हंस-परमहंस
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- शरीर के भीतर आज्ञा चक्र को ही गुरु चक्र भी कहा जाता है। यह भ्रूमध्य के पीछे मस्तिष्क के केन्द्र में है। यहां तक मेरुदण्ड केन्द्र में मूलाधार से ऊपर उठती हुयी सुषुम्ना नाड़ी के दोनों भाग इड़ा-पिङ्गला आते हैं। इससे ऊपर जहां इड़ा-पिङ्गला-सुषुम्ना का मिलन होता है, वह त्रिकूट या कैलास पर्वत है जहां गुरु रूप अद्वैत शिव हैं। आज्ञा चक्र के दो पद्म हैं, जो शिव-शक्ति का मिलित रूप हैं। इनको ही वेद में दो सुपर्ण या हंस कहा गया है। आकाश में गतिशील प्राण हंस है। मस्तिष्क के भीतर के २ हंस भौतिक रूप में दाहिने-बांये भाग हैं। इनके भीतर जितना सम्बन्ध सूत्र होगा, मनुष्य की उतनी अधिक प्रतिभा होगी। वेद में कहा है कि जीवन का या स्वचालित संस्था का यह आधार है। जब एक कर्म में लिप्त रहता है, तो दूसरा उस पर नजर रखता है, जिससे कोई भूल हो तो सुधार किया जा सके। इसकी नकल पर स्वचालित उपकरण बने हैं, जिनमें दुहरा नियन्त्रण रहता है। इन दो सुपर्णों को आत्मा-जीव (बाइबिल में आदम-ईव) कहा है।
वीभत्सूनां सयुजं हंसं आहुरपां दिव्यानां सख्ये चरन्तम्।
अनुष्टुभमनु चचूर्यमाणं इन्द्रं निचिक्युः कवयो मनीषा॥ (ऋक् १०/१२४/९)
= आकाश में शून्य में भी फैला विकिरण इन्द्र है (इन्धि दीप्तौ-धातुपाठ ७/११, इन्धन = जलावन)। यह माया (आवरण द्वारा सीमित होकर विभिन्न पदार्थों का रूप लेता है (रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव-कठोपनिषद् ५/९-१०, बृहदारण्यक २/५/१९)। वीभत्सु = निराश्रय, डरने वाला। वायु या गतिशील प्राण हंस के साथ सयुज (जुड़ कर) वह आकाश में चल सकता है। इसके आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक अर्थ हैं। आध्यात्मिक में प्रति अक्षर के ८ खण्ड हो सकते हैं-चूर्ण रूप में अनुष्टुप् (प्रति पाद ८ अक्षर) है। उसकी शक्ति के ९ विन्दु हंस हैं-वाचामष्टापदीमहं, नवशक्तिमृतस्पृशम् (ऋक् ८/७६/१२)। सूर्य से आने वाली किरण सुषुम्ना है, शरीर की सुषुम्ना से उसका सम्बन्ध है। वह चन्द्र के गन्धर्व तत्त्व से प्रभावित हो कर मन को नियन्त्रित करता है। गन्धर्व ब्रह्माण्ड के अप् तत्त्व में (अप्सरा) नक्षत्रों के अनुसार बदलता है-
सुषुम्नः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो (अप्सरसो वेकुरयः) वेकुरयः (तैत्तिरीय संहिता ३/४/७/१)
शरीर के भीतर सूर्य केन्द्र नाभि से सुषुम्ना मार्ग से नासिका रन्ध्रों से श्वास को नियन्त्रित करता है। श्वास गति को हंस (हं + सं) या विपरीत क्रम में सोऽहं (Swan) कहते हैं। इन हंसों के ऊपर केन्द्र में आरूढ़ सरस्वती है। सरस्वती तु या नाड़ी सा जिह्वान्तं प्रसर्पति (योगशिखोपनिषद् ५/२३)। श्वास रूपी हंसों में जिसकी चेतना है वह हंस है। उनके द्वैत से जो ऊपर उठकर अद्वैत का अनुभव करता है, वह परमहंस है।
दो हंस-द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वावत्ति, अनश्नन्नन्यो अभिचाकषीति॥
(मुण्डक उप. ३/१/१, श्वेताश्वतर उप. ४/६, ऋक् १/१६४/२०, अथर्व ९/९/२०)
सुषुम्ना चेतना या ज्ञान का वृक्ष है। उसके मध्य (आज्ञा चक्र) में २ सुपर्ण (हंस, पक्षी) रहते हैं (परिषस्वजाते-पड़ोस में)। उनमें अन्य (एक) पिप्पल (पिब् + फल = जिस फल में आसक्ति हो) को स्वाद सहित खाता है। अन्य (दूसरा) बिना खाये (बिना आसक्ति = अनश्नन्) केवल देखभाल करता है। आकाश में भी सृष्टि निर्माण का क्रम (स्वयम्भू से पृथ्वी तक) स्कम्भ या वृक्ष है। इसके हर स्तर पर ब्रह्म के २ रूप हैं, निर्विशेष निर्लिप्त रहता है, विशिष्ट रूप विविध या विशिष्ट सृष्टि करता है। निर्विशेष में भेद नहीं होने के कारण उसका वर्णन नहीं होता, उपवर्णन हो सकता है। विविध सृष्टि के देवों के अलग अलग बाह्य रूप या लिंग (चिह्न) है-
एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं ब्रह्मादयो विविध लिंगभिधाभिमानाः (गजेन्द्र मोक्ष)।
आज्ञा चक्र केन्द्र के चारों तरफ मस्तिष्क तथा उसके नीचे उपमस्तिष्क के ४ खण्ड भौतिक रूप में शिव के ४ मुख हैं-ईशान, तत्पुरुष, तत्पुरुष, सद्योजात। बीच का केन्द्र अघोर मुख है जिसमें चारों लीन होते हैं। आज्ञा के दोनों तरफ के भागों का परस्पर सम्बन्ध से ही १८ प्रकार की विद्या आती है (शिव के ४ मुखों का समन्वय-मालिनी विजयोत्तर तन्त्र, गोपीनाथ कविराज का-तान्त्रिक साधना और सिद्धान्त, अध्याय १)
समुन्मीलत् संवित्-कमल मकरन्दैक रसिकं, भजे हंस-द्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम्।
यदालापादष्टादश गुणित विद्या परिणतिः, तदादत्ते दोषाद् गुणमखिल-मद्भ्यः पय इव॥ (शंकराचार्य, सौन्दर्य लहरी, ३८)
संवित्-कमल को बाइबिल में ज्ञान का वृक्ष कहा है। मस्तिष्क में जो सूचनाओं का संग्रह है, वह अप् = जल है। उसके भीतर से क्रमबद्ध ज्ञान (जो वाक्य में लिखा जा सके) दूध जैसा उपयोगी है। यही मन के हंस द्वारा जल से दूध निकालना है। भौतिक रूप में मान सरोवर का हंस जल में दूध के मिश्रण से दूध नहीं निकाल सकता।
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