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फीजी में हिंदी : संघर्ष और विकास की गाथा
डॉ. विशाला शर्मा
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, चेतना कला वरिष्ठ महाविद्यालय औरंगाबाद
Mystic Power- भारतीय संस्कृति के मूल मंत्र को वैश्विक पटल प्रदान करने तथा हिंदी भाषा, जीवन मूल्यों, परंपराओं एवं भावनात्मक रूप से रिश्तों को जोड़ने में प्रवासियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। हिंदी का विश्व में फैलाव होने का मुख्य कारण गिरमिटिया मजदूर है, जिन्हें फीजी मॉरीशस, सूरीनाम, गयाना त्रिनिदाद, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार आदि प्रदेशों से मजदूर के रूप में लाया गया था। यह लोग एग्रीमेंट या शर्त बंद प्रथा के आधार पर भारत से लाए गए थे।
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ब्रिटिश एग्रीमेंट का विकृत रूप ही गिरमिटिया कहलाया। इन मजदूरों का प्रवासी होना तात्कालीन परिस्थितियों से जुड़ा हुआ था। अशिक्षा, सूखा, अकाल, महामारी के बीच पेट की चिंता ऐसे समय में समझौते की शर्तों को ठीक से नहीं समझने के कारण निरक्षर भारतीय अंगूठा लगा देते थे इन्हें भ्रमित कर दस से बीस सप्ताह की समुद्री यात्रा के बाद अपने कामों के स्थान पर पहुंचा दिया जाता। कई बार यह यात्रा पूर्ण होने से पहले ही कई बीमारियों का शिकार होकर यह लोग रास्ते में ही दम तोड़ देते थे। चिकित्सा सुविधा का अभाव, वातावरण की प्रतिकूलता, बंदरगाह पर गंदे वातावरण, झुग्गी झोपड़ियों में इन्हें रखा जाता।
यह कैसी दास प्रथा थी? जिसमें बात-बात पर कोडे बरसाए जाते थे और रोजाना 16 घंटे लगातार कठिन श्रम वाले कार्य इन प्रवासियों को दिए जाते थे। इस तरह परिस्थितियां ही आदमी के स्थापन और विस्थापन का कारण बनती है। यह परिस्थितियां कभी सुखद पर प्रायः दुखद होती हैं। इस दुखद परिस्थिति को भारत के लाखों लोगों ने सहा है।
तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन की पत्रिका ‘विश्व हिंदी’ में श्री.एस भुवनेश्वर इस बात को स्पष्ट करते हैं कि, ‘‘भारतीय मजदूर वहां नहीं रहना चाहते थे, क्योंकि उन्हें तरह-तरह के कष्ट सहने पड़ते थे, उन्हें गैरकानूनी रूप से गिरफ्तार किया जाता था। छोटी सी भूल पर बिना किसी कारण ही उन्हें इतना बड़ा दंड दिया जाता था, जिससे कई व्यक्तियों की मृत्यु भी हो जाती थी। ऐसे अत्याचार से बचने के लिए बहुत से मजदूरों ने आत्महत्या कर ली थी। अस्पताल में भी भारतीयों की कोई सेवा नहीं की जाती थी। उन्हें सोने के लिए कोई स्थान नहीं मिलता था ना बिछाने के लिए कोई वस्त्र ही, उन्हें खाने के लिए सुबह मुट्ठी भर चावल और शाम को मुट्ठी भर बेल के शोरबे में डुबाया हुआ चावल मिलता था या भोजन भी इतनी कम मात्रा में मिलता था कि उन्हें भूखे ही मरना पड़ता था। इस निवेश के कानून के विरुद्ध भारतीय मजदूरों से रविवार को भी काम करवाया जाता था। एक दिन की गैर हाजिरी के लिए उनकी दो दिन की तलब काट ली जाती थी। अगर बीमारी के कारण किसी मजदूर ने एक मास काम नहीं किया तो उसे दो मास मुफ्त में काम करना पड़ता था। कभी-कभी मजदूरों को इतना काम दिया जाता था कि वह शाम को देर तक काम करने पर भी काम पूरा नहीं कर पाते। उनकी इस दिन की तलब काट ली जाती थी। जो भारतीय बच्चे स्कूल जाते थे उन्हें भी ईसाई बनाया जाता था। इससे बचने के लिए प्रवासी भारतीय अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे। अपने धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने अपने बच्चों को अनपढ़ रखना स्वीकार किया था।’’
आज भारतीय स्वेच्छा से विदेश चुनते हैं। कई बार धार्मिक कारण, तीर्थ यात्रा भ्रमण और उच्च शिक्षा के साथ-साथ भौतिक जीवन व्यतीत करने की इच्छा भी प्रवास के कारण रही है। इन सब स्थितियों में विश्व मन का भाव लिए हिंदी विश्व में अपनी पकड़ अपने इन्हीं प्रवासियों के माध्यम से बनाती चली गई। हिंदी की सबसे बड़ी विशेषता उसका लचीलापन है। विभिन्न संदर्भों में अभिव्यक्ति की क्षमता और एक स्वीकृत मानक रूप हिंदी का सबसे बड़ा गुण है, जिसका व्यापक प्रभाव विश्व में देखा जा सकता है।
बीसवीं शताब्दी में अनेक मंचों से प्रवासी विमर्श की शुरुआत हुई। 21वीं सदी में यह विमर्श और आगे बढ़ा, जिसके चलते 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने प्रवासी भारतीय सम्मेलन की शुरुआत की तब से लेकर अब तक एक दर्जन से अधिक प्रवासी भारतीय सम्मेलन हो चुके हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में प्रवासियों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के अनुसार, ‘‘विश्व के लगभग 25 करोड़ 80 लाख लोग व्यापार आदि अनेक कारणों से प्रवास में रहते हैं। भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा डायस्पोरा है। भारत मूल के लाखों लोग विश्व के विभिन्न देशों में फैले हुए हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 50 देशों से अधिक में रह रहे प्रवासी भारतीयों की जनसंख्या लगभग 3 करोड़ 12 लाख हैं।’’
मॉरीशस ने तो अपनी आज़ादी की लड़ाई हिंदी के सहारे लड़ी। मॉरीशस में 70 प्रतिशत लोगों की भाषा हिंदी है। माना कि हिंदी की जन्म स्थली भारत है। वह भारत में पली-बढ़ी किंतु संस्कृति की संवाहक बनकर विश्व के प्रत्येक कोने में लोगों के पास चलकर पहुंची है। विश्व में अपनी विरासत ‘जियो और जीने दो’ तथा ‘वसुदेव कुटुंबकम’ की भावना के कारण उसे सम्मान प्राप्त हुआ है। ब्रिटिश काल में शर्त बंद होकर जाने वाले गिरमिटिया मजदूरों ने आजीविका कमाने की आस के साथ-साथ धार्मिक ग्रंथ, परंपराएं, रीति रिवाज और संस्कृति को लेकर उन देशों में गए और संघर्षपूर्ण जीवन यापन करते हुए भी सदैव अपनी आस्था, विश्वास, जीवन मूल्यों, मान्यताओं संबंधों अनुरागों , भाषा और सांस्कृति संपदा की निधियों को भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखा है। उन देशों में एकता समृद्धि के लिए संगठित होकर प्रवासी भारतीयों ने अपने उत्सवों के माध्यम से अपनी परंपराओं रीति-रिवाजों से संपूर्ण संसार को अवगत कराने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है। भारत के योग ध्यान आयुर्वेद ज्योतिष विद्या आत्मसात करने की उनकी जिज्ञासा सदैव प्रबल रही है। यही कारण है कि हमारी प्राचीन विद्याएं आज भी जीवित हैं। इतना ही नहीं संगीत, नृत्य और अन्य ललित कलाओं को विकसित कर वैश्विक पटल पर पहुंचाया और भारतीय संस्कृति को सदैव सजीव रूप प्रदान किया है। प्रवासियों का यह योगदान सराहनीय है।
हिंदी भाषा को विश्व में जीवित रखने का महत्वपूर्ण कार्य साहित्य के माध्यम से भी हुआ है प्रवासी हिंदी साहित्य को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध आलोचक कमल किशोर गोयनका लिखते हैं, ‘‘प्रवासी साहित्य एक नए भावबोध, एक रचना संसार तथा रचना उद्देश्य को लेकर आया है। इसके मूल में अपने देश, भाषा, संस्कृति और परिजनों से दूर निवास करने वालों की पीड़ा, वेदना, आत्मीयता तथा कष्टों का उद्घाटन हुआ है। उन्होंने हिंदी में प्रवासी साहित्य का आरंभ तोताराम की फिजी पर पुस्तकों, बच्चन की प्रवासी डायरी, गांधी के प्रवासियों के लिए संघर्ष तथा मॉरीशस के हिंदी साहित्य से माना है।
फीजी में हिंदी भाषा साहित्य एवं संस्कृति के उद्भव विकास में रामायण और महाभारत की अहम भूमिका है।
फीजी का श्रमिक समाज जो टूटी-फूटी हिंदी जानता था, कुदाली से फीजी के जंगल को फतह करने वाले कॉलोनियल शुगर रिफायनिंग कंपनी में भजन, कीर्तन सत्यनारायण की कथा, आरती जैसी भारतीय परंपराओं को जीवित बनाए रखने का प्रयास करता रहा। रामायण के माध्यम से फीजी में हिंदी के प्रचार को बढ़ावा मिला। इन श्रमिकों ने भारतीय त्योहार रामनवमी, श्री कृष्ण जन्माष्टमी, दशहरा, होलिका दहन भी धूमधाम से मनाए, जिसके कारण फीजी के बाज़ारों, गली-कूचों में हिंदी स्वतंत्र रूप से बह रही है। आज सदियां व्यतीत हो जाने पर भी फीजीवासियों ने अपनी भाषा को जीवित रखा है। फीजी निवासी अदृश्य धागों की डोर से अपने जन्म स्थान से बंधे रहे और अपने अवचेतन मन में भारत को विद्यमान रखा। 4 मई 1879 से 1920 भारत के विभिन्न क्षेत्रों से शर्त बंदी मजदूर प्रथा के अंतर्गत 60965 मजदूर फीजी आए थे, जिसमें पश्चिमोत्तर प्रांत अवध, बिहार, मद्रास आदि क्षेत्रों से आए। और इन विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच संपर्क भाषा का काम हिंदी ने किया। अवधी, भोजपुरी भारत की अन्य भाषाओं के शब्द इंग्लिश और फीजी की स्थाई भाषा के शब्द बन गए। मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि, ‘‘साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है, उस समय की रचनाएं पढ़ते हुए महसूस होता था कि प्रवासियों की रचना में शिल्प की दृष्टि से परिपक्वता कम दृष्टिगोचर होती है किंतु सामाजिक दायित्व के प्रति वे सदैव सजग बने रहे और उनके सामाजिक सरोकार स्पष्ट और पुष्ट थे।
आज चाहे साहित्य ने शिल्पगत परिपूर्णता हासिल कर ली हो किंतु जीवन के उस दौर में जब संघर्ष, भूख और सुविधाओं से जूझते हुए प्रवासियों ने हिंदी भाषा में अपना साहित्य रचा और यह सिद्ध किया कि हिंदी बड़े दिल की भाषा है। प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य का इतिहास लगभग 150 वर्ष का है। मूल रूप से भारतीयों के विदेश आगमन, उनके संघर्ष और विकास की गाथा कहा जा सकता है। प्रवासी हिंदी साहित्य की मूल संवेदना प्रवास की पीड़ा है, जो प्रवासी हिंदी साहित्य में मुख्य रूप से व्यक्त हुई है। प्रवास में जहां एक ओर व्यक्ति के मन में विदेश जाने का उत्साह होता है। नई आशाएं होती हैं वहीं दूसरी ओर अपनों से बिछड़ने की पीड़ा और विस्थापन का कष्ट होता है। फीजी के कवि कमला प्रसाद मिश्र की कविता ‘क्या मैं परदेसी हूं?’ में यह संवेदना व्यक्त हुई है। कमला प्रसाद मिश्र विपुल साहित्य के सृजक हैं। आप ‘जय फीजी’ और ‘जागृति’ पत्रिका के संपादक भी रहे है। आपने फीजी में श्रमिकों की वेदना पर भी अपनी कलम चलाई है।
धवल सिंधु तट पर मैं बैठा अपना मानस बहलाता
फीजी में पैदा होकर भी परदेसी कहलाता
यह है गोरी नीति, मुझे सब भारतीय भी कहते
यद्यपि तन मन, धन से मेरा फीजी से ही है नाता
भारत के जीवन से फीजी के जीवन में अंतर है
भारत कितनी दूर वहां पर कौन सदा जाता आता
औपनिवेशिक नीति गरल है नहीं हमें जीने देती
वे उससे ही खुश रहते हैं जो उनका यश है गाता।
फीजी को मातृभूमि के रूप में मानने वाले एक भारतीय की वेदना अभिव्यक्ति कमलाप्रसाद मिश्र की कलम से हुई है। फीजी को अपना कर्म क्षेत्र मानकर श्रीमती अमरजीत कौर फिजी के सुख शांति की कामना करती है और अपनी कविता ‘फीजी हो गए सदा महान’ में लिखती है-
हे ईश्वर! दया निधान फीजी होवे सदा महान
यहां कभी तूफान ना आए, नहीं दुख के बादल छाए
हम सबको दो सुख का दान अमर चैन रहे सदा
यहां हर कांटा बने फूल यहां ऊंची होवे इसकी शान
वीर बहादुर हो हर प्राणी, बोले मिलकर मीठी वाणी
शांति से रहे हर इंसान रमणीक है यह सुंदर धाम
ऊंचा होवे इसका नाम ऐसा दो इसे वरदान।
वही अमरजीत कौर अपनी मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करते हुए ‘गिरमिट’ नामक कविता के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति इस प्रकार करती है –
चौपट होय गयो जीवन हमरा
जब खाक फीजी की छानी
न आशा ना मंजिल कोई
फिर गया सब पर पानी
बिना आंच तन चाबुकता पे
सुध बुध हमारी खोई
छिन्न-भिन्न हो गई हड्डी पसली
माटी भई जिंदगानी।
कमला प्रसाद मिश्र ‘यही दुनिया में एक श्रमिक’ के माध्यम से प्रश्न उपस्थित करते हैं। वही ‘एक गिरमिटिया मजदूर’ कविता में आक्रोश की अभिव्यक्ति करते हुए लिखते हैं-
है मुझे बर्दाश्त सुखा भात खाना
पर नहीं बर्दाश्त मुझको साहबो से लात खाना।
वही फीजी हिंदी के उन्नायक प्रोफेसर सुब्रमणि का उपन्यास ‘फीजी मां एक हजारों की मां’ का भारत में लोकार्पण हुआ। इस कार्यक्रम में सुब्रमणि ने भारत से मिले मान-सम्मान के प्रति आभार जताया और यह बताया कि विपरीत परिस्थितियों में उनके वंशजों ने उन्हें पाला और पढ़ाया। इतिहास ने इनके पूर्वजों को हाशिए पर रखा। छोटे ईश्वर की सौतेली संतान वर्ल्ड ऑफ द बीस्ट की संज्ञा से नवाज़ा। क्या उस पीड़ा, अपमान को कोई कम कर सकता है? कोई उसका खामियाजा चुका सकता है? शायद नहीं! लेकिन उस समय के हालातों, तकलीफ, शोषण को सहकर हम उभरे हैं। अपनी अटूट जिजीविषा, कड़ी मेहनत से उनके पूर्वजों ने उन्हें जो थोड़ी जमीन बक्शी है, यह भारतवंशी उसी को अपनी प्रतिभा, मेधा परिश्रम से पुख्ता बनाने में जुटे हैं। इनके प्रति हम हमेशा आभारी रहेंगे। आज इनको मुख्यधारा में लाकर इनका सम्मान करना हमारा सौभाग्य होगा। आज वैश्विक मंच पर भारत की संस्कृति और भाषा इन्हीं के दम पर खड़ी है। साथ ही इंग्लिश और हिंदी साहित्य अत्यंत समृद्ध हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं है।
सुब्रमणि जैसे लेखक फीजी हिंदी साहित्य लेखन में अतुलनीय योगदान रहा। उनका उपन्यास डाऊका पुराण के बाद ‘फीजी मां एक हजार की मां’ आया, जिससे उन्होंने यह स्पष्ट किया कि फीजी हिंदी का भी अपना एक व्याकरण और सौंदर्य है।
काशीराम कुमुद फीजी देश को स्वर्ण भूमि के रूप में चित्रित करते हैं क्योंकि यह वह भूमि है जहां उनके पूर्वज पंचतत्व में विलीन हो गए। वे लिखते हैं-
हम फिजी मां के लाल कर उन्नति सफल दिखा देंगे।
इस स्वर्गभूमि को मिलजुल के जग का सिर ताज बना देंगे
गोदी में शिशु क्रीड़ा की, आंचल में तेरे क्षीर चखा
उस पुण्य क्षीर की कसम हम तेरा दुख दर्द मिटा देंगे।
वही कमला प्रसाद मिश्र कहते हैं, ‘फिजी सुंदर देश हमारा।’ वे फीजी के रंग में रंगे फिजी के राष्ट्रीय मादक पेय नंगोना पर अपनी रचना करते हुए मधुर सोमरस और शांति प्रदायक पेय से सभी का स्वागत करते हैं। ‘मैं मंथरा हूँ’ शीर्षक कविता के लिए फीजी ही नहीं अपितु सारे हिंदी जगत में जाने-माने राम नारायण मंथरा के कलंकित जीवन के दोनों पक्षों को उद्घाटित करते हैं। फीजी में सृजनात्मक गद्य लेखन की शुरुआत बीसवीं सदी के चौथे दशक में हुई, जिसका श्रेय ज्ञानी दास को जाता है। पूर्व में इस देश में पर्याप्त लेखन प्रोत्साहन नहीं मिला था और प्रकाशन की समुचित सुविधा नहीं होना भी एक बड़ा कारण है कि अधिकांश रचनाएं साहित्य को प्राप्त नहीं हो सकी। इस दृष्टि से ‘हाय ज़िंदगी’ की संक्षिप्त भूमिका में इस बात को स्पष्ट किया गया है। फीजी रेडियो पर लंबे समय तक कहानियां प्रसारित होती रही हैं। लेखन के साथ-साथ फीजी रेडियो की भूमिका भी हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण रही है। हमारे देश में स्थानीय लेखकों, कहानीकारों तथा कवियों को सही मात्रा में प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है और न ही कोई अच्छा मार्गदर्शक है। इसकी पूर्ति के लिए यहां लेखक संघ की स्थापना हुई। हिंदी परिषद का गठन भी किया गया। किन्तु फीजी के लेखकों को इस बात का अफसोस हमेशा रहेगा कि भारतीय साहित्य को पुनर्जीवित करने के लिए इन संस्थाओं ने कभी कोई क्रियात्मक कदम नहीं उठाए। वही लेखक बड़े बुझे मन से कहते हैं कि फीजी में प्रकाशन की अच्छी सुविधा ना होने के कारण वह निराश है कि वह पाठकों के लिए अच्छी कृतियाँ नहीं दे सकते। 1980 के पश्चात भारतीय हिंदी को स्थापित करने के लिए सभी एकजुट हुए और 1986 में भारतीयों ने राष्ट्रव्यापी स्तर पर हिंदी दिवस का आयोजन फीजी में किया। भारतीयों को फीजी जमीन पर अपना अधिकार चाहिए था ताकि वह वहां खेती कर अन्न उगाया जा सकें। इस बात का चित्रण भी कवि ने अपनी कविता में किया है। ‘हमें अब जमीन दो, हम इसमें हल चलाएँगे, अगर खिसक गया वक्त हाथ से तो हम सब पछताएंगे।‘ आम भारतीय भी इसी तरह फीजी में हिंदी साहित्य की लेखनी को अपनी शक्ति बनाते हुए अपनी भाषा को जीवित रखने का पूरा प्रयास करते रहें। इस बात को स्पष्ट करते हुए हरीश नवल लिखते हैं –
‘‘भाषा सुरक्षित और सबल तभी तक है जब तक वह सृजनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम है, अन्यथा इसके अभाव में उसका विकास दुर्लभ है। लिखित अभिव्यक्ति के लिए भाषा पर अधिकार होना आवश्यक है। यह अधिकार सीखी हुई भाषा पर उतना कभी नहीं होता जितना कि अपनी मातृभाषा पर होता है। यही कारण है कि गिरमिटिया देश के कवियों ने अपनी कविता अपनी मातृभाषा में लिखी थी। कवियों ने फीजी बात अर्थात फीजी हिंदी में अपनी लेखनी चलाई। फीजी में कमला प्रसाद मिश्र, जोगिंदर सिंह, प्रोफेसर अमरजीत सिंह आदि ने अपने भावों को प्रकट किया। विमलेश कांति इनकी भाषिक संरचना पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं, ‘‘प्रवासी भारतीयों के मध्य हिंदी का स्वरूप गिरमिट काल में जो बना वह उनकी अपनी बोलियों और भारतीय भाषाओं का सम्मिश्रण रूप था। इसमें स्थानीय भाषाओं के शब्द थे। अवधी और भोजपुरी क्षेत्र से आए अधिकांश गिरमिटों की भाषा में कहीं भोजपुरी की प्रमुखता थी तो कहीं अवधि की। इन मिश्रित रूप में फीजी में अवधि और अंग्रेजी भाषा का तथा सूरीनाम में अवधि स्त्रागतो और डच का तथा नेताली में भोजपुरी के साथ अफ्रीकांस का मिश्रण हुआ और नए हिंदी भाषा रूपों का उदय हुआ, जो फीजी बात सरनामी तथा नेताली नामों से इन देशों में जाना जाने लगा।’’
आज फीजी में 3 लाख से अधिक लोग हिंदी भाषा-भाषी हैं। जोगिंदर सिंह को फीजी का प्रेमचंद कहा जाता है। विवेकानंद शर्मा जो फिजी में जन्मे उन्होंने फीजी को तुलसी की सांस्कृतिक देन पर अपना पीएचडी का प्रबंध उपाधि हेतु गुजरात के आणंद विश्वविद्यालय में सादर किया। वही कमला प्रसाद मिश्र ने हिंदी प्रचार-प्रसार का कार्य ‘दीनबंधु’ और ‘जागृति’ नामक पत्रिका के माध्यम से किया और उन्हें विश्व हिंदी पुरस्कार से भारत सरकार ने सम्मानित भी किया। इन्हें फीजी के राष्ट्रकवि के रूप में जाना जाता है। फीजी में कविता के साथ-साथ कहानी एवं उपन्यास भी लिखे गए, जो साहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
फीजी के बारे में पहली हिंदी पुस्तक तोताराम सनाढ्य की थी, जो सन 1914 में ‘फीजी में मेरे इक्कीस वर्ष’ शीर्षक से छपी थी। इससे फीजी में गए भारतीय लोगों की दुर्दशा का ज्ञान हुआ। इस पुस्तक के प्रेरक थे पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी। चतुर्वेदी जी पहले भारतीय हिंदी लेखक थे, जिन्होंने प्रवासी भारतीयों की विकट समस्याओं पर पुस्तकें लिखकर देश को अवगत कराया। कथा के क्षेत्र में फीजी के ज्ञानीदास की चार पुस्तकें प्रकाशित हुईं। भारतीय उपनिवेश, फीजी गुप्त शक्तियां, फीजी गाल्पिका तथा मृदुला, पंडित कमला प्रसाद मिश्र की भूली हुई कहानियां आज भी वहां के घरों में मिल जाती हैं। जोगेंद्र सिंह कवल के चार उपन्यास छपे हैं- करवट, सवेरा, धरती मेरी माता एवं सात समुद्र पार। उनका एक कविता संग्रह ‘यादों की खुशबू’ तथा ‘मेरा देश, मेरे लोग’ भी प्रकाशित हुए हैं। इन पुस्तकों में फीजी के प्रवासियों के जीवन का इतिहास है। हिंदी कवियों में कमलाप्रसाद मिश्र सर्वाधिक प्रसिद्ध है। सुरेश ऋतुपूर्ण ने उन पर कमला प्रसाद मिश्र की कविताएं तथा डॉ विवेकानंद शर्मा ने फीजी के राष्ट्रीय कवि कमला प्रसाद मिश्र की काव्य पुस्तकें प्रकाशित करवाई। फीजी के प्रवासी साहित्य में अमरजीत कौर के कविता संग्रह ‘चलो चलें उस पार’ तथा ‘उपहार’ एवं जोगिंदर सिंह कंवल के संपादन में प्रकाशित फीजी का हिंदी काव्य साहित्य भी उल्लेखनीय हैं। फीजी के कुछ अन्य हिंदी रचनाकार हैं – काशीराम कुमुद, महावीर मिश्र, बाबू हरनाम सिंह हरनाम, महेंद्र चंद्र शर्मा, विनोद ज्ञानदास, ईश्वर प्रसाद चौधरी, रामनारायण, सलीम बख्श, अनुभवानंद, आनंद पंडित, हरीश शर्मा, बलराम वशिष्ट, बाबू कुंवर सिंह, सुखराम, रामअवतार गुप्त, अक्षैबर सिंह, अमरजीत कंवल, विजेंद्र सिंह, राम नारायण गोविंद, बाबूराम अरुण, आर.एस प्रसाद, मुनि करुणागत नायर आदि।
फीजी में प्रवासियों के संघर्ष और विकास की गाथा को अंत:करण से महसूस करने की आवश्यकता है। विश्व हिंदी सम्मेलन के माध्यम से हिंदी प्रेमी फीजी के मंच पर एकत्रित होकर हिंदी की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय भूमिका पर विचार करेंगे। साथ ही हिंदी भाषा के माध्यम से मानव मूल्यों की विभिन्न समस्याओं के समाधान खोजने की भी कोशिश होगी। हिंदी के बढ़ते वर्चस्व को लक्ष्य कर उसके विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित होने की प्रबल संभावनाओं का साक्षात्कार इस देश के अमर शहीदों को पूर्व में ही हो चुका था। 2 मार्च 1930 को गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षता करते हुए अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था, ‘मुझे तो वह दिन दूर दिखाई नहीं देता, जब हिंदी साहित्य अपने सौष्ठव के कारण जगत साहित्य में अपना विशेष स्थान प्राप्त करेगा। हिंदी भारत जैसे विशाल देश की राष्ट्रभाषा की हैसियत से न केवल महाद्वीप के राष्ट्रों की पंचायत में बल्कि संसार भर के देशों की पंचायत में एक साधारण भाषा के समान न केवल बोली भर जाएगी अपितु अपने बल से संसार भर की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर भरपूर प्रभाव भी डालेगी। हिंदी की बढ़ती साहित्यिक शक्ति को लक्ष्य कर उसके भावी विकास की स्वर्णिम संभावनाओं से तो हम सब परिचित हैं ही, यह हिंदी की शक्ति का मात्र एक पक्ष है। अब हिंदी साहित्य के साथ-साथ प्रशासन, बाज़ार, सिनेमा, अनुवाद, संचार आदि विविध क्षेत्रों में उत्तरोत्तर समृद्ध हो रही है। यही कारण है कि फीजी के संविधान ने तो संसद में हिंदी के प्रयोग का प्रावधान किया है और इस सृष्टि ने भी विश्व में उषा की पहली किरण के स्वागत का गौरव फीजी को दिया है तो क्यों ना हम भी अपने वंशजों की विपरीत विषम परिस्थिति में अपनी प्रतिभा, मेधा और मातृभूमि प्रेम को जागृत करने की भावना का सम्मान करें और इन भारतवंशियों द्वारा रचित साहित्य को मुख्यधारा से जोड़कर हिंदी भाषा और साहित्य का मान बढ़ाएं। फीजी हिंदी साहित्य गिरमिट इतिहास का दस्तावेजीकरण है, जो हमारे भारतवंशियों के संघर्ष और विकास की गाथा सुनाता है।
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