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भक्ति से सिद्धि कैसे प्राप्त हो ?
स्वामी श्री अखंडानंद सरस्वती जी –
mysticpower – सिद्धो भवति’- भक्त सिद्धि के लिए प्रयास इच्छा या संकल्प नहीं करता । उसमें जो चमत्कार प्रकट होते हैं उन्हें तो भगवान् भेजते हैं । सिद्धि है क्या ? मनुष्य का बिना यन्त्र की सहायता के आकाश में उड़ना क्या सिद्धि है ? किन्तु मच्छर, मक्खी, पक्षी तो आकाश में उड़ते ही हैं । उनकी समता यदि मनुष्य ने कर ली तो क्या विशेष बात हुई !
परमहंस रामकृष्ण से किसीने पूछा-‘सिद्धि का लक्षण क्या है?”
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परमहंस देव बोले- ‘चावल पहले कड़ा रहता है किन्तु सिद्ध होने पर नरम हो जाता है । न उसमें कोई कणिका रहे और न वह गल ही जाय ।’
तात्पर्य यह कि व्यक्ति तो बना रहे किन्तु अभिमान का कोई कण शेष न रहे। यह भक्त की सिद्धि है । उसमें विद्या का, बल का, जाति का, पद का, संयम का, धनका – किसी भी प्रकारका कोई अभिमान नहीं रह जाता।
सिद्ध का अर्थ है कोमल । भक्त बाहर- भीतर से अत्यन्त कोमल होता है-
संतहृदय नवनीत समाना।
कहा कबिन पै कहा न जाना ॥
निज दुख दाह द्रवइ नवनीता।
पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥
( रामचरितमानस )
‘अमृतो भवति’ – अमृतत्व की प्राप्ति होती है तत्त्वज्ञान से । भगवान् कहते हैं–
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं
तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्था ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
‘उन्हीं ( अपने भक्तों ) पर कृपा करने के लिए मैं उनके अज्ञा- नान्धकारको उनके हृदय में स्थित होकर ज्योतिर्मय ज्ञान दीपक से नष्ट कर देता हूँ ।’
भगवान् स्वयं ज्ञान की मशाल लेकर आगे चलते हैं । जीवन्- मुक्ति में बाधा तो उन्हें पड़ती है जो विषयलालसा वाले हैं । जो भगवान् के ही दिव्य रूप-सौन्दर्य- माधुर्य में तृप्त हैं उन्हें भला बाह्य विषयों से तृप्ति की क्या आवश्यकता ! उनकी तृप्ति तो अखण्ड और निर्वाध है |
‘अमृतो भवति’ – अमृत पीने से मनुष्य अमर हो जाता है । किन्तु भक्त इस स्थूल शरीर को अमर नहीं बनाना चाहता । यह ठीक है कि शरीर रहेगा तो उससे प्रभु की सेवा करेंगे; किन्तु एक शरीर से ही सेवा करने का आग्रह क्यों किया जाय ??
मयूर, कोकिल, गिलहरी आदि नाना प्रकार के रूप धारण करके प्रभु को रिझाने में भक्त को तो आनन्द ही है । कोई पतिव्रता नारी यह आग्रह क्यों करे कि उसकी एक ही साड़ी अजर-अमर हो जाय । नयी-नयी साड़ी, नया-नया भेष बदलकर स्वामी को सन्तुष्ट किया जायगा !
रहीम कवि का एक श्लोक है जिसका भाव यह है –
‘स्वामी ! मैंने बार-बार वेश बदलकर आपको चौरासी लाख नाटक दिखलाये । यदि मेरे इस नाटय से आप प्रसन्न हुए हैं तो मैं जो माँगता हूँ वह पुरस्कार मुझे प्रदान करें और यदि आप इससे प्रसन्न नहीं हुए तो मुझे मना कर दें तुझे नाटक करना नहीं आता । अतः अब फिर ऐसी भूमिकामें मेरे सम्मुख मत आना !’
अमृतो भवति’ – भक्त अमर नहीं होता, स्वयं अमृत बन जाता है । वह इतना मधुर हो जाता है कि जो उसके सम्पर्क में आते हैं। उन्हें भी माधुर्य तथा आनन्दको प्राप्ति होती है। उसके शब्द प्रभु के शब्द हो जाते हैं । उसका स्पर्श प्रभु का स्पर्श होता है। उससे लोगों को अमृततत्त्व उपलब्ध होता है । वह किसीको दुःख नहीं देता, सबको प्यार देता है ।
प्रियप्राया वृत्तिर्विनयमधुरो वाचि नियमः प्रकृत्या कल्याणी मतिरनवगीतः परिचयः ।
पुरो वा पश्चाद् वा सविधमविपर्यासितरसं रहस्यं साधूनां निरुपधि विशुद्ध विजयते ॥
‘प्रायः सबके प्रति प्रिय लगनेवाला आचरण, विनम्रता से मधुर संयमित वाणी स्वभाव से ही सबका मंगल चाहने वाली बुद्धि, अपना गुण-गौरव छिपा रखने की प्रवृत्ति, कोई सामने हो या पीछे, एक-सा भाव – प्रेममें कोई विकृति नहीं, यह साधुजनोंका उपाधिहीन विशुद्ध स्वभाव ही होता है ।’
एक व्यक्ति से प्यार करना तो संसारी पुरुष का स्वभाव होता है । अग्नि प्रज्वलित है, जो चाहे ताप ले । चन्द्र उदित हो रहा है, जिसको इच्छा हो, उसकी ज्योत्स्ना का आनन्द ले । कमल फूल रहा है, जो समीप आवे वह सौरभ पावे। इसी प्रकार संतों- भक्तों के जीवन में विनय का माधुर्य होता है, किसी को नीचा दिखाने- की इच्छा कभी नहीं होती। वे वाणी मधुर तथा संयमित बोलते हैं।
सबका कल्याण चाहना उनका स्वभाव बन जाता है। समीप के लोग उनसे आनन्द पाते हैं। उनसे आज मिलो या कल, उनकी निन्दा करो या स्तुति, उन्हें हानि पहुँचाओ या लाभ, उनसे सेवा करने मिलो या पीड़ा देने, चाहे जिस निमित्तसे उनसे मिलो -उनके हृदयका रस उलटता नहीं, मधुर ही बना रहता है।
चीनी को चाहे स्वच्छ जल में घोलो या गन्दे जलमें, वह मीठी ही रहती है । भक्त- के पास कड़वाहट है ही नहीं । प्रभु को प्रसन्न करने के लिए उसने अपने हृदय में माधुर्यका कोष भर रखा है-
साधु ते होइ न कारज हानी ।
‘तृप्तो भवति’ – सच्चा अमृत भक्त को प्राप्त है अतः सच्ची तृप्ति भी उसी को प्राप्त है । संसार के सभी प्राणियों के हृदयमें अतृप्ति की – तृष्णा की आग लगी है । सब उसी अग्नि को बुझाने के लिये दौड़ रहे हैं। किन्तु विषयोंका संग्रह करके अबतक विश्व में किसी को तृप्ति नहीं मिली, हिरण्यकशिपु तथा रावण-जैसे त्रिभुवनजयी लोगों को भी नहीं ।
“नारद भक्ति सूत्र पुस्तक का भाग “
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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Jay shri Ram…bhakti ho to Hanuman ji jaisi.