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जानिए भारतवर्ष का उत्तर वैदिक इतिहास !
श्री सचिन त्यागी-
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम से भारतवर्ष में मनुष्यों का जो विभाजन हुआ, उसकी प्रतिध्वनि भी अफलातून की रिपब्लिक में सुनाई देती है, जँहा उसने समाज को तीन भागों (१. Guardians २. Auxiliaries और ३. Craftsmen) में बांटने की बात कही है। यह भी आश्चर्य की बात है कि जैसे भारत में चार वर्ण ब्रम्हा के चार अंगों से उत्पन्न बताया गया है, वैसे ही सुकरात ने भी उन्हें परम-पुरुष से उत्पन्न होना बताया है। प्लाटिनस ने ईश्वर का वर्णन “नेति-नेति” कहकर किया है, जो उपनिषदों का नेतिवाद से प्रभावित दिखता है। ईसवी सन के आरंभ होते होते भारत का दर्शन एशिया माइनर और मिश्र के इलाकों में बहुत प्रख्यात हो गया था।
अरबी सभ्यता के प्रधान केंद्र बगदाद, कैरो (मिश्र) और कारडोवा (स्पेन) बने। बगदाद की स्थापना सन ७३२ में हुई और तभी से वह भारत और यूरोप के बीच व्यापार का प्रमुख केंद्र बन गया। अरबो के पास अपनी खुद की सांस्कृतिक पूंजी काम थी, उन्होंने जो कुछ भी लिया यूनान व भारत से लिया। अरब में भारतीय संस्कृति और ज्ञान का काफी आदर था। अरबो ने भारत के अनेक ग्रंथो का अरबी में अनुवाद किया। हिजरी सन की दूसरी सदी में उन्होंने बौद्ध साहित्य का अरबी में अनुवाद किया जो “किताबुल-बुद” और “बिलावर-वा-बुदासिफ” के नाम से मशहूर है। इसी प्रकार ज्योतिष और गणित की पुस्तकों का अनुवाद उन्होंने “सिन्द-हिन्द” (सिद्धांत) के नाम से, सुश्रुत का अनुवाद “सुश्रुद” के नाम से, चरक का अनुवाद “सिरक” के नाम से, पंचतंत्र का अनुवाद “कलिलादमना” (करटक-दमनक) के नाम से तथा चाणक्य-नीति का अनुवाद “शानक” के नाम से और हितोपदेश का अनुवाद “बिदपा” के नाम से किया। कहते हैं, किताब सिन्दबाद की रचना भी भारतीय कथाओं के आधार पर की गयी थी।
शतरंज का भारतीय खेल भी अरब होकर ही यूरोप पहुँचा, भारत में इस खेल (चतुरंग) का प्रथम उल्लेख बाण (६२५ ई.) की रचना में मिलता है। और तो और जिन अंकों को हम अंतरराष्ट्रीय कहते हैं, वे भी भारत से ही अरब में गये थे और अरबो से यूरोप को मिले। अरबी में अभी तक उन अंकों का नाम “हिन्दसा” है। इसी तरह अरबो का नौबहार भारत के नवविहार का रूपांतरण मात्र है। सिंह की खाल ओढ़ने वाले गधे की कहानी अफलातून की किताब में मिलती है। शुक-सप्तति भी ईरान में तूतीनामा के नाम से प्रचलित थी और वंही से यूरोप पहुँची। अरेबियन नाइट्स की कहानियों की मूल रचना सन ९५० के आस-पास हारून अल रशीद के राज्यकाल में बसरा में हुई थी। इस पुस्तक के लेखक ने स्वीकार किया है कि इन कहानियों का आधार ईरानी, यूनानी और भारतीय है। ऐसप्स फैबुल्स जो जीव-जंतु विषयक कहानियां हैं, वे भी पूरब से पश्चिम को गयी हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि उसमें आने वाले जीव सिंह, शृगाल, हाथी और मयूर, ये सब के सब भारतीय हैं। भारत का शृगाल ही यूरोपीय साहित्य में बदल कर लोमड़ी हो गया है।
ज्योतिष और गणित के प्राचीन आचार्यों में आर्यभट्ट (जन्म ४७६ ई.) का स्थान भी भारत में ही नही, सारे विश्व में बहुत ऊंचा माना जाता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम ग्रहण की भविष्यवाणी करने की विधि निकाली थी। पहले-पहल संसार को यह ज्ञान उन्होंने ही दिया था कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों ओर घूमती है जिसकी वजह से दिन और रात होते हैं। एक से नौ तक के अंक, शून्य का गणित-संबंधी महत्व और दशमलव की पद्धति, इन सारी बातों का आविष्कार भारत में ही हुआ और यंही से ये पद्धति अरब होकर पहले यूरोप और पीछे सारे संसार में फैलीं। बौद्ध प्रचारकों के जरिये यह ज्ञान चीन पहुँचा और बगदाद में इसका प्रचार सन ८५० ई. के लगभग हुआ। बीजगणित का विकास भारत और यूनान दोनो ही देशों में शायद स्वतंत्र रूप से हुआ था। अंग्रेजी में इस विद्या को अलजेब्रा कहते हैं जोकि मूलतः अरबी शब्द अल-जबर है। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि अन्य अनेक विद्याओं की तरह यह विद्या यूरोप वालो को अरब के मार्फत ही मिली है।
पदार्थ विज्ञान में पहला नाम कणाद का आता है, जिनका मत था कि सृष्टि अणुओं से बनी है। उदयनाचार्य का मत था कि प्रकाश एवं उष्णता का मात्र कारण सूर्य है और वाचस्पति मिश्र प्रकाश को भी परमाणुओं से निर्मित मानते थे। कहा जाता है कि ईसवी सन की दूसरी शताब्दी में हिन्दुओं के यँहा एक प्रकार के दिग्दर्शक यंत्र का भी प्रचार था जो लोहे से निर्मित था, तेल में रखा जाता था और वह लगातार उत्तर दिशा को इंगित करता था। रसायन शास्त्र का विकास यँहा आयुर्वेद और उद्योग की वृद्धि के कारण हुआ। गुप्तकाल में भारत का उद्योग बहुत उन्नत था। रोम वाले भी यह मानते थे कि कपड़ा रँगने, चमड़ा चढ़ाने, साबुन बनाने और शीशा बनाने में भारत के कारीगर सभी देशों के कारीगरों से बेहतर हैं। स्वर्ण, लौह, मोती, तांबे और पारे की रासायनिक क्रिया का ज्ञान यँहा खूब विकसित हो चुका था। छठी-सातवीं सदी में औद्योगिक रसायन के क्षेत्र में भारत समूचे विश्व का अग्रणी था। लोहा गलाने में तो भारत अभी हाल तक यूरोप से आगे था। चिकित्सा के क्षेत्र में तो भारत विश्वगुरु था। चरक (दूसरी शादी), सुश्रुत (पांचवी सदी), वाग्भट्ट (छठी सदी) और भावमिश्र (१५५० ई.) – ये आयुर्वेद के चार प्रधान आचार्यों के नाम हैं, जिन्होंने शरीर-विज्ञान और औषधि-विज्ञान के क्षेत्र में देश की बहुत उन्नति की।
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