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गुरु शिष्य गुढ़ तत्त्व विवेचन
आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र (प्रशासनिक सेवा) वेदाचार्य ज्योतिषाचार्य आयुर्वेदरत्न
‘शिव‘, ‘शक्ति ‘, ‘नारायण‘, ‘कृष्ण, ‘राम’ भगवद् नाम ऐक्य
शिष्य – गुरुवर ! जब यह समस्त ब्रह्मांड एक ही परम सत्ता की कल्पना का विस्तार है तो अनेक लोग उसे अलग अलग नाम देकर अपने पसंद के नाम को ही सर्वश्रेष्ठ कहकर झगड़ा क्यों करते रहते हैं?
श्रीगुरु – अपने अपने संज्ञानात्मक प्रक्षेप के अनुसार अनेक लोग एक ही परमसत्ता को विभिन्न नाम दे देते हैं। आध्यात्मिक साधक को इन नामों और उनसे जुड़ी महामनस्कता के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि इन सबके भीतर एक समान आत्मा रहती है।
शिष्य – मैने कई लोगों को ‘शिव‘, ‘शक्ति ‘ और ‘नारायण‘ इन नामों पर बहस करते देखा है?
श्रीगुरु – तुमने कभी इन नामों का विश्लेषण करके देखा है? नहीं , तो चलो इनका विश्लेषण करके देखें । ‘शिव‘ का वास्तविक अर्थ क्या है , शिव हैं अखंडसत्ता और शक्ति‘ का अर्थ है क्रियात्मक सत्ता। शिव और शक्ति एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं। किसी भी क्रिया में दो सिद्धान्त होते हैं एक ज्ञानात्मक और दूसरा क्रियात्मक। मानलो आप कोई मशीन चला रहे हैं, इसमें दो सिद्धान्त हैं एक मशीन को मस्तिष्क की सहायता से दिशा निर्देश देना, अर्थात् संज्ञानात्मक और दूसरा मासपेशियां जो संज्ञान के दिशा निर्देश पर मशीन संचालित करतीं हैं, अर्थात क्रियात्मकता। ब्रह्माॅंड भी संज्ञानात्मक सिद्धान्त और क्रियात्मक सिद्धान्त दोनों से मिलकर बना है। संज्ञानात्मक सिद्धान्त हैं परमपुरुष और क्रियात्मक सिद्धान्त है परमाप्रकृति। सिद्धान्ततः यह दो पृथक सत्ताओं के होने का आभास कराता है पर आन्तरिक रूप से वे एक ही हैं। शिव और शक्ति का सम्मिलित नाम है ब्रह्म। इसी प्रकार ‘‘नारायण‘‘। यह ‘नार‘ और ‘अयन‘ इन दो शब्दों से मिलकर बना है, और उसका आन्तरिक अर्थ है परमपुरुष। नार शब्द के संस्कृत में तीन अर्थ हैं, पहला है भक्ति, जैसे नारद माने भक्ति देने वाला। दूसरा अर्थ है पानी, और तीसरा अर्थ है प्रकृति अर्थात् परम क्रियात्मक शक्ति। और अयण माने आश्रय, इसलिये नारायण माने हुअा प्रकृति का आश्रय। परम क्रियात्मक शक्ति का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। इसलिये शिव हुए परम चेतना, नारायण भी परमचेतना हैं अतः शिव और नारायण में कोई अंतर नहीं है।
शिष्य – परन्तु एक ही सत्ता को अनेक नाम देते ही क्यों हैं जैसे कृष्ण और माधव?
श्रीगुरु -सभी लोग अपने मानसिक विचारों को शब्दों में व्यक्त करने के लिये भाषा का सहारा लेते हैं । जैसे, किसी वस्तु को देखने पर उससे आने वाली तरंगों द्वारा आॅंखों के माध्यम से मन पर जो कंपन किया जाता है उसे अनुभव करते हुए व्यक्ति अपने शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास करता है। देश काल और पात्र के अनुसार इस अभिव्यक्तिकरण में अन्तर आता जाता है और एक ही सत्ता अनेक नाम की हो जाती है। जैसे, किसी वस्तु से निकलने वाली तरंगें किसी स्थान और समय पर किसी व्यक्ति के द्वारा ‘धव‘ ‘धव‘ ‘धव‘ का अनुभव कराती हैं तो वह उसे ‘धवल‘ अर्थात् सफेद कहने लगता है, परंतु अन्य परिवेश और स्थान पर कोई व्यक्ति उन्हीं कंपनों को अपने मानसिक संवेदन में ‘व्ह‘ ‘व्ह‘ ‘व्ह‘ अनुभव करता है तो शब्दों में व्यक्त करने के लिये वह वातावरण के अनुसार ‘व्हाइट‘ कहने लगता है, अतः एक ही ‘सफेद’ रंग को अलग अलग मानसिक परिवेशों मे जन्मे व्यक्ति धवल या वाइट दो अलग अलग नाम दे देते हैं। इस प्रकार सभी द्रश्यमान पदार्थों का प्रारंभिक रूप से नाम दिया जाता है। फिर व्यवहार में इन्हीं शब्दों से वाक्य विन्यास और साहित्य जन्म लेता है। अब हम अन्य नाम ‘माधव‘ लेते हैं। संस्कृत में ‘मा‘ के तीन अर्थ हैं, पहला है ‘‘नहीं‘‘ जैसे मा गच्छ, अर्थात् मत जाओ। अन्य अर्थ है इंद्रियाॅं। इसलिये जीभ को भी ‘मा‘ कहते हैं, और तीसरा है परम क्रियात्मक सत्ता, परमा प्रकृति, लक्ष्मी। ‘धव‘ माने नियंत्रक या पति, इसी कारण जिस महिला का पति नहीं होता उसे विधवा कहते हैं। ‘धव‘ का अन्य अर्थ सफेद भी है। इसलिये माधव का मतलब हुआ जो परमा प्रकृति को नियंत्रित करता है अर्थात् परमपुरुष। ‘कृष्ण‘ का अर्थ है आकर्षण करने वाला, अतः वह जो विश्व ब्रह्माॅंड के संपूर्ण अस्तित्व को अपनी ओर खींच रहे हैं वह कृष्ण हैं। सभी जाने अंजाने उन्हीं के आकर्षण में बंधे हुए हैं इसलिये कृष्ण परमपुरुष हैं। इसप्रकार कृष्ण/माधव भी शिव और नारायण की तरह एक ही सत्ता को प्रदर्शित करते हैं।
शिष्य – तो क्या ‘राम‘ को भी इसी प्रकार समझाया जा सकता है?
श्रीगुरु – हां
‘राम‘ यानी, रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः अर्थात् जिसमें योगीगण रमते हैं वह राम। धातु ‘रम‘ और प्रत्यय ‘घईं ´ को मिलाकर राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। राम का अन्य अर्थ है, राति महीधरा राम अर्थात् अत्यंत चैंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, रावणस्य मरणम् इति रामः। रावण क्या है? आप जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईशान , वायव्य, नैरित्य, आग्नेय, ऊर्ध्व और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकने के कारण मन के भृष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः जीव मन की इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त रहने को रावण कहते हैं। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भृष्ट करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली, प्रवृत्तियों से संघर्ष करना होगा अर्थात् रावण का वध करना होगा। रावणस्य मरणम् इति रामः, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर राम राज्य पाता है। इसलिये राम माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम माने, “राम” क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है, रावण मर जाता है। इस प्रकार नारायण, शिव, माधव और राम एक ही हैं। इसलिये किसी को भी भगवान के नामों की महानता को लेकर झगड़ना नहीं चाहिये।
इसलिये ही श्री कृष्णा ने गीता में जोर है दिया की शिव, राम, नारायण, ब्रम्हा सभी में मैं हुँ फिर भी हम अज्ञानी बन कर सबको अलग-अलग मानते है और इनमे भेद करते है
श्री कृष्ण शरणं मम
सदैव याद रखें और व्यवहार में आचरण करें। ईश्वर दर्शन अवश्य होंगे।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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