हनुमान जी की जन्म-कथा
शृंगी ऋषि कृष्णदत्त जी महाराज-
मुझे महाराजा हनुमान की विवेचना स्मरण आने लगती है। उनका जीवन स्मरण आने लगता है। वह माता की लोरियों का पान कर रहा है, माता अपने प्यारे पुत्र को उपदेश दे रही है और लोरियाँ देती हुई कहती है कि ‘‘हे बाल्य! तू महान् बन। हे बाल्य! तू ज्ञानी, वैज्ञानिक बन।’’ मुझे स्मरण है महाराजा हनुमान का जीवन कितना ज्ञान-विज्ञान में रमण करने वाला था। सूर्य की जितनी विद्याएं थीं, वह सर्वत्र विद्याओं को निगलने वाला एकाकी हनुमान कहलाता था।
यह तो तुम्हें प्रतीत है कि हनुमान पवन-पुत्र कहलाते थे। वे ‘अंजना’ के पुत्र थे। महाराजा महीवृतकेतु की कन्या का नाम अंजना था। महाराजा ‘महेन्द्र’ के राजकुमार ‘पवन’ कहलाते थे। तुम्हें यह प्रतीत होगा, जब भयकर वनों में ये रहते थे तो उनकी माता अंजना सदैव अपने बालक को शिक्षा देती थी और शिक्षित बनाती हुई कहा करती थी कि ‘‘हे बाल्य! सूर्य-विद्या पर भी तुम्हारा आधिपत्य होना चहिये।’’ तो जब महाराजा हनुमान जी का ‘नामकरण अब्रही’ नामकरण संस्कार हुआ और वे आचार्य के कुल में प्रविष्ट हुए। उनके राजपुरोहित सुरेश्वर ऋषि कहलाते थे। सुरेश्वर ऋषि महाराज उन्हें धनुर्विद्या प्रदान करते थे तथा सूर्य-विद्या प्रदान करते थे। यह सूर्य क्या-क्या कार्य करता है, सूर्य क्या है, इसके ऊपर अपनी टिप्पणियाँ, अपने विचार देते रहते थे।
बाल्यकाल में ही महाराज हनुमान जी ने ‘काल ब्रीहि वृत्तेः’ सूर्य-विद्या को अपने में निगलने का प्रयास किया, सूर्य-विद्या को निगल लिया। सूर्य-लोक को नहीं निगला जाता है। सूर्य में जो विद्या है, सूर्य में जो प्रतिभा है, उस प्रतिभा को निगलने का नाम ही सूर्य को निगलना है। सूर्य प्रातःकाल में उदय होकर संसार को जागरूक कर देता है, नाना प्रकार की वनस्पतियों को तपा देता है, पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार के खाद्य और खनिजों को तपा देता है। सूर्य की आभा से अन्तरिक्ष में विद्युत का भरण हो जाता है। विद्युत का भरण होते हुए सर्वत्र सूर्य से विद्या प्राप्त होती है, परन्तु ‘प्राणायाम ब्रह्मं लोकं ब्रीहि वृत्तः’ वेद का आचार्य कहता है कि यह जो प्राणत्व है, प्राण है यह विद्युत् में प्रवेश कर रहा है। प्राण-शक्ति को लाने का प्रयास करना, प्राण को ऊँचा बनाना परमात्मा की अनुपम वेद की विद्या को जानना है।
आज कोई भी मानव ऊँचा बनना चाहता है, मानवता को लाना चाहता है तो अपने गृह को स्वर्ग बनाना होगा और गृह को स्वर्ग बनाने के लिये विद्यालय को स्वर्ग बनाना होगा और विद्यालय जब स्वर्ग बन जाता है तो राष्ट्र भी स्वर्गमय हो जाता है। परिणाम क्या, हनुमान जी ने भी यही कहा था। वे अपने उपदेश में अपने वाक्यों में कहा करते थे कि ‘‘जब मैं आचार्य कुल में प्रवेश करता रहता था तो आचार्य कुल में जो ब्रह्मचारी अध्ययन करते थे, ब्रह्मचारियों के द्वारा किसी प्रकार का व्यसन उनके समीप नहीं रहता था। वे तो सदैव अपने प्रभु का चिंतन करते हुए, आचार्य के चरणों को स्पर्श करते हुए अपनी विद्या में सदैव पारायण रहते, विद्या को जानने का प्रयास करते।’’ उन्होंने कहा है कि ‘‘संसार को ऊँचा बनाना है तो हमें सूर्य-विद्या को जानना चाहिये। यह तेजोमयी विद्या कहलाती है, यह अग्निमय विद्या है। सूर्य का हमें तप भी करना है, सूर्य की विद्या को जानकर नाना प्रकार के यन्त्रों का अध्ययन करना है।’’
जब माता अंजना के गर्भस्थल में बालक था तो उस काल में वह सूर्य का तप करती थी। सूर्य का तप क्या होता है? सूर्य की प्रातःकाल में जो रश्मियाँ आती हैं, वे जो किरणें आती हैं, उन रशिमयों को वे उषा-काल में पान करती। माता अंजना अन्न-जल का पान नहीं करती थी, सूर्य की नाना प्रकार की जो किरणें हैं, उसमें जो तत्व हैं उन्हें ग्रहण करती रहती थीं और ग्रहण करके उसको निगलती हुई सूर्य-विद्या में पारायण होती थी। मुझे वह काल स्मरण आता रहता है, माता अंजना का आपातकाल तो था ही परन्तु देखो तो अंजना अपने जीवन को सुरक्षित बनाने के लिये, बाल्य को ऊँचा बनाने के लिये उन किरणां को अपने में धारण करती रहती। आह! नग्ण हो करके ‘उदर ब्रीहि’, उन किरणों को निगलती रहती थी और निगल करके कहा करती थी ‘‘हे प्रभु! हे देव! आज तू मेरा स्वामित्व है। मेरे गर्भस्थल से जब बाल्य का जन्म हो तो वह महान् और पवित्र होना चाहिये जो मेरे गर्भाशय को ऊँचा बनाने वाला हो।’’
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