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श्रुतियों में चन्द्रमा की उत्पत्ति
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)
mysticpower-चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में पौराणिक और वैज्ञानिक विविध विचार प्राप्त होते हैं। पौराणिक कथाओं में चन्द्रमा की उत्पत्ति देवासुर संग्राम के समय समुद्र मंथन से हुई। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार, चन्द्रमा, सूर्य या सूर्य जैसे अन्य किसी शक्तिशाली नक्षत्र के पृथ्वी के समीप से गुजरने पर, उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति से पृथ्वी का एक अंश टूट कर, पृथ्वी से अलग होकर, पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के कारण, उसकी परिक्रमा करने लगा। वही चन्द्रमा है, आओ देखें वेदों में और वैदिक श्रुतिओं में चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में क्या लिखा है। इस सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण की निम्नलिखित आख्यायिका अत्यन्त विचारणीय है। देखें यह आख्यायिका—
वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु’ ( पाणिनीय धातु पाठ अदादि ४१ ।) धातु से ‘वेव’ शब्द बना है। तस्माद् वेव अथवा तस्य वेव इस प्रकार तत्पुरुष समास कर तद्वेव शब्द बना है । अर्थात् उस सूर्य की विद्युत तरंगात्मक किरणों की गति तीव्रता, तेजस्विता एवं व्याप्ति से उत्पन्न और प्रक्षिप्त वृत्त ‘खलु’- निश्चय ही, ‘हत:’ मारा गया जैसा हुआ। वह सूर्य से अलग फेंका हुआ ‘दृतिर्निष्पीतः ‘ जल से अलग किये हुए मत्स्य मछली के जैसा एवं संक्लीन: शिश्ये अन्तर्लीन मूच्छित के समान सोता हुआ सा था। अथवा यथा निर्धूतसक्तुर्भवा चमड़े से ढके हुए सत्तू के पिण्ड के जैसा, एवं संव्लीन: शिश्ये- इस प्रकार सम्यक् रूप से अपने में लीन सोया हुआ सा था।
तमिन्द्रोऽभ्यादुद्राव हनिष्यन् – उस वृत्त को सूर्य ने मारने की इच्छा से सब प्रकार से अपनी शक्तियों से आवृत्त कर लिया। तब स होचाव उस वृत्र ने कहा- मा नु मे प्रहासी: तुम निश्चय ही मुझको मत मारो। तदेतसियदहम् – निश्चय ही जो यह मैं हूँ, वह तुम ही हो, तुमसे ही मेरी उत्पत्ति होने के कारण, तुम्हारा ही अंश होने के कारण, तुम ही मैं हूँ। व्येव मा कुरु- मेरा विभाग मत करो। मामुया भूवम्’ इति मैं इस काया से अलग न होऊँ। स वै ‘मेऽन्नमेधि’ इति- तब सूर्य ने कहा कि मेरे लिए अन्न वनस्पतियाँ एवं प्राणी रूप जीवन बढ़ाओ। ‘तथा’ इति तब उस वृत्र ने कहा ऐसा ही हो। इन्द्रः तं वृत्रं द्वेधाऽन्वभिनत्- तब उस सूर्य रूप इन्द्र ने उस वृत्र को दो अनुकूल भागों में अलग-अलग कर दिया। तस्य यत् सौम्यं न्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकार उसका जो सौम्य अलग किया अंश था, उसको चन्द्रमा किया। अथ यदस्यासुर्यमासतेनेमाः प्रजाः उदरेणाविध्यत् अब जो इसका आसुर्य विशाल बड़ा भाग था, उस उदरात्मक भाग के द्वारा यह प्रजा भलीभाँति उत्पन्न हुई। तस्मादाहुः- वृत्र एव तर्ह्यन्नाद आसीद्-इसलिए कहते हैं कि वृत्र ही अन्न का उत्पादन करने वाला और अत्र का भक्षण करने वाला अन्नाद हुआ। वृत्र एतर्हि’ इति निश्चय ही यह चन्द्र एवं पृथ्वी ही वृत्र है। इदं यदसौ आपूर्यते- अस्मादेवैतल्लोकादादाप्यायते – यह जो चन्द्रमा घटता है और पूर्ण होता है, इस पृथ्वी लोक के द्वारा ही होता है।
मीमांसा – चन्द्रमा का जो भाग पृथ्वी की ओर है पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए चन्द्रमा का वह भाग सदैव पृथ्वी की ही ओर रहता है, इसलिए श्रुति ने अनुकूल दो भाग कहा है। पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए चन्द्रमा का पृथ्वी की तरफ का भाग जितने अंश में सूर्य से प्रकाशित होने से दिखता है, उतने अंश में चन्द्रमा क्रमशः घटता और बढ़ता है। चूँकि चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की की जा रही अनुकूल परिक्रमा के कारण ही ऐसा दर्शन होता है। इसलिए श्रुति ने कहा कि वह इस पृथ्वी लोक के द्वारा ही होता है।
अथ यदिमाः प्रजाः, अशनमिच्छन्ते- अब जो यह प्रजा अशन भोजन की इच्छा करती है। अस्मा एवैतद् वृत्रायोदराय बलिं हरन्ति- वह इस वृत्र का जो उदरात्मक भाग पृथ्वी है, उससे ही उदर के लिए आहार का आहरण करते हैं। स यो हैवमेतं वृत्रमन्नादं वेद- अन्नादो हैव भवति- वह इस पृथ्वी और चन्द्रमा रूप वृत्र को अन्न का उत्पादन करने वाला और पचाने वाला जानते है, निश्चय ही वे अन्न का उत्पादन करने वाले और अन्न का उपभोग करने वाले होते हैं।
तद्वा एष एवेन्द्रो य एष तपति- वह निश्चय से यह ही इन्द्र है, जो यह तपता है, अर्थात् यह सूर्य ही इन्द्र है। अथैष एव वृत्रो यच्चन्द्रमाः – और यह ही वृत्र है जो चन्द्रमा है। सोऽस्यैव भ्रातृव्य जन्मेव – इसलिए वह इसका भ्रातृव्य जन्मा ही है, तस्माद् – यद्यपि पुरा दूरमिवोदितः – इसलिए यद्यपि यह पहले दूर उदित हुआ दिखता है, अथैवमेतां रात्रिमुपैव न्याप्लवते किन्तु तेजी से चलता हुआ यह अमावस्या की रात्रि को भलीभाँति इसी को प्राप्त हो जाता है, और नहीं दिखाई पड़ता । सोऽस्य व्यात्तमापद्यते उस अमावस्या को वह चन्द्रमा इस सूर्य के चारो तरफ फैले हुए किरणात्मक मुख में ही समा जाता है।
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