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गीता में ज्योतिष
( ब्रह्म्म्लीन श्रद्धेव स्वामी : श्री रामसुखदासजी महाराज )
mystic power – महाप्रलयपर्यन्त कालचक्रं प्रकीर्तितम्। ‘कालचक्रविमोक्षार्थ श्रीकृष्णं शरणं ब्रज॥
ज्योतिष में काल मुख्य है अर्थात् काल को लेकर ही ज्योतिष चलता है। उसी काल को भगवान् ने अपना स्वरूप बताया है कि ‘गणना करने वालों में मैं काल हूँ’-‘काल: कलयतामहम्’ (१०। ३०)
उस काल की गणना सूर्य से होती है। इसी सूर्य को भगवान ने “ज्योतिषांरविरंशुमान्‘ (१०। २१) कहकर अपना स्वरूप बताया है। सत्ताईस नक्षत्र होते हैं। नक्षत्रों का वर्णन भगवान् ने नक्षत्राणामहं शशी’ (१०।२१) पदों से किया है।
इनमें से सवा दो नक्षत्रों की एक राशि होती है। इस तरह सत्ताईस नक्षत्रों की बारह राशियाँ होती हैं। उन बारह राशियों पर सूर्य भ्रमण करता है अर्थात् एक राशि पर सूर्य एक महीना रहता है। महीनों का वर्णन भगवान ने “मासानां मार्गशीर्षोहम्‘ (१०। ३५) पदों से किया है। दो महीनों की एक ऋतु होती है, जिसका वर्णन “ऋतूनां कुसुमाकर:‘ पदों से किया गया है। तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। अयन दो होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन; जिनका वर्णन आठवें अध्याय के चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में हुआ है। दोनों अयनों को मिलाकर एक वर्ष होता है। लाखों वर्षो का एक युग होता है। जिसका वर्णन भगवान् ने “सम्भवामि युगे युगे‘ (४।८) पदों से किया है।
ऐसे चार (सत्य, त्रेता, द्वाप’ और कलि) युगों की एक चतुर्युगी होती है। ऐसी एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन (सर्ग) और एक हजार चतुर्युगी की ही ब्रह्मा की एक रात (प्रलय) होती है, जिसका वर्णन आठवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक किया गया है। इस तरह ब्रह्मा की सौ वर्ष की आयु होती है। ब्रह्मा की आयु पूरी होने पर महाप्रलय होता है, जिसमें सब कुछ परमात्मा में लीन हो जाता है। इसका वर्णन भगवान् ने “कल्पक्षये’ (९।७) पद से किया है। इस महाप्रलय में केवल “अक्षयकाल’-रूप एक परमात्मा ही रह जाते हैं, जिसका वर्णन भगवान् ने ‘अहमेवाक्षय: काल: (१०। ३३) पदों से किया है।
तात्पर्य यह हुआ कि महाप्रलयतक ही ज्योतिष चलता है अर्थात् प्रकृति के राज्य में ही ज्योतिष चलता है, प्रकृति से अतीत परमात्मा में ज्योतिष नहीं चलता। अतः मनुष्य को चाहिये कि वह इस प्राकृत कालचक्र से छूटने के
लिये, इससे अतीत होने के लिये अक्षयकालरूप परमात्मा की शरण ले।
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