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दलित और मुस्लिम एकता की जमीनी हकीकत कितनी ?
डॉ. निशांत सिंह –
Mystic Power – आजकल देश में दलित राजनीति की चर्चा जोरों पर है। इसका मुख्य कारण नेताओं द्वारा दलितों का हित करना नहीं अपितु उन्हें एक वोट बैंक के रूप में देखना हैं। इसीलिए हर राजनीतिक पार्टी दलितों को लुभाने की कोशिश करती दिखती है।अपने आपको सेक्युलर कहलाने वाले कुछ नेताओं ने एक नया जुमला उछाला है। यह जुमला है दलित मुस्लिम एकता। इन नेताओं ने यह सोचा कि दलितों और मुस्लिमों के वोट बैंक को संयुक्त कर दे तो 35 से 50 प्रतिशत वोट बैंक आसानी से बन जायेगाऔर उनकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी। जबकि सत्य विपरीत है।दलितों और मुस्लिमों का वोट बैंक बनना असंभव हैं।क्योंकि जमीनी स्तर पर दलित हिन्दू समाज सदियों से मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा प्रताड़ित होता आया है।
1.मुसलमानों ने दलितों को मैला ढोने के लिए बाध्य किया।
भारत देश में मैला ढोने की कुप्रथा कभी नहीं थी। मुस्लिम समाज में बुर्के का प्रचलन था। इसलिए घरों से शौच उठाने के लिए हिंदुओं विशेष रूप से दलितों को मैला ढोने के लिए बाधित किया गया। जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था। वह इस अत्याचार से छूट जाता था।धर्म स्वाभिमानी दलित हिंदुओं ने अमानवीय अत्याचार के रूप में मैला ढोना स्वीकार किया।मगर अपने पूर्वजों का धर्म नहीं छोड़ा।इनमें अनेक हिन्दू राजपूत भी थे।फिर भी अनेक दलित प्रलोभन और दबाव के चलते मुसलमान बन गए।
(सन्दर्भ- स्वामी श्रद्धानंद जी का लेख, उर्दू तेज़ समाचारपत्र, पृष्ठ 5, 5 मई 1924 )
2. इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी दलितों को बराबरी का दर्जा नहीं मिला।
दलितों को इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी बराबरी का दर्जा नहीं मिला।इसका मुख्य कारण इस्लामिक भेदभाव था। डॉ. अम्बेडकर इस्लाम में प्रचलित जातिवाद से भली प्रकार से परिचित थे। वे जानते थे कि मुस्लिम समाज में अरब में पैदा हुए मुस्लिम (शुद्ध रक्त वाले) अपने आपको उच्च समझते हैं और धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बने भारतीय दूसरे दर्जे के माने जाते हैं।
अपनी पुस्तक पाकिस्तान और भारत के विभाजन, अम्बेडकर वांग्मय खंड 15 में उन्होंने स्पष्ट लिखा है-
क.‘अशरफ’ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान सैयद, शेख, (पपप) पठान, मुगल, (अ) मलिक और मिर्ज़ा।
ख. ‘अज़लफ’अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान इसलिए जो दलित मुस्लिम बन गए वे दूसरे दर्जे के ‘अज़लफ’ मुस्लिम कहलाये।उच्च जाति वाले ‘अशरफ’ मुस्लिम नीच जाति वाले ‘अज़लफ’ मुसलमानों से रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं रखते। ऊपर से शिया-सुन्नी, देवबंदी-बरेलवी के झगड़ों का मतभेद। सत्य यह है कि इस्लाम में समानता और सदभाव की बात करने और जमीनी सच्चाई एक दूसरे के विपरीत थी। इसे हम हिंदी की प्रसिद्द कहावत चौबे गए थे छबे बनने, दुबे बन कर रह गए से भली भांति समझ सकते है।
ग. दलित समाज में मुसलमानों के विरुद्ध प्रतिक्रिया।
दलितों ने देखा कि इस्लाम के प्रचार के नाम पर मुस्लिम मौलवी दलित बस्तियों में प्रचार के बहाने आते और दलित हिन्दू युवक-युवतियों को बहकाने का कार्य करते। दलित युवकों को बहकाकर उन्हें गोमांस खिला कर भ्रष्ट कर देते थे और दलित लड़कियों को भगाकर उन्हें किसी की तीसरी या चौथी बीवी बना डालते थे। दलित समाज के होशियार लोगों ने इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए एक व्यावहारिक युक्ति निकाली।उन्होंने प्रतिक्रिया रूप से दलितों ने सूअरों को पालना शुरू कर दिया था।एक सुअरी के अनेक बच्चे एक बार में जन्म लेते। थोड़े समय में पूरी दलित बस्ती में सूअर ही सूअर दिखने लगे। सूअरों से मुस्लिम मौलवियों को विशेष चिढ़ थी। सूअर देखकर मुस्लिम मौलवी दलितों की बस्तियों में इस्लाम के प्रचार करने से हिचकते थे।यह एक प्रकार का सामाजिक बहिष्कार रूपी प्रतिरोध था।पाठक समझ सकते है कैसे सूअरों के माध्यम से दलितों ने अपनी धर्मरक्षा की थी। उनके इस कदम से उनकी बस्तियां मलिन और बीमारियों का घर बन गई। मगर उन्हें मौलवियों से छुटकारा मिल गया।
घ. दलित हिंदुओं का सवर्ण हिंदुओं के साथ मिलकर संघर्ष।
जैसे सवर्ण हिन्दू समाज मुसलमानों केअत्याचारों सेआतंकित था वैसे ही हिन्दू दलित भी उनके अत्याचारों से पूरी तरह आतंकित था।यही कारण था जब जब हिंदुओं ने किसी मुस्लिम हमलावर के विरोध में सेना को एकत्र किया। तब तब सवर्ण एवं दलित दोनों हिंदुओं ने बिना किसी भेदभाव के एक साथ मिलकर उनका प्रतिवाद किया।
मैं यहां पर एक प्रेरणा दायक घटना को उदहारण देना चाहता हूं। तैमूर लंग ने जब भारत देश पर हमला किया तो उसने क्रूरता और अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी। तैमूर लंग के अत्याचारों से पीड़ित हिन्दू जनता ने संगठित होकर उसका सामना करने का निश्चय किया। खाप नेता धर्मपालदेव के नेतृत्व में पंचायती सेना को एकत्र किया गया। इस सेना के दो उपप्रधान सेनापति थे। इस सेना के सेनापति जोगराजसिंह नियुक्त हुए थे जबकि उपप्रधान सेनापति – (1) धूला भंगी (बाल्मीकि) (2) हरबीर गुलिया जाट चुने गये। धूला भंगी जि० हिसार के हांसी गांव (हिसार के निकट) का निवासी था। यह महाबलवान्, निर्भय योद्धा, गोरीला (छापामार) युद्ध का महान् विजयी धाड़ी था। जिसका वजन 53 धड़ी था। उपप्रधान सेनापति चुना जाने पर इसने भाषण दिया कि,“मैंने अपनी सारी आयु में अनेक धाड़े मारे हैं। आपके सम्मान देने से मेरा खूब उबल उठा है।मैं वीरों के सम्मुख प्रण करता हूं कि देश की रक्षा के लिए अपना खून बहा दूंगा तथा सर्वखाप के पवित्र झण्डे को नीचे नहीं होने दूंगा। मैंने अनेक युद्धों में भाग लिया है तथा इस युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दे दूंगा।” यह कहकर उसने अपनी जांघ से खून निकाल कर प्रधान सेनापति के चरणों में उसने खून के छींटे दिये।उसने म्यान से बाहर अपनी तलवार निकाल कर कहा “यह शत्रु का खून पीयेगी और म्यान में नहीं जायेगी।” इस वीर योद्धा धूला के भाषण से पंचायती सेना दल में जोश एवं साहस की लहर दौड़ गई और सबने जोर-जोर से मातृभूमि के नारे लगाये।
दूसरा उपप्रधान सेनापति हरबीरसिंह जाट था । यह हरयाणा के जि० रोहतक गांव बादली का रहने वाला था। इसकी आयु 22 वर्ष की थी और इसका वजन 56 धड़ी (7 मन) था। यह निडर एवं शक्तिशाली वीर योद्धा था उप-प्रधानसेनापति हरबीर सिंह गुलिया ने अपने पंचायती सेना के 25,000 वीर योद्धा सैनिकों के साथ तैमूर के घुड़सवारों के बड़े दल पर भयंकर धावा बोल दिया जहां पर तीरों तथा भालों से घमासान युद्ध हुआ। इसी घुड़सवार सेना में तैमूर भी था। हरबीर सिंह गुलिया ने आगे बढ़कर शेर की तरह दहाड़ कर तैमूर की छाती में भाला मारा जिससे वह घोड़े से नीचे गिरने ही वाला था कि उसके एक सरदार खिज़र ने उसे सम्भालकर घोड़े से अलग कर लिया। तैमूर इसी भाले के घाव से ही अपने देश समरकन्द में पहुंचकर मर गया।
वीर योद्धा हरबीर सिंह गुलिया पर शत्रु के 60 भाले तथा तलवारें एकदम टूट पड़ीं जिनकी मार से यह योद्धा अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा। उसी समय प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर ने अपने 22000 मल्ल योद्धाओं के साथ शत्रु की सेना पर धावा बोलकर उनके 5000 घुड़सवारों को काट डाला। जोगराज सिंह ने स्वयं अपने हाथों से अचेत हरबीर सिंह को उठाकर यथास्थान पहुंचाया। परन्तु कुछ घण्टे बाद यह वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया।हरद्वार के जंगलों में तैमूरी सेना के 2805 सैनिकों के रक्षादल पर भंगी कुल के उपप्रधान सेनापति धूला धाड़ी वीर योद्धा ने अपने 190 सैनिकों के साथ धावा बोल दिया। शत्रु के काफी सैनिकों को मारकर ये सभी 190 सैनिक एवं धूला धाड़ी अपने देश की रक्षा हेतु वीरगति को प्राप्त हो गये।
(सन्दर्भ-जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठ 380-383)
हमारे महान इतिहास की इस लुप्त प्रायः घटना को यहां देने के दो प्रयोजन है। पहला तो यह सिद्ध करना कि हिन्दू समाज को अगर अपनी रक्षा करनी है तो उसे जातिवाद के भेद को भूल कर संगठित होकर विधर्मियों का सामना करना होगा। दूसरा इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस काल में जातिवाद का प्रचलन नहीं था। धूला भंगी (बाल्मीकि)अपनी योग्यता, अपने क्षत्रिय गुण,कर्म और स्वभाव के कारण सवर्ण और दलित सभी की मिश्रित धर्मसेना का नेतृत्व किया।
जातिवाद रूपी विषबेल हमारे देश में पिछली कुछ शताब्दियों में ही पोषित हुई। वर्तमान में भारतीय राजनीति ने इसे अधिक से अधिक गहरा करने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया।
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