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दीक्षा द्वारा पंचशक्तियों को कैसे प्राप्त करें?
श्री परमहंस निरंजनानन्द-
Mystic Power- दीक्षा के लिये किसी पदार्थ, द्रव्य या आधार का होना आवश्यक है। तन्त्र शास्त्र के अनुसार सम्पूर्ण जीवन एक दीक्षा है। साधना करना, गुरु के सान्निध्य में रहना, स्वाध्याय करना, भक्ति करना या सेवा करना दीक्षा है। इसका आधार है ज्ञान। ज्ञान का अभिप्राय आत्मिक सजगता से है। साधक जो कर रहा है, साधक जो करने जा रहा है या गुरु से जो भी निर्देश उसे मिले हैं उसके द्वारा ही यह जीवन में आगे बढ़ सकता है। इस प्रकार जीवन का प्रत्येक क्षण सजगता से परिपूर्ण रहता है। जहाँ सजगता नहीं, वहाँ ज्ञान, दीक्षा, साधना और कर्म नहीं हो सकते। दीक्षा का तात्पर्य ज्ञान, चेतना या सजगता में वृद्धि है। यदि गुरु-शिष्य सम्पर्क के बाद सजगता में, चेतना में, ज्ञान में वृद्धि होती है, यदि मन्त्र ग्रहण करने के बाद चेतना में परिवर्तन होता है, यदि काषाय वस्त्र धारण कर एक अनुशासित जीवन बिताने से चेतना में परिवर्तन होता है, तब वह दीक्षा है।
दीक्षा का मूल धातु है दी, जिसका अर्थ होता है समर्पण । जब व्यक्ति अपने आप को समर्पित कर एक निर्दिष्ट पथ पर चलने लगे, एक स्पष्ट लक्ष्य को, एक स्पष्ट भावना को, एक स्पष्ट विचार को अपनाये तब वह दीक्षा है। गुरु इन्हीं चीजों के लिये दीक्षा देते हैं। लेकिन चूंकि सामान्य जन का विचार, स्पष्ट नहीं रहता, भावना स्पष्ट नहीं रहती, लक्ष्य स्पष्ट नहीं रहता, इसलिये उन्हें आधार की आवश्यकता होती है। गुरु आधार रूप में एक मंत्र देते हैं। गुरु और मन्त्र में आस्था रहने से समर्पण का भाव जागृत होता है। तात्पर्य यह कि दीक्षा शब्द का अर्थ और परिणाम दोनों एक ही है। दीक्षा शब्द का अर्थ है समर्पण और दीक्षा का परिणाम भी होता है समर्पण ।
दीक्षा की आवश्यकता- दीक्षा के परिणामस्वरूप ज्ञान में वृद्धि, विद्या में वृद्धि, चेतना का विस्तार, नित्यत्व की प्राप्ति या धारणा की अवस्या की प्राप्ति होती है। नित्यत्व या धारणा का अभिप्राय सतत् एकाग्रता से है। यह चेतना की जागरुकता या चेतना की स्पष्टता की स्थिति है। इससे निष्ठ अवस्था या ध्यान की प्राप्ति होती है। ध्यान में द्रष्टा, दृश्य और दर्शन की अनुभूति होती है। नित्यत्व या धारणा में साधक इन तीनों का अलग-अलग ख्याल करता है. इन्हें अलग-अलग समझने का प्रयत्न करता है, लेकिन निष्ठ अवस्था या ध्यानावस्था में द्रष्टा, दृश्य और दर्शन अलग नहीं रहते, अन्ततः एक हो जाते हैं। इस ऐक्यानुभूति का परिणाम है सिद्धिः इस ऐक्यानुभूति का परिणाम है मुक्ति ।
योग
लकुलीश पाशुपत दर्शन में कारण और कार्य के बाद योग का वर्णन किया जाता है। इस दर्शन में अष्टांग योग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश किया गया है। मान्यता है कि अष्टांग योग का पालन करने से मनुष्य के व्यावहारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में सन्तुलन और सजगता की वृद्धि हो सकती है।
योग के दो पक्ष हैं; १. दार्शनिक और २. व्यावहारिक । दार्शनिक पक्ष के अनुसार योग का लक्ष्य शिव-सायुज्य की प्राप्ति है। इस अवस्था में मनुष्य की चेतना शिव-चेतना या कारण से एकाकार हो जाती है और समस्त प्रकार के द्वैत भाव समाप्त हो जाते हैं। निर्लिप्त अवस्था की प्राप्ति से मनुष्य भूत और भविष्य का द्रष्टा बन जाता है। उसके लिये देश, काल और परिस्थिति का बन्धन नहीं रहता ।
इसे प्राप्त करने के लिये योग के व्यावहारिक पक्ष का अभ्यास आवश्यक है। योग के व्यावहारिक पक्ष का उद्देश्य है मनुष्य को वासनारहित बनाना। इसीलिये यौगिक क्रियाओं को दो भागों में विभक्त किया गया है:
१. बाझ योग या क्रिया-लक्षण-योग और
२. आन्तरिक योग या क्रिया-परम-तक्षण-योग ।
क्रिया-लक्षण-योग के अभ्यास के समय व्यावहारिक, भौतिक और सामाजिक रूप से यम और नियम का पालन होना चाहिये। यम और नियम व्यक्ति की मानसिक अवस्थाओं तथा पारिवारिक और सामाजिक परिवेश को दृढ़ बनाते हैं। मनुष्य स्वयं को तत्काल, एक क्षण में, सांसारिक बन्धनों से मुक्त नहीं कर सकता, एक क्षण में वह सांसारिक भोगों का त्याग नहीं कर सकता। शनैः शनैः ऐसी अवस्था प्राप्त करनी चाहिये, जहाँ साधक त्याग, अनासक्त भाव एवं समभाव को जागृत करने में सहज रूप से सक्षम हो सके। जब तक चिन्तन, व्यवहार और कर्म की विधियाँ नहीं बदलतीं, आचरण नहीं बदलता तब तक आत्मशुद्धि की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। आत्मशुद्धि प्राप्त होने पर साधक के विचार, कार्य और व्यवहार सकारात्मक हो जाते हैं।
शरीर पर नियन्त्रण के लिये आसनों का वर्णन किया गया है, ताकि शरीर व्याधिमुक्त और विकार रहित होकर व्यक्तित्व के उत्थान में एक सकारात्मक भूमिका निभा सके । मन को शान्त, निर्मल और एकाग्र बनाने के निमित्त तथा उसकी सूक्ष्म अवस्था पर नियन्त्रण प्राप्त करने के हेतु प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है। प्राणायाम के माध्यम से आन्तरिक चंचलता की समाप्ति होती है।
प्रत्याहार का अभिप्राय अन्तर्मुखी होने की क्षमता से है। इसे एक क्षमता या मानसिक अवस्था के रूप में स्वीकार किया गया है। मनुष्य का बहिर्मुखी होना स्वाभाविक है, अन्तर्मुखी होना अस्वाभाविक है। जब तक यम, नियम, आसन और प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा विचार, व्यवहार और कर्म में परिवर्तन नहीं होता, शारीरिक बाधाएँ समाप्त नहीं होती, मानसिक बंचलता शान्त नहीं होती, तब तक व्यक्ति पूर्णरूपेण अन्तर्मुखी नहीं हो सकता। जिस दिन व्यक्ति अन्तर्मुखी हो जाय, यह वासना पूर्ण अवस्था को पार कर लेगा।
क्रिया-परम-सक्षणयोग: जब वासनाओं का प्रभुत्व समाप्त हो जाय तब आन्तरिक योग का अभ्यास शुरू होता है। लकुलीश पाशुपत दर्शन में इसे क्रिया-परम-तक्षण योग कहा गया है। यह आन्तरिक योग है, जिसके अंतर्गत तीन अभ्यास, योग के अन्तिम तीन अंग आते हैं: धारणा, ध्यान आर समाधि । इस दर्शन का स्पष्ट मत है कि जब तक बाह्य योग सिद्ध नहीं होता, तब तक व्यक्ति को धारणा और ध्यान में प्रवेश नहीं करना चाहिये ।
विधि
लकुलीश पाशुपत दर्शन की चौथी विभक्ति विधि है। अभी तक प्रत्येक अवस्था में विधियों का वर्णन निश्चित रूप से किया गया है। हरएक अवस्था के दार्शनिक और व्यावहारिक, दोनों पक्ष बतलाये गये हैं। लेकिन उपरोक्त अभ्यासों और क्रियाओं के साथ-साथ इसमें विधि को अलग से प्रस्तुत किया गया है। तदनुसार विधि के अन्तर्गत तीन आवश्यकताओं पर बल दिया गया है। वे हैं:
१. तपस्वी-जीवन, २. भक्तिमार्ग की प्रधानता और ३. इन्द्रिय-निग्रह ।
तपस्वी-जीवन सात्विकता से पूर्ण तथा आसक्तिरहित होना चाहिये। जब सब कुछ छोड़ना ही है, तो पैसा, परिवार और वस्त्र से क्या मतलब ? यदि व्यक्ति आवश्यकतानुसार जीवन व्यतीत करे, तो धन-संग्रह का क्या तात्पर्य ? केवल स्वार्य-पूर्ति तथा इच्छा वृद्धि के लिये सम्पत्ति क्यों ? तात्पर्य यह कि तपस्वी को आसक्तियों से दूर रहना चाहिये।
तपस्वी के जीवन में भक्ति की प्रधानता होनी चाहिये। पूर्ण भक्ति के लिये समर्पण, विश्वास और ईश्वर प्रणिधान अति महत्वपूर्ण बिन्दु हैं। ‘नाहं कर्ता, हरिः कर्त्ता, हरिः कर्ता हि केवलम्’ की भावना सतत् बनी रहनी चाहिये ।
इन्द्रिय निग्रह पर भी बल दिया गया है। चौदह इन्द्रियाँ पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और चार अंतःकरण पर नियन्त्रण होना आवश्यक है, जिससे जीवन में संयम तया सामञ्जस्य बन सके।
दुःखान्त
लकुलीश पाशुपत दर्शन की पाँचवीं और अन्तिम विभक्ति है दुःखान्त। दुखान्त की स्थित्ति की प्राप्ति अभ्यास और साधना से सम्भव नहीं है। अभ्यास और साधना से तैयारी हो सकती है, लेकिन दुःखान्त तो अनुग्रह से ही संभव है। विकाररहित होने पर और शुद्ध अवस्था की अनुभूति प्राप्त होने पर अनुग्रह की प्राप्ति होती है। अनुग्रह ईश्वरीय शक्ति का आभास है। मनुष्य का पुरुषार्थ और श्रम एक सीमित अवस्था या दूरी तक ही उसे से जा सकते हैं। उसके आगे एक अदृश्य ईश्वरीय शक्ति ही हाथ पकड़कर ले जाती है।
दुःखान्त का अभिप्राय ज्ञान और वैराग्य अवस्था की प्राप्ति से नहीं, इसको अर्थ है क्लेशों का अन्त होना। दुःखान्त अवस्था को सकुलीश पाशुपत दर्शन ने दो भागों मेंविभक्त किया है:
१. अनात्मक अवस्था और २. सात्मक अबस्था। अनात्मक अवस्था में क्लेशमुक्ति और सात्मक अवस्था में ज्ञान और कर्मशक्ति की प्राप्ति है। मुक्ति, मोक्ष या दुःखान्त की दो अवस्थाएँ हैं एक अवस्था है शून्यता की और दूसरी अवस्था है प्रकाश की । योग प्रकाशावस्था तक ले जाता है। अन्य विधियाँ और अन्य दर्शन शून्यता का बोध दिलाते हैं। तन्त्र में सायुज्य, सात्मक या प्रकाशावस्था है।
अनात्मक अवस्था में साधक बन्धनमुक्त तो हो जाता है, लेकिन, उसकी आत्मिक शक्ति जागृत नहीं होती। बन्धनमुक्त होने के बाद यह आगे की अवस्था प्राप्त नहीं करता, जहाँ यह शक्तियों का नियंता, स्वामी हो जाय। बाह्य शक्तियों से मुक्ति मिल गई, लेकिन आत्मिक शक्तियों पर नियन्त्रण नहीं है। वह स्वयं को अधर में, मध्य अवस्था या शून्यावस्था में देखता रहता है।
एक विचारधारा यह भी है कि जब साधक शून्यावस्या के पार जाय, तो यहाँ की अदृश्य तथा सूक्ष्म शक्तियों के बन्धन में फैस जायेगा और उनके अनुरूप कर्म करना होगा, चाहे यह सूक्ष्म स्तर पर हो या स्थूल स्तर पर। जो शक्ति, क्षमता या अवस्था प्राप्त होगी उसके अनुरूप ही कर्म करना पड़ेगा और कर्मों से पुनः प्रभावित होना पड़ेगा। इस मान्यता के आधार पर अनात्मक अवस्था के प्रचारकों का मत है कि यही अवस्था सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें किसी प्रकार की शक्ति, परिस्थिति या चेतना की अभिव्यक्ति से साधक प्रभावित नहीं होते हैं।
दूसरा मत है कि शून्यावस्था में व्यक्ति ईश्वर से एकाकार नहीं हो सकता है। शून्यावस्था में उसकी एक अलग पहचान होती है, जो ब्रह्म, ईश्वर या परम तत्व की सत्ता से भिन्न होती है। इस अवस्था में सर्वज्ञता का अभाव है। शून्यावस्था में शक्ति का, सृजन और परिवर्तन का अभाव है। इस अभावपूर्ण अवस्था को प्राप्त करने पर चेतना का विकास या उत्पान उस सीमा तक ही होता है, आगे नहीं। भौतिक या स्थूल दृष्टिकोण से शून्यावस्था एक ऊँची अवस्था तो है, लेकिन इसमें चेतना और शक्ति का समन्यय नहीं हो पाता है। जब तक इनका समन्वय नहीं होता, व्यक्ति देवत्व की अनुभूति नहीं कर सकता है, देव नहीं बन सकता है। प्रकाश की अवस्था प्राप्त करने के बाद व्यक्ति देव बन जाता है। ज्ञानशक्ति और कर्मशक्ति की प्राप्ति के बाद ईश्वरीय अनुभूति। प्राप्त होती है, मनुष्य ईश्वर बन जाता है, नर से नारायण बन जाता है। यह है प्रकाश का मार्ग।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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