हम परमात्मा को अपने ऊर्ध्वस्थ मूल (कूटस्थ) में ढूंढें
कृपा शंकर मुद्गिल-
हम प्रत्यक्ष परमात्मा की उपासना करें, न कि उनकी अभिव्यक्तियों या प्रतीकों की। भगवान गीता में कहते हैं —.
“ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१५:१।।”
श्री भगवान् ने कहा — (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है।।
यह श्लोक हमें कठोपनिषद् में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष का स्मरण कराता है। कठोपनिषद में यमराज ने ब्रह्म की उपमा पीपल के उस वृक्ष से की है, जो इस ब्रह्माण्ड के मध्य उलटा लटका हुआ है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं, और शाखाएँ नीचे की ओर लटकी हुई हैं। यह सृष्टि का सनातन वृक्ष है जो विशुद्ध, अविनाशी और निर्विकल्प ब्रह्म का ही रूप है।
कठोपनिषद् के द्वितीय अध्याय की तृतीय वल्ली का प्रथम मन्त्र कहता है —
“ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाखः एषोऽश्वत्थः सनातनः । तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ।
तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन ।। एतद् वै तत् ।।१।।”
अर्थात् ऊपर की ओर मूलवाला और नीचे की ओर शाखावाला यह सनातन अश्वत्थ वृक्ष है। वह ही विशुद्ध तत्व है वह (ही) ब्रह्म है। समस्त लोक उसके आश्रित हैं, कोई भी उसका उल्लघंन नही कर सकता। यही तो वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।
अश्वत्थ शब्द में श्व का अर्थ आगामी कल है, त्थ का अर्थ है स्थित रहने वाला। अतः अश्वत्थ का अर्थ होगा — वह जो कल अर्थात् अगले क्षण पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है। अश्वत्थ शब्द से इस सम्पूर्ण अनित्य और परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् की ओर संकेत किया गया है। इस श्लोक में कहा गया है कि इस अश्वत्थ का मूल ऊर्ध्व में अर्थात् ऊपर है।
इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व कहा गया है जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है। वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से ही प्राप्त होता है। इसी प्रकार हमें भी हमारा भरण-पोषण सच्चिदानंद ब्रह्म से ही प्राप्त होता है। हमें हमारे ऊर्ध्वमूल को पाने का ही निरंतर प्रयास करना चाहिए, यही हमारा सर्वोपरी कर्तव्य है। यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम दूसरों के लिए कर सकते हैं। जो इस जीवन वृक्ष के रहस्य को समझ लेता है वही वेदवित है।
हमारा ऊर्ध्वमूल कूटस्थ है। ध्यान साधना द्वारा कूटस्थ में ही हमें परमात्मा का अनुसंधान करना होगा। इसकी विधि उपनिषदों में व गीता में दी हुई है,पर कोई समझाने वाला सिद्ध आचार्य चाहिए जो श्रौत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ भी हो। जिस दिन हमारे में पात्रता होगी उस दिन भगवान स्वयं ही आचार्य गुरु के रूप में आ जायेंगे। अतः हर कार्य, हर सोच परमात्मा की कृपा हेतु ही करनी चाहिए।
परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! श्रीगुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में सर्वव्यापी पारब्रह्म परमात्मा का ध्यान करते-करते वहाँ एक ब्रह्मज्योति का प्राकट्य होता है। जब वह ज्योति प्रकट होती है तब उसके साथ-साथ अनाहत नाद का श्रवण भी होने लगता है। उस अनंत सर्वव्यापी विराट ज्योतिर्मय अक्षर ब्रह्म को ही योग साधना में कूटस्थ ब्रह्म कहते हैं। उस सर्वव्यापी कूटस्थ का ध्यान ही प्रत्यक्ष परमात्मा का ध्यान है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -: