२१/३-४, अग्नि पुराण, १२२/१४-१६, ब्रह्माड पुराण, १/२/२१/१४४-१४६ आदि)
पञ्चसिद्धान्तिका, अध्याय ३ (पौलिश सिद्धान्त)-
अर्केन्दुयोगचक्रे वैधृतमुक्तं दशर्क्ष सहिते (तु) । यदि च(क्रं) व्यतिपातो वेला मृग्या (युतैः भोगैः॥२०॥
आश्लेषार्धादासीद्यदा निवृत्तिः किलोष्णकिरणस्य। युक्तमयनं तदाऽऽसीत् साम्प्रतमयनं पुनर्वसुतः॥२१॥
= सूर्य-चन्द्र के अंशों का योग ३६०० होने पर वैधृति योग होता है जब सूर्य-चन्द्र की क्रान्ति समान किन्तु विपरीत गोल में होती है। १० नक्षत्र (१३३०२०’) जोड़ने पर व्यतीपात योग होता है जब सूर्य चन्द्र की क्रान्ति समान होती है, पर वे क्रान्ति वृत्त के विपरीत भाग में होते हैं। यह तभी सम्भव है जब आश्लेषा के मध्य (११३०२०’) से दक्षिणायन आरम्भ हो जो अभी पुनर्वसु (कर्क राशि इसके चतुर्थ पाद से) से होता है।
पञ्चसिद्धान्तिका में गणना का आरम्भ विन्दु ४२७ शक (१८५ ई.पू.) लिया गया है-
पञ्चसिद्धान्तिका, अध्याय १-सप्ताश्विवेद (४२७) संख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ।
अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्य दिवसाद्यः॥८॥
= शक ४२७ के चैत्र शुक्ल १ से गणना होगी जब सूर्य यवनपुर अर्ध अस्त था तथा सौम्य दिवस था (सोम= चन्द्र पुत्र बुध का वार)। वराहमिहिर की मृत्यु के ८३ वर्ष बाद शालिवाहन शक में यह गणना बैठाने के लिये शङ्कर बालकृष्ण दीक्षित ने भौम = मंगलवार तथा थीबो ने सौम्य को सोमवार कर दिया। सूर्य सिद्धान्त में उज्जैन से ९०० पश्चिम रोमकपत्तन कहा गया है जिसे यवनपुर माना गया है। पर वराहमिहिर ने इसे उज्जैन (७५०४३’) से ७/२० घटी (४४०) पश्चिम तथा वाराणसी (८३०) से ९ घटी (५४०) पश्चिम कहा है (पञ्चसिद्धान्तिका, ३/१३)। अतः यह सिकन्दरिया (३१०१२’ पूर्व) के निकट (यहां से ००३१’ पूर्व) होना चाहिये।
नरसिंह राव के जगन्नाथ होरा सूत्र से गणना करने पर ६१२ ई.पू. तथा अन्य शकों से तिथि दी जाती है-
(१) ६१२ ई.पू. से १८-२-१८५ ई.पू. को चैत्र शुक्ल १ का आरम्भ १८ ता. को १०-१०-२४ बजे हुआ। उस दिन उज्जैन में ७-३६-३९ बजे सूर्योदय हुआ, अतः आरम्भ तिथि है-१७-२-१८५ ई.पू., बुधवार।
(२) ईरान राजा डेरियस का कल्पित ५५० ई.पू. (युधिष्ठिर के कलि २५ = ३०७६ ई.पू. में देहान्त से २५२६ की गणना, ईरान के राजा से मिलाने के लिये)-वास्तव में इसका राज्य ५२२-४८६ ई.पू. था।४२७ वर्ष बाद ५-३-१२४ ई.पू. को चैत्र शुक्ल १ का आरम्भ ६-४४-२४ बजे था जिसके कुछ समय बाद ६-५३-४४ बजे सूर्योदय हुआ। इस दिन शुक्रवार था।
(३) विक्रम सम्वत् ५७ ई.पू. से-यह सम्वत् है, शक नहीं। पर लोग शक और सम्वत् का अन्तर भूल चुके हैं, अतः इसमें भी गणना की जा रही है। ४२७ वर्ष बाद ४-३-३७१ ई. को २-१३-५४ बजे चैत्र शुक्ल १ आरम्भ हुआ, जिस दिन गुरुवार था।
(४) शालिवाहन शक ७८ ई. से-(क) गम्य ४२७ वर्ष में २०-२-५०५ को ८-८-०८ बजे चैत्र शुक्ल १ आरम्भ हुआ, अतः अगले दिन सोमवार से तिथि मानी जायेगी।
(ख) गत ४२७ वर्ष में ११-३-५०६ को ३-१४-५४ बजे शुक्रवार को चैत्र शुक्ल १ आरम्भ हुआ।
अतः ६१२ शक के अतिरिक्त अन्य किसी भी काल्पनिक या वास्तविक शक से गणना ठीक नहीं होती। अतः वराहमिहिर का ६१२ ई.पू. का शक ठीक है।
८. अंशुवर्मन् के लेख-विक्रमादित्य ने नेपाल राजा अंशुवर्मन् (१०१-३३ ई.पू.) काल में पशुपतिनाथ में ५७ ई.पू. चैत्र शुक्ल १ को विक्रम सम्वत् आरम्भ किया था। अंशुवर्मन के १३ लेख तिथि सहित हैं। विक्रम सम्वत् पूर्व की तिथियां ६१२ ई.पू. के चाप शक में हैं तथा सम्वत् आरम्भ होने के बाद की तिथि विक्रम सम्वत् में हैं। अंशुवर्मन के लेख इस वेबसाईट पर हैं-
http://indepigr.narod.ru/licchavi/content81.htm
(१) लेख ६९-सम्वत् ५३५ श्रावण शुक्ल ७ (यदि यह ४५६ ई.पू. के श्रीहर्ष शक में हो तो ७९ वर्ष होगा जो उनकी मृत्यु के ११२ वर्ष बाद का है)। अतः यहां चाप शक मे अनुसार ७७ ई.पू. का लेख है, विक्रम सम्वत् आरम्भ से २० वर्ष पूर्व का।
(२) लेख ७६-सवत् २९, ज्येष्ठ शुक्ल १० (इसके बाद की तिथियां विक्रम सम्वत् में)
(३) लेख ७७-सम्वत् ३०, ज्येष्ठ शुक्ल ६।
(४) लेख ७८-सम्वत् ३१ प्रथम (मास नाम लुप्त, अगले लेख के अनुसार पौष) पञ्चमी-इस वर्ष पौष में अधिक मास था।
(५) लेख ७९-सम्वत् ३१ द्वितीय पौष शुक्ल अष्टमी।
(६) लेख ८०-सम्वत् ३१, माघ शुक्ल १३।
(७) लेख ८१-सम्वत् ३२, आषाढ़ शुक्ल १३।
(८) लेख ८३-सम्वत् ३४-प्रथम पौष शुक्ल २-अधिक मास का वर्ष।
(९) लेख ८४-सम्वत् ३६-आषाढ़ शुक्ल १२।
(१०) लेख ८५-सम्वत् ३७, फाल्गुन शुक्ल ५।
(११) लेख ८६-सम्वत् ३९, वैशाख शुक्ल १०।
(१२) लेख ८७-सम्वत् ४३-व्यतीपात योग, ज्येष्ठ कृष्ण (तिथि लुप्त)।
(१३) लेख ८९-सम्वत् ४५-ज्येष्ठ शुक्ल (तिथि लुप्त)
९. अन्य उल्लेख-अंशुवर्मन के पुत्र जिष्णुगुप्त कुछ मास के लिए राजा (या मन्त्री) थे, पर वह शासन छोड़कर ज्योतिष अध्ययन में लग गये। वह वराहमिहिर के समकालीन थे जिसका उल्लेख वराहमिहिर ने बृहज्जातक में किया है।
आयुर्दाय जिष्णुगुप्तोऽपि चैवं देवस्वामी सिद्धसेनश्च चक्रे (बृहज्जातक, ७/७)
कालिदास ने भी स्वयं के अतिरिक्त वराहमिहिर तथा जिष्णुगुप्त का उल्लेख विक्रमादित्य के सभापण्डितों में किया है-ज्योतिर्विदाभरण, अध्याय, २२-
नृपसभायां पण्डितवर्गाः-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्यः।
अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमी॥८॥
= राजसभा के पण्डित-शङ्कु, वररुचि, मणि(त्थ), अङ्गुदत्त, जिष्णु(गुप्त), त्रिलोचन, हर, घटखर्पर तथा अमरसिंह जैसे विख्यात कवि राजा विक्रम की सभा में हैं जिसमें मैं (कालिदास) भी सभासद हूं।
ब्रह्मगुप्त सदा जिष्णुसुत कहे जाते थे। उन्होंने वराहमिहिर प्रयुक्त शक को चाप शक कहा है। चाहमान राजाओं को चपहानि भी कहा गया है।ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (२४/७-८)
श्रीचापवंशतिलके श्रीव्याघ्रमुखे नृपे शकनृपाणाम्। पञ्चाशत् संयुक्तैर्वर्षशतैः पञ्चभिरतीतैः॥
ब्राह्मः स्फुटसिद्धान्तः सज्जनगणितज्ञगोलवित् प्रीत्यै। त्रिंशद्वर्षेन कृतो जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व (१/६)-
एतस्मिन्नेवकाले तु कान्यकुब्जो द्विजोत्तमः। अर्बुदं शिखरं प्राप्य ब्रह्महोममथाकरोत्॥४५॥
वेदमन्त्रप्रभावाच्च जाताश्चत्वारि क्षत्रियाः। प्रमरस्सामवेदी च चपहानिर्यजुर्विदः॥४६॥
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