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श्री दुर्गासप्तशती एक तत्व रहस्य
श्री अनिल गोविंद बोकील
(नाथसंप्रदाय मे पूर्णाभिषिक्त और तंत्र मार्ग में काली कुल मे पूर्णाभिषिक्त के बाद सम्राज्यभिषिक्त)-
ब्रह्म सत्-चित् और आनन्द रूप से त्रिभाव द्वारा माना जाता है। जिस प्रकार कारण ब्रहम में तीन भाव हैं उसी प्रकार कार्य ब्रह्म भी त्रिभावात्मक है । इसीलिये वेद और वेदसम्मत शास्त्रों की भाषा भी त्रिभावात्मक ही होती है। इसी परम्परा के अनुसार देवासुर संग्राम के भी तीन स्वरूप हैं। जो दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में वर्णित किये गए हैं । देवलोक में ये ही तीनों रूप क्रमशः प्रकट होते हैं । पहला मधुकैटभ के वध के समय, दूसरा महिषासुर वध के समय और तीसरा शुम्भ निशुम्भ के वध के समय । वह अरूपिणी, वाणी मन और बुद्धि से अगोचरा सर्वव्यापक ब्रह्म शक्ति भक्तों के कल्याण के लिये अलौकिक दिव्य रूप में प्रकट हुआ करती है । ब्रह्मा में ब्राह्मी शक्ति, विष्णु में वैष्णवी शक्ति और शिव में शैवी शक्ति जो कुछ भी है वह सब उसी महाशक्ति का अंश है । त्रिगुणमयी महाशक्ति के तीनों गुण ही अपने अपने अधिकार के अनुसार पूर्ण शक्ति विशिष्ट हैं । अध्यात्म स्वरूप में प्रत्येक पिण्ड में क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियों का संघर्ष, अधिदैव स्वरूप में देवासुर संग्राम और अधिभौतिक स्वरूप में मृत्युलोक में विविध सामाजिक संघर्ष तथा राजनीतिक युद्ध – सप्तशती गीता इन्हीं समस्त दार्शनिक रहस्यों से भरी पड़ी है । यह इस कलियुग में मानवपिण्ड में निरन्तर चल रहे इसी देवासुर संग्राम में दैवत्व को विजय दिलाने के लिये वेदमन्त्रों से भी अधिक शक्तिशाली है ।
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दुर्गा सप्तशती उपासना काण्ड का प्रधान प्रवर्तक उपनिषद ग्रन्थ है । इसका सीधा सम्बन्ध मार्कंडेय पुराण से है | सप्तशती में अष्टम मनु सूर्यपुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है । यह कथा कोई लौकिक इतिहास नहीं है । पुराण वर्णित कथाएँ तीन शैलियों में होती हैं | एक वे विषय जो समाधि से जाने जा सकते हैं – जैसे आत्मा, जीव, प्रकृति आदि। इनका वर्णन समाधि भाषा में होता है । दूसरे, इन्हीं समाधिगम्य अध्यात्म तथा अधिदैव रहस्यों को जब लौकिक रीति से आलंकारिक रूप में कहा जाता है तो लौकिक भाषा का प्रयोग होता है । मध्यम अधिकारियों के लिये यही शैली होती है । तीसरी शैली में वे गाथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं जो पुराणों की होती हैं । ये गाथाएँ परकीया भाषा में प्रस्तुत की जाती हैं । दुर्गा सप्तशती में तीनों ही शैलियों का प्रयोग है । जो प्रकरण राजा सुरथ और समाधि वैश्य के लिये परकीय भाषा में कहा गया है उसी प्रकरण को देवताओं की स्तुतियों में समाधि भाषा में और माहात्म्य के रूप में लौकिक भाषा में व्यक्त किया गया है।
राजा सुरथ और समाधि वैश्य को ऋषि ने परकीय भाषा में देवी के तीनों चरित्र सुनाए । क्योंकि वे दोनों समाधि भाषा के अधिकारी नहीं थे | तदुपरान्त लौकिक भाषा में उनका अधिदैवत् स्वरूप समझाया और तब समाधि भाषा में मोक्ष का मार्ग प्रदर्शित किया :
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ||
तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्।
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाम् भवति मुक्तये ||
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी।
संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ।।
प्रथम चरित्र में भगवान् विष्णु योगनिद्रा से जागकर मधुकैटभ का वध करते हैं । भगवान् विष्णु की यह अनन्त शैया महाकाश की द्योतक है । इस चरित्र में ब्रह्ममयी की तामसी शक्ति का वर्णन है । इसमें तमोमयी शक्ति के कारण युद्धक्रिया सतोगुणमय विष्णु के द्वारा सम्पन्न हुई | सत्व गुण ज्ञानस्वरूप आत्मा का बोधक है । इसी सत्वगुण के अधिष्ठाता हैं भगवान् विष्णु । ब्राह्मी सृष्टि में रजोगुण का प्राधान्य रहता है और सतोगुण गौण रहता है । यही भगवान् विष्णु का निद्रामग्न होना है । जगत् की सृष्टि करने के लिये ब्रह्मा को समाधियुक्त होना पड़ता है । जिस प्रकार सर्जन में विघ्न भी आते हैं उसी प्रकार इस समाधि भाव के भी दो शत्रु हैं – एक है नाद और दूसरा नादरस । नाद एक ऐसा शत्रु है जो अपने आकर्षण से तमोगुण में पहुँचा देता है । यही नाद मधु है । समाधिभाव के दूसरे शत्रु नादरस के प्रभाव से साधक बहिर्मुख होकर लक्ष्य से भटक जाता है । जिसका परिणाम यह होता है कि साधक निर्विकल्पक समाधि – अर्थात् वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रहता – को त्याग देता है और सविकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है । यही नादरस है कैटभ । क्योंकि मधु और कैटभ दोनों का सम्बन्ध नाद से है इसीलिये इन्हें “विष्णुकर्णमलोद्भूत” कहा गया है । मधु कैटभ वध के समय नव आयुधों का वर्णन शक्ति की पूर्णता का परिचायक है । यह है महाशक्ति का नित्यस्थित अध्यात्मस्वरूप । यह प्रथम चरित्र सृष्टि के तमोमय रूप का प्रकाशक होने के कारण ही प्रथम चरित्र की देवता महाकाली हैं । क्योंकि तम में क्रिया नही होती।
अतः वहाँ मधु कैटभ वध की क्रिया भगवान् विष्णु के द्वारा सम्पादित हुई । क्योंकि तामसिक महाशक्ति की साक्षात् विभूति निद्रा है, जो समस्त स्थावर जंगमादि सृष्टि से लेकर ब्रह्मादि त्रिमूर्ति तक को अपने वश में करती है ।
शेष:
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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