भक्त से क्या भोग चाहते हैं ? भगवान्…
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- सम्प्रति भोजन से निवृत्त होकर आसनस्थ हुआ हूँ । विचार कर रहा हूँ- भगवान् को भोजन चाहिये। भगवान् को भोजन में क्या चाहिये ? जीव के पास क्या है, जो भगवान् को सद्यः दें ? भोजन में जीव प्रमुखतः दो वस्तुएँ लेता है। ये वस्तुएँ हैं-दालभात / रोटी शाक/ सत्तू चटनी/चाय नमकीन । अर्थात् एक सरस एक नौरस । जीव का मन और बुद्धि भगवान् का प्रिय भोज्य हैं। मन सरस है, बुद्धि शुष्क है। भगवान् अपनी भूख मिटाने के लिये जीव से यही दो चाहते हैं। भगवान् स्वयं कहते हैं…
“मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥’
( गीता १२ । ८)
धनधान्यादि का अर्जन करने वाले अर्जुन नाम के जीव से भगवान् कहते हैं- हे जीव । तू अपना मन मुझमें लगा, अपनी बुद्धि भी मुझमें लगा। ऐसा करने पर जो परिणाम होगा उसके विषय में भगवान कहते हैं- हे जीव । ऐसा करने से तू मुझमें निवास करेगा। अर्थात् मैं तुझे अपनी मन-बुद्धि दे दूंगा तू मुझ सा हो जायेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं। यह सत्य वाक् है।
मन = दाल।बुद्धि=भात।मन=रसदार सब्जी। बुद्धि= रोटी। अतः मैं अपना मन बुद्धि ईश को देकर आश्वास्त हो रहा हूँ।
भगवान् का प्रिय बनना है तो ऐसा करना होगा। भगवान् कहते हैं…
‘मय्यर्पितमनोबुद्धिः यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। “
( गीता १२ । १४ )
मुझ परमात्मा में अपनी मनबुद्धि अर्पित करने वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।
भगवान् को मन देने का अर्थ है-मन में भगवद् विषयक भावों का उठते रहना, उनके गुण विस्तार का स्मरण करते रहना। भगवान् को बुद्धि देने का अर्थ है-बुद्धि का सदा आस्तिक बने रहना, भगवान् के नामों को उनके व्यापक सन्दर्भ में जानना। भगवान् में मन बुद्धि अर्पित करना कठिन है। फिर यह किया कैसे जाय ? एक सरल उपाय है वह उपाय है-सत्संग प्रश्न उठता है, सत् क्या है ? जिस व्यक्ति कृति सृष्टि में मन को शान्ति मिले, मन अपनी स्वाभाविक चपलता छोड़ दे, वह सत् है तथा जिस के सम्पर्क से बुद्धि कुतर्क करना छोड़ दे, अपने खण्डनात्मक स्वरूप का त्याग कर सन्देह रहित हो जाय, वही सत् है। ऐसे सत् का संग करना, इसके सान्निध्य में रहना, इस से लाभ उठाना ही सत्संग है। जिस व्यक्ति को देखने से, उसके पास बैठने से मन को शान्ति मिले तथा बुद्धि को तृप्ति मिले, ऐसा व्यक्ति सन्त है। ऐसे सन्त के सान्निध्य में रहना, सतत सम्पर्क बनाये रखना ही सत्संग है।
मन्दिर में जाना सत्संग है। मन्दिर क्या है ? जिसमें मन रहे, जिससे मन बँधा रहे, जो मन को अच्छा लगे, जहाँ मन एकाम हो । मन्दिर अनेकों प्रकार के हैं। इन्हें जानना चाहिये। जैसे-
१. अस्थिमासमय मन्दिर – जीव का यह देह ही यह मन्दिर है। मन इसमें निवास करता है। यह सुन्दर, स्वस्थ, पुष्ट हो तो मन इसमें प्रसन्न रहता हुआ अपने स्वरूप में स्थित होता है- शान्त रहता है।
२. ईंट पत्थर मय मन्दिर – यह मनुष्यकृत मन्दिर है। इसमें मनुष्य रहता है। यह उसका घर है। इसमें भीड़भाड़ न हो तो मन शांति पाता है। इसमें प्रस्तर की प्रतिमा हो अथवा आर्षमन्थ (वेद, उपनिषद्, पुराण, महाभारत) हो। यहाँ अध्ययन मनन चिन्तन पूजन ध्यान जो कुछ भी किया जाय, वह सत्संग है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -: