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प्राचीन जिङ्मा परम्परा
– पेमा तेनजिन-
तिब्बत में तन्त्रों की तीन परम्पराएं विकसित हुई आचार्य विमलमित्र, वैरोचन, म रिनछेन छोग से अष्टवर्गीय मायाजाल गुह्यगर्भ आदि तन्त्रों की पहली परम्परा विकसित हुई। दूसरी परम्परा आचार्य पद्मसम्भव से विकसति हुई, जिन्होंने गुह्यगर्भ आदि तन्त्रों के संक्षिप्त सार के रूप में दर्शनोपदेशमाला नामक ग्रन्थ की रचना की और उसे अक् ज्ञानकुमार आदि को प्रदान किया। नुब सङग्यस् येशे ने आचार्य हुंकर, धर्मबोधि एवं वसुंधर से विशेष रूप से अनुयोगतन्त्रों की परम्परा प्राप्त की, जो तीसरी परम्परा के रूप में विकसित हुई।
तिब्बत में चली आ रही इन तीनों परम्पराओं के वचन एवं साधना की मिश्रित परम्परा एक धारा में सर्वप्रथम अक् ज्ञानकुमार (नवीं शताब्दी) को प्राप्त हुई। उसके बाद व सङग्यस् येशे (नवीं शताब्दी) तथा उत्तरकालीन शासन के विकास के समय लहजे सुरपोछे (1002-1062 ई०) ने पुनः इस परम्परा को पुनर्जीवित किया। उनके शिष्य सुरछुङ शेरव ड्रग (1014-1074 ई०) ने इसकी शाखाओं का विस्तार किया और उनके शिष्य सुर शाक्य से (1050-1110 ई०) ने इसे पुष्पित एवं पल्लवित किया। इस प्रकार इन तीन गुरु शिष्यों ने मिलकर तिब्बत में पश्चाद्वर्ती शासन के विकास काल में इस परम्परा को न केवल पुनर्जीवित किया. अपितु इसका प्रचार प्रसार कर सन्वों का अधिकाधिक कल्याण किया।
जिङ्मा परम्परा तान्त्रिक एवं साधना दो मुख्य परम्पराओं के माध्यम से आगे बढ़ी।
- दीर्घागम परम्परा (क-म परम्परा), 2. आसन्ननिधि परम्परा (तेर-मा परम्परा)।
भगवान् बुद्ध से लेकर उनके शिष्यों से वर्तमान समय तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही यह दीर्घागम परम्परा सूत्रवर्ग, तन्त्रवर्ग एवं चित्तवर्ग तीन प्रकार का है, जो अनुयोगतन्त्र, महायोगतन्त्र एवं अतियोगतन्त्र से सम्बद्ध हैं। इनमें से अधिकांश वचन ञिङ्मा तन्त्रपिटक में संगृहीत हैं, जिसे रत्नलिड्या ने पन्द्रहवीं शताब्दी में सुर-हुगपा-लिङ्ग महाविहार के ग्रन्थों के आधार पर संग्रह किया। इसके अतिरिक्त जिग्मे लिङ्या, कथोग रिगजिन छेवड् नोबू आदि ने भी ञिङ्मा तन्त्रपिटक का संग्रह किया है।
जिमा परम्परा में सम्पूर्ण दीर्घागम परम्परा को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है –
- सूत्रवर्ग के अन्तर्गत अनुयोगतन्त्र के साधना एवं अधिगम ग्रन्थ आते हैं, जिसका प्रारम्भिक ग्रन्थ अभिप्रायसंग्रह आदि पाँच मूल सूत्र हैं।
- तन्त्रवर्ग अर्थात् जिसमें महायोगतन्त्र के गुह्यगर्भ, मायाजाल, आदि आठ मायाजालतन्त्रवर्ग (अठारह तन्त्रवर्ग) सम्मिलित हैं और जिसका प्रारम्भिक ग्रन्थ गुह्यगर्भतन्त्र है।
- चित्तवर्ग में अतियोगतन्त्र अथवा महासन्धियोग समाहित है? जिसके अन्तर्गत चित्तवर्ग, जिसके अन्तर्गत चित्तवर्ग, धातुवर्ग, अववादवगं आते हैं। चित्तवर्ग में पूर्वानूदित पाँच तन्त्रग्रन्थ, पश्चादनूदित तेरह तन्त्रग्रन्थ, धातुवर्ग में वज्रसेतु तथा अववादवर्ग में सत्रह तन्त्र ग्रन्थ आते हैं प्राचीन (ञिड्या) परम्परा की दृष्टि, चर्या एवं भावना बौद्धशासन के विकास के पूर्वकाल में जिन तन्त्रों का प्रचार-प्रसार हुआ उन्हें ञिङमा परम्परा के अनुसार समस्त बुद्धों के ज्ञानधर्मकाय आदिबुद्ध समन्तभद्र द्वारा विद्याधरों, बोधिसत्त्वों एवं अत्यन्त सौभाग्यशाली व तीक्ष्ण बुद्धि वालों को प्रदान की गयी। यह परम्परा विनेयजनों के रुचि, बुद्धि, आशय एवं सामर्थ्यानुसार समस्त बुद्धवचनों को नौ यानों में वर्गीकृत करती है। ये हैं-तीन वाह्ययान अर्थात् श्रावकयान, प्रत्येकबुद्धयान,
बोधिसत्त्वयान, तीन बाह्यतन्त्र अर्थात् क्रियातन्त्र, चर्यातन्त्र, योगतन्त्र एवं तीन गुह्यतन्त्र अर्थात् महायोगतन्त्र, अनुयोगतन्त्र, अतियोगतन्त्र अथवा महासन्धियोगतन्त्र ।
सत्त्वों की चित्तप्रवृत्ति, आशय एवं सामर्थ्य के अनुरूप यानों के भी अनेक भेद कहे गये हैं। तीन तन्त्रयान ञिङ्मा परम्परा की अनोखी शिक्षा हैं। इनमें से भी अतियोगतन्त्र सबसे विशिष्ट है। ये सभी यान प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाणगामी हैं, बुद्धत्व प्राप्ति के मार्ग हैं। अपनी बौद्धिक तीक्ष्णता एवं कार्मिक वासनाओं की विविधता की वजह से कुछ सत्त्व सबसे नीचले क्रम के यान से अभ्यास प्रारम्भ करते हैं और अपनी अभ्यास की क्षमता के अनुसार उन्नति करते हैं।
एक सामान्य अनुयायी नीचे के यान से प्रारम्भ कर अपना प्रयास तब तक जारी रखता है, जब तक ऊँची साधना में जाने हेतु तैयार न हो जाय। जो लोग तीक्ष्ण बुद्धिवाले हैं तथा दृढ़ कर्मयोग वाले हैं, वे सीधे श्रेष्ठयान अर्थात् अतियोग में प्रवेश कर सकते हैं और फल भी तुरन्त प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार के जन्मजात गुणों। वाले व्यक्ति के लिए साधारण शिक्षा हेतु जीवन व्यतीत करने का सीधा अर्थ है जीवन, शक्ति एवं समय की बरबादी। किन्तु सभी के लिए समान रूप से उच्च शिक्षा से ही प्रारम्भ किया जाना फलदायक नहीं है, अपितु यह गलत है।
इसलिए वस्तुस्थिति यह है कि एक कल्याणमित्र मार्गदर्शक का होना परमावश्यक है; ताकि विभिन्न यानों की शिक्षा में प्रवृत्त होने हेतु सही दिशा-निर्देश प्राप्त हो सके।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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