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हनुमान जी की नवविधा भक्ति
श्री आदित्य नारायण झा ‘अनल’-
हनुमानजी की भक्ति ही उनकी शक्ति है। हनुमानजी पूर्ण आत्मविश्वास से कहते हैं,
न मे समा रावणकोट्योऽधमाः ।
रामस्य दासोऽहम् अपारविक्रमः ।।
अर्थ : – करोड़ों रावण भी पराक्रम में मेरी बराबरी नहीं कर कर सकते,इसलिए नहीं कि मैं बजरंगबली हूं, अपितु इसलिए कि प्रभु श्रीराम मेरे स्वामी हैं, मुझे उन्हीं से अपरंपार शक्ति प्राप्त होती है ।
सर्वोच्च स्तर के भक्त का भगवान में विलीन होना ‘एक बार श्रीराम ने हनुमान से पूछा कि आपमें और मुझमें क्या संबंध है ?’
हनुमानजी ने श्रीरामजी से कहा,
‘देहदृष्ट्या तू दासोऽहं जीवदृष्ट्या त्वदंशकः ।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चला मतिः ।।
अर्थ : –
१. देह दृष्टि से मैं आपका दास हूं । आप जो कहेंगे मैं वह करूंगा (कर्मयोग)
२. जीव दृष्टि से मैं आपका अंश हूं (भक्ति योग)
३. आत्मदृष्टि से आप और मैं एक ही हैं; क्योंकि सभी की आत्मा एक ही है (ज्ञानयोग)
यदृच्छया लब्धमपि विष्णोर्दाशरथेस्तु यः ।
नैच्छन्मोक्षं विना दास्यं तस्मै हनुमते नमः ।। भक्तिरसामृतसिन्धु,
अर्थ :- साक्षात श्री विष्णु का अवतार रहे दशरथ पुत्र श्रीरामजी से अनायास ही मोक्ष मिलना संभव होने पर भी उनका दास होकर रहना ही स्वीकार करने वाले हनुमानजी को मेरा नमस्कार है ।
आगे:- गुरुदेव ब्रह्मलीन डॉ.रामानंद शास्त्री आनंद हनुमानजी की दास्य भक्ति की महिमा इस प्रकार बताए हैं ।
दास्य भक्ति का अनुपम उदाहरण-
सीता जी का प्रेम श्रीराम जी के प्रति ऐसा उच्च कोटि का प्रेम है जिसमें पत्नी दास्य-भाव में आकर पति के चरण-कमलों को दबाती हैं, उनकी एक दास की भांति सेवा करना चाहती हैं । यहां भक्ति की श्रेष्ठता है, उनके प्रेम में अभिमान और अद्वैत का लेश-मात्र भी अंश नहीं है,इसलिए कि उनकी प्रेममयी भक्ति दास्यभाव से भरी है । सीताजी सदा अपने पति के चरणों की सेवा करना चाहती हैं । वे इसीसे अपने प्राणधन को संतुष्ट करना चाहती हैं । वे श्रीराम से एकरूप होते हुए भी भक्ति के कारण भगवान से एकत्व भाव में नहीं आतीं । वे स्वयं भगवान राम की अर्धांगिनी हैं और सकल सृष्टि की स्वामिनी हैं । उनकी भक्ति श्रीराम को भी अपने प्रेम के वश में रखनेवाली है, परंतु इसका उन्हें तनिक भी अहं नहीं है । अतः भगवान श्रीराम को कभी भी सीताजी में गर्व देखने नहीं मिला। सीताजी विनती करती हैं –
तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहि मोहि रघुबर कै दासी ॥जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥
भावार्थ – सबके हृदय में वास करनेवाले भगवान, मुझे रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी की दासी बनने का सौभाग्य प्रदान करें । जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कोई संदेह नहीं ।
यहां वह भगवान के आगे दास की भांति याचना कर रही हैं । इससे हमें सीखने मिलता है कि सीता जी सर्वगुण संपन्न, राम की शक्ति होते हुए भी उनमें पराकोटि की लीनता, नम्रता और दास्य भाव है ।
वनप्रस्थान से पहले सीताजी प्रभु से कहती हैं –
पाय पखारि बैठि तरु छाहीं । करिहउं बाउ मुदित मन माहीं। श्रम कन सहित स्याम तनु देखें।कहं दुख समउ प्रानपति पेखें।
भावार्थ– आपके पैर धोकर, पेडों की छाया में बैठ कर मैं प्रसन्नचित्त से पंखा झलूंगी । पसीने की बूंदों सहित श्याम शरीर प्राणपति के दर्शन करते दुःख के लिए मुझे समय ही कहां रहेगा ।
सम महि तृन तरुपल्लव डासी।पाय पलोटिहि सब निसि दासी ॥
बार बार मृदु मूरति जोही । लागिहि तात बयारि न मोही ॥
भावार्थ–समतल भूमि पर घास और पेडों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबाएगी । बार-बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा स्पर्श भी न करेगी। माता सीता का सेवाभाव की पराकाष्ठा कितनी है, रामजी की भक्ति में अपने को पूर्णत: उनके चरणों में समर्पित करना चाहती हैं। इसमें ही उनको आनंद मिलता है।सीता माता से हमें सीखने मिलता है कि दास्य भक्ति में भक्त को देवता की शरण जाना आवश्यक है । हम सीता माता के श्रीचरणों में याचना करेंगे कि हे सीता माते ! जैसे आपकी दास्य भक्ति है, वैसी दास्य भक्ति हममें भी बढने दें ।
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