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भगवद्भक्ति और कर्मकाण्ड
(ब्रह्मलीन धर्मसम्राट् स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज)-
शास्त्रों के अनुसार भक्ति फल है और कर्मकाण्डका फल है- भगवान् के चरणारविन्दों में प्रीति । इसलिये स्वधर्मानुसार श्रौत – स्मार्त धर्म-कर्म का साङ्गोपाङ्ग ठीक ठीक अनुष्ठान करो। यदि उस धर्मानुष्ठान के द्वारा भगवत्पादारविन्दमें प्रीति न हुई तो वह कर्मानुष्ठान केवल श्रम है, केवल परिश्रम है अर्थात् स्वधर्मानुसार किया गया धर्म-कर्म का परम फल भगवान् के चरणारविन्द में प्रीतिरूप भगवद्भक्ति है-
धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः । नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता। मत्कथा श्रवणादौ वा श्रद्धा यावत्र जायते ॥ धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते । नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥ कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता । जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥
(श्रीमद्भा० १।२।८, ११/२०१९, १/२।९-१०)
फल होने पर भी आपको जानना चाहिये कि बिना साधन के फल नहीं होता। आम का फल चाहिये तो आम का पौधा लगाइये, तब फिर फल मिलेगा। द्वैधीभाव काष्ट के दो टुकड़े हो जाना क्या है-फल। किसका फल है ? छिन्दनक्रिया का । छिन्दनक्रिया क्या है ? कुठार का उद्यमन निपातन। कुठार को उठाओ, फिर चलाओ अर्थात् कुल्हाड़ी को बार-बार चलाओ, कुल्हाड़ी चलते-चलते वृक्ष दो टुकड़े हो जाय तो दो टुकड़े हो जाना फल है।
द्वैधीभाव फल के लिये करना क्या होगा? उद्यमन निपातन करना होगा। साधन गोचर-व्यापार से साध्य सिद्धि होती है। साधन है- कुठार कुठार गोचर व्यापार करते-करते वृक्ष का द्वैधीभावरूपी फल अपने-आप प्राप्त हो जायगा।
इस तरहसे भगवान् की भक्ति का मूल मन्त्र है-
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
(गीता १८। ४६)
इसका भाव यह है कि अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के अनन्तानन्त प्राणियों की जिन सर्वान्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान् के द्वारा प्रवृत्ति होती है- जितनी प्रवृत्ति है, हमारी, आपकी, सबकी भगवान की प्रेरणा से ही होती है। कहा जाता है कि – भगवान की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता अर्थात् संसार का पत्ता-पत्ता भगवान् की इच्छा से हिलता है।
सर्वान्तर्यामी ईश्वर, सर्वान्तर्यामीका अर्थ सबके भीतर रहकर सबका नियन्त्रण करनेवाला, सबका अन्तरात्मा है। सबको प्रेरणा देता है। पृथ्वी के भीतर, तेज के भीतर, वायु के भीतर और सारे चराचर संसारके भीतर वह सर्वान्तरात्मा सर्वान्तर्यामी रहता है और सबको नियन्त्रित करता है। इसलिये सर्वान्तर्यामीकी प्रेरणासे ही संसारमें सब व्यापार होता है। इसलिये कहा है –
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
सब प्राणियों की जिससे प्रवृत्ति है प्रवृत्ति अचेतनसे नहीं होती तो फिर किससे होती है? चेतन से । रथ की प्रवृत्ति होती है-घोड़े से, सारथि से। तो चेतन अधिष्ठित से अचेतन रथादि की प्रवृत्ति होती है। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश जितना सब प्रपञ्च है – जड, अचेतन, अनात्मा- इन सबकी प्रवृत्ति किससे होती है ? सर्वान्तर्यामी भगवान् से ।
इसलिये श्रुति कहती है-
यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुर्यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतम् ।
(बृहदारण्यकोपनिषद् ३।७।१५)
इस श्रुतिका भाव यह है कि जो सब भूतोंमें रहता है, सर्वभूतोंका नियन्त्रण करता है, सर्वभूत जिसको नहीं जानते, वह सर्वान्तर्यामी भगवान् घट-घटवासी हममें, तुममें, जगत में, सबमें रहकर सबका नियन्त्रण करता है। सबको प्रेरणा करता है। वह भगवान् सर्वान्तर्यामी है। अतः उस अन्तर्यामीकी पूजा करो। कैसे पूजा करें?
‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥’ अपना सन्ध्या-वन्दन ठीक-ठीक करो और अन्त में कह दो—’श्रीनारायणार्पणमस्तु ।’ सन्ध्या-वन्दन करो और भगवान् के चरणों में अर्पण कर दो। अतिथि का सत्कार करो, भगवान के चरणों में अर्पण कर दो। माता-पिता की सेवा करो, भगवान के चरणों में अर्पण कर दो। माताएँ, बहनें, अपने घर का काम करें, चूल्हा-चौका करें और भगवान के चरणों में अर्पण कर दें। पति की सेवा करें, सास-ससुर की सेवा करें, बालकों का लालन-पालन करें और सारे पुण्य को श्रीकृष्ण को अर्पण कर दें। यह सब भगवान के अर्पण करने से पुण्य बन जायगा। संसार का काम यों भी करोगी और यों भी करोगी। संसार में रहकर चूल्हे-चौके से पिण्ड तो छूटेगा नहीं, रहना पड़ेगा इन्हीं में, रहो, बड़ी खुशी से रहो। आनन्द से रहो। खूब सेवा करो। बच्चों को अच्छी शिक्षा दो। अपने धर्म का साङ्गोपाङ्ग पालन करो। अन्त में सब भगवान के चरणों में अर्पण कर दो। पूजा बन जायगी, ये सब भगवान् की पूजा बन गयी। इसलिये कहा है-‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥’
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