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चैतन्य तत्त्व परम् सिद्धि
श्री सुशील जालान
Mystic Power-चैतन्य परम् तत्त्व सिद्धि है, ब्रह्म-आत्मा धारण करता है इसे। अंगुष्ठ प्रमाण है हृदयस्थ आत्मा का ज्योति स्वरूप में, जब अनाहत चक्र जाग्रत होता है, सुषुम्ना नाड़ी में, सुषुप्तावस्था में, बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम के अभ्यास से।
यही ज्योति-आत्मा जब ब्रह्मबोध करता है सहस्रार में, तब इसकी उपाधि होती है, ब्रह्मात्मा। ब्रह्मात्मा में चैतन्य तत्त्व प्रकट होता है सहस्रार में जिसके अंतर्गत सभी सिद्धियां व्याप्त होती हैं और सक्षम ध्यान-योगी पुरुष उन्हें प्रकट करने की, उपभोग करने की, सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। चैतन्य ब्रह्मात्मा भी हृदयाकाश में स्थित रहता है।
देवी उपनिषद्, अथर्वशीर्ष, कहता है,
“अहं ब्रह्मस्वरूपिणी।
मत्त: प्रकृति पुरुषात्मकं जगत्।
शून्य च अशून्यं च।”
अर्थात्,
– देवी स्वयं ब्रह्म स्वरूप है, स्वयं की इच्छा से प्रकृति-पुरुष रूपी जगत् उत्पन्न करती है, शून्य (निर्गुण ब्रह्म) भी है और अशून्य (सगुण ब्रह्म) भी है।
इस सगुण ब्रह्म का प्राकट्य चैतन्य-तत्त्व से होता है, जिसे सक्षम ध्यान-योगी धारण करता है निर्गुण ब्रह्मबोध के उपरांत।
यह चित्त ही क्षेत्र है और इसका ज्ञाता है क्षेत्रज्ञ। श्रीमद्भगवद्गीता (7/4, 5) कहती है,
“भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं यान्ति मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥”
अर्थात्,
– भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, यह आठ अवयव हैं अपरा प्रकृति के, जो पंचमहाभूतों और जीवभावों में विभक्त हैं। इन्हें भगवान् श्रीकृष्ण अपनी परा शक्ति से जगत् रूप में धारण करते हैं।
श्री भगवान् ब्रह्मात्मा हैं, जिनकी पराशक्ति वृत्तिविहीन चित्त में प्रकट होती है चैतन्यतत्त्व परम् सिद्धि के अंतर्गत।
एक-अद्वैत,
वृत्तिविहीन निर्मल चित्त निर्गुण आत्मा है, प्रकृतिपुरुष का युग्म अर्धनारीश्वर है, निर्गुण-सगुण “एकोऽहं द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति” ही है। चैतन्य ब्रह्मात्मा एक ही है, जहां न कोई भूतकाल है, न ही कोई भविष्यत् काल। मात्र कल्पना है, जिससे कल्पांत तक जगत् का सृजन, संचालन तथा लोप किया जाता है।
महर्षि पतंजलि का योग सूत्र कहता है,
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:”
अर्थात्,
योग का लक्ष्य है चित्त में स्थित सभी वृत्तियों का निरोध करना।
इसका प्रतिफल होगा, संस्कार प्रकट-लोप करना, किसी भी जीव में, कहीं भी, कभी भी।
द्वि-दिव्य,
दिव्य दर्शन, दिव्य श्रवण, किसी भी स्थान, काल व पात्र का।
यह सिद्धि महर्षि वेदव्यास ने प्रदान की थी धृतराष्ट्र के सारथि संजय को, महाभारत युद्ध का दिव्य दर्शन तथा दिव्य श्रवण कर धृतराष्ट्र के लिए वर्णन करने हेतु।
त्रि-गुण,
सत्त्व, रज, तम,
त्रिगुणात्मिका प्रकृति चैतन्य ब्रह्मात्मा के अधीन है, किसी भी जीव में, कहीं भी, कभी भी, किसी भी गुण विशेष का आवेश करना, बढा़ना – घटाना आदि।
अंत:करण चतुष्टय,
मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्त,
अंत:करण जीवभाव है, चैतन्य ब्रह्मात्मा के अधीन है। वृत्तियों का सृजन/लोप आदि जीवों में करना अभिप्राय है।
पंच-महाभूत,
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश,
पंचमहाभूत भी चैतन्य ब्रह्मात्मा के अधीन हैं। इन्हें प्रकट/लोप करना, बढ़ाना/घटाना, आदि।
पंच-तन्मात्रिकाएं,
स्वर, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध,
भगवती कामेश्वरी राजराजेश्वरी महात्रिपुर सुन्दरी ईक्षु धारण करती हैं, जिनमें से कामदेव के पांच बाण, तन्मात्राएं, प्रकट होती हैं। यह ब्रह्मात्मा का विलास है चैतन्य तत्त्व के उपयोग से। जीव में प्रकट/लोप करना, बढ़ाना/घटाना।
षट्-कर्म अभिचार,
मारणं, मोहनं, वश्यं, उच्चाटनं, स्तंभनं तथा विद्वेषणं,
उपरोक्त सभी अभिचार कर्म, विशेष रूप से ऋण, ऋपु, रोग से ग्रस्त करना/मुक्ति प्रदान करना एवं प्रतिअभिचार कर्म भी चैतन्य ब्रह्मात्मा के अधिकार क्षेत्र में हैं।
सप्त-रस,
मीठा, नमकीन, खट्टा, कड़ुआ, तीखा, कसैला एवं खारा,
– इन्हें किसी भी खाद्य पदार्थ में प्रकट/लोप करना, बढ़ाना/घटाना चैतन्य ब्रह्मात्मा के लिए सुलभ है।
सप्त-ऋषि,
ब्रह्मा के आदि मानस पुत्र,
अत्रि, वशिष्ठ, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह एवं क्रतु,
इन ऋषियों के गुणों का एवं प्रतिगुणों का उपयोग करना, जैसे प्रत्यंगिरा, प्रतिक्रतु आदि, चैतन्य ब्रह्मात्मा के स्वामित्व में है।
अष्ट-महासिद्धियां,
अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व और प्राकाम्य,
चैतन्य ब्रह्मात्मा इनका उपयोग करने में सक्षम है।
नव-निधियां,
मकर, नील, पद्म, महापद्म, शंख, मुकुंद, कच्छप, नंद तथा खर्व,
चैतन्य ब्रह्मात्मा का विलास है नव निधियों में।
द्वादश ज्योतिर्लिंग, सोलह ललित कलाएं, षोडश मात्रिकाएं, उन्चास मरुतगण, इक्यावन शक्तिपीठ, चौंसठ योगिनियां तथा अन्यान्य ब्रह्मबल व ब्रह्मशाक्तियां, चौरासी लाख योनियां, तैंतीस करोड़ देवी-देवता आदि सभी वैदिक वांग्मय के आयाम, चैतन्य ब्रह्मात्मा के ही कल्पित अवयव हैं।
चैतन्य ब्रह्मात्मा स्वामी है कल्प का, ब्रह्मा का, विष्णु का, रूद्र का। यह ही है,
“एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति”, ऋग्वेद (1.164.46),
में वर्णित एकमात्र सत्, जिसे विभिन्न पंथ संप्रदाय परम् ब्रह्म, परम् शिव, परम् आत्मा, परम् पुरुष आदि संज्ञाओं से, उपाधियों से, विभूषित करते हैं।
चैतन्य ब्रह्मात्मा स्वरूप निष्काम भगवान् श्रीराम हैं, भगवान् श्रीकृष्ण हैं। भगवान् श्रीराम स्वधाम साकेत में ब्रह्मेश्वरी श्रीसीता सहित अनन्त काल के लिए स्थित हैं। भगवान् श्रीकृष्ण स्वधाम गोलोक में श्रीराधा सहित कालातीत अनंत में स्थित हैं।
तानसेन और बैजूबावरा के गुरु स्वामी हरिदास के उत्कट भक्ति-योग से प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण भूलोक पर अवतरित हुए हैं, आज के वृन्दावन धाम में, बांके बिहारी स्वरूप में, विश्व के, भक्तों के, कल्याण हेतु।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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