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जीवन का रहस्य
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
१. जीवन का अर्थ-जीवन की परिभाषा करना बहुत कठिन है। मनुष्य को तब तक जीवित मानते हैं, जब तक उसकी सांस चलती है। किन्तु मरने के बाद भी कहते हैं कि मस्तिष्क के सेल (कलिल) बहुत समय तक जीवित रहते हैं। सभी पशु पक्षी भी जीवित रहते हैं। वे भी सांस लेते हैं। अन्य लक्षण है कि मनुष्य सहित सभी पशु-पक्षी चिन्तन कर सकते हैं तथा उसके अनुरूप कार्य कर सकते हैं। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में मनुष्य जैसी चेतना या उसके अनुसार काम करने की क्षमता नहीं है। इस विषय में वेदान्त दर्शन की चर्चा में एक श्लोक कहा जाता है-
कुरङ्ग मातङ्ग पतङ्ग भृङ्गाः मीनाः हताः पञ्चभिरेव पञ्च।
एकः प्रमादी स कथं न हन्यते, यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च॥
इसका आशय है कि अन्य जीवों में १-१ ही ज्ञान मुख्य है-हरिण, हाथी, पतङ्ग, भ्रमर, मत्स्य-ये शब्द, स्पर्श, रूप रस, गन्ध द्वारा आकर्षित होते हैं। मनुष्य सभी ५ से आकर्षित होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन जीवों में अन्य ज्ञानेन्द्रिय नहीं है, बल्कि अन्य गौण हैं।
वृक्षों में केवल अनुभव करने की क्षमता है, वे व्यक्त नहीं कर सकते हैं। उनको अन्तःसंज्ञ कहा गया है।
चेतना के अतिरिक्त जीवन का एक अन्य गुण है कि वह अपने जैसे अन्य सन्तान को जन्म दे सकता है। पशु या वृक्षों में भी यह क्षमता युवावस्था में ही है, पूर्ण विकास के कुछ समय बाद तक जब उनमें क्षय का आरम्भ नहीं होता है। कुछ पुरुष या स्त्री जीवन के किसी काल में सन्तान उत्पत्ति नहीं कर सकते, या सक्षम होने पर भी सन्तान नहीं उत्पन्न होती है। किन्तु उनको जीवित ही मानते हैं।
सूक्ष्म जीवाणु भी एक प्रकार के जीव हैं। ये भी अपने जैसे जीव उत्पन्न कर सकते हैं, बाह्य प्रभाव के अनुसार अपनी क्रिया बदल सकते हैं। इनको भी वेद में या आधुनिक विज्ञान में जीवित मानते हैं।
२. भौतिक विज्ञान-भौतिक विज्ञान में परोक्ष रूप में जीवन की परिभाषा है। उष्मा-गतिकी के द्वितीय नियम के अनुसार कोई भी जीवन हीन पदार्थ द्वारा ताप को निम्न तापक्रम से उच्च तापक्रम तक नहीं ले जा सकते।
(Lord Kelvin expressed the second law in several wordings.
It is impossible for a self-acting machine, unaided by any external agency, to convey heat from one body to another at a higher temperature.
It is impossible, by means of inanimate material agency, to derive mechanical effect from any portion of matter by cooling it below the temperature of the coldest of the surrounding objects.)
उच्च ताप पर अणुओं में कम्पन अधिक होता है, और वे अव्यवस्थित हो जाते हैं। केवल जीवित व्यक्ति ही व्यवस्था कर सकता है। निर्माण जीवित व्यक्ति ही कर सकता है। आन्धी से वृक्ष टूट सकते हैं, नये पत्ते या शाखा उत्पन्न नहीं हो सकती है।
समय के साथ हर पदार्थ में क्षय होता है, जिसे क्षर पुरुष कहा है। यहां पुरुष का अर्थ कोई भी सजीव या निर्जीव वस्तु या विश्व रचना है।
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्, प्रवृद्धो (गीता, १०/३२)
काल बढ़ने के साथ लोकों में क्षय होता है।
Encyclopedia Britannica-
Life is defined as any system capable of performing functions such as eating, metabolizing, excreting, breathing, moving, growing, reproducing, and responding to external stimuli.
Wikipedia definition-
The definition of life has long been a challenge for scientists and philosophers. This is partially because life is a process, not a substance. This is complicated by a lack of knowledge of the characteristics of living entities, if any, that may have developed outside of Earth. Philosophical definitions of life have also been put forward, with similar difficulties on how to distinguish living things from the non-living. Legal definitions of life have also been described and debated, though these generally focus on the decision to declare a human dead, and the legal ramifications of this decision. As many as 123 definitions of life have been compiled. One definition seems to be favored by NASA: “a self-sustaining chemical system capable of Darwinian evolution”. More simply, life is, “matter that can reproduce itself and evolve as survival dictates.”
३. जैव रसायन-जीव विज्ञान में जीवन का अर्थ है कोषों द्वारा अपने जैसे कोषों का निर्माण। उनके समूह रूप में जीव का अर्थ है कि वह भी अपने जैसे जीवों का निर्माण कर सकता है। इस अर्थ में मनुष्य की मृत्यु के बाद भी उसके कुछ अंग या सेल जीवित रह सकते हैं। जैसे मृत्यु के कुछ समय बाद भी किडनी, आंख का अन्य शरीर में प्रत्यारोपण किया जा सकता है।
सेल के जीवन का अर्थ है कि उसका रचना सूत्र (डीएनए) यदि सुरक्षित है तो उससे पुनः सेल बन सकता है। अभी डीएनए बनाने की क्षमता नहीं है।
रसायन विज्ञान के अनुसार जीव जगत के सेल तथा अणु कार्बन परमाणुओं से ही बने हैं। इसका कारण है कि ४ दिशाओं में अन्य परमाणुओं से संयोग करने वाला सबसे छोटा परमाणु कार्बन का है। इसी प्रकार का सिलिकन परमाणु भी है जिसका ऑक्साइड पृथ्वी सतह पर बिखरा बालू है। किन्तु वह भारी होने से उसके लम्बे चेन नहीं बन सकते। जैव रसायनों का विज्ञान ही कार्बनिक रसायन कहा जाता है। अन्य ग्रहों पर जीवन खोजने के लिए कार्बन से बने यौगिक ही खोजे जाते हैं।
४. अन्य जीवन-अपनी तरह का निर्माण करने वाले क्रिस्टल (मणि, या मणिभ) भी हैं। क्या उनमें जीवन मान सकते हैं? यह सन्दिग्ध है।
एक दार्शनिक पक्ष है कि क्या पृथ्वी, तारा, या ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) में जीवन है? फ्रेड होयल ने एक पुस्तक लिखी थी-ब्लैक क्लाउड। आकाश के एक विशाल गैस पिण्ड में भी उन्होंने एक अन्य प्रकार के जीवन की कल्पना की थी जो सम्पूर्ण मानव जाति से अधिक मानसिक शक्ति वाला था तथा अपने विद्युत् चुम्बकीय प्रभाव से किसी पिण्ड को इच्छानुसार चलाने या रोकने में सक्षम था।
इन विवादों तथा सन्देहों के कारण नासा द्वारा आयोजित समिति जीवन की सटीक परिभाषा निर्धारित नहीं कर सकी।
५. वैदिक परिभाषा-वेद में जीवन युक्त पदार्थ को पुरुष कहा है। सम्पूर्ण विश्व या उसके विभिन्न स्तरों के पिण्ड भी पुरुष हैं। इसके विभिन्न स्तरों तथा कार्यों का वर्णन पुरुष सूक्त में है, जो कुछ पाठ-भेदों के साथ प्रायः सभी वेद संहिताओं में है।
सांख्य दर्शन के अनुसार विश्व का चेतन तत्त्व पुरुष है। निर्माण सामग्री प्रकृति है, जिसके ३ गुणों के समन्वय से ८ भेद हैं। ८ प्रकृतियों से सत्त्व और रजः गुणों के अनुसार पुनः ८-८ तत्त्व होते हैं। तमोगुण से कुछ नहीं बनता, अतः कुल ८ + ८ + ८ = २४ तत्त्व हुए। २४ तत्त्वों का मिलन भूमि है, भ = २४वां व्यञ्जन।
पुरुष सूक्त में मूल स्रोत रूपी पूरुष, उसके १/४ भाग से बने पूर्ण जगत्, दृश्य पिण्ड रूपी विराट् पुरुष, उसका अधिष्ठान या चेतन रूप अधि-पूरुष, पृथ्वी पर उसके विभिन्न ग्राम्य (उपयोगी, उत्पादक) और आरण्य (निष्क्रिय द्रष्टा) पशु, विभिन्न स्तर के यज्ञ तथा उनसे उन्नति का वर्णन है।
६. पुरुष-जो पुर में रहता है, वही पुरुष है। जो रचना एक सतह से घिरी है, अपने आप में पूर्ण है, वह पुर है। पूर्णता अर्थ में वह विश्व है, जिसके १३ स्तर हैं। अतः ज्योतिष में १३ को विश्व कहते हैं। एक मत था कि पाणिनि व्याकरण के गणपाठ में विश्व के लिए १३ शब्द हैं, पर मुझे यह ठीक नहीं लगा। मनुष्य से बड़े ५ विश्व हैं-स्वयम्भू मण्डल (दृश्य भाग या तपः लोक में १०० अरब ब्रह्माण्ड), ब्रह्माण्ड या परमेष्ठी मण्डल (सबसे बडी ईंट), सौर मण्डल, चान्द्र मण्डल (जीवन योग्य ग्रह क्षेत्र), भूमण्डल। मनुष्य शरीर षष्ठ विश्व है और आकाश के विश्वों की प्रतिमा है। शतपथ ब्राह्मण (१२/३/२/५, १०/४/४/२) के अनुसार १०० अरब ब्रह्माण्ड हैं, हमारे ब्रह्माण्ड में १०० अरब तारा हैं, तथा उनकी प्रतिमा रूप मनुष्य के मस्तिष्क में १०० अरब कलिल (न्यूरोन, सेल) हैं। कण या चूर्ण रूप में इतने का ही संघ बन सकता है, अतः १०० अरब को खर्व (चूर्ण) कहते हैं।
मनुष्य से छोटे ७ विश्व क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे हैं-कलिल, परमाणु (जीव), कुण्डलिनी (परमाणु की नाभि), जगत् कण (चर-लेप्टान, स्थाणु= बेरियोन, अनुपूर्वशः = मेसान), देव-दानव, पितर, ऋषि।
बालाग्रशत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च ॥
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/९)
षट्चक्र निरूपण, ७-एतस्या मध्यदेशे विलसति परमाऽपूर्वा निर्वाण शक्तिः कोट्यादित्य प्रकाशां त्रिभुवन-जननी
कोटिभागैकरूपा । केशाग्रातिगुह्या निरवधि विलसत .. ।९। अत्रास्ते शिशु-सूर्यकला चन्द्रस्य षोडशी शुद्धा नीरज सूक्ष्म-तन्तु शतधा भागैक रूपा परा ।७।
सूक्ष्मतम ऋषि कण (आकार मीटर का १० घात ३५ भाग= आधुनिक विज्ञान में प्लांक दूरी) में जीव है, अतः उससे बनी क्रमशः बड़ी रचनाओं में भी जीवन है।
(७) बीजी पुरुष-मूल परम पुरुष ने आकाश गर्भ में बीज डाला था जिससे सृष्टि का आरम्भ हुआ।
सोऽकामयत बहुस्यां प्रजाजेयेति (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६)
स इदं सर्वं भवति (बृहदारण्यक उपनिषद्, १/४/१०)
स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति, — स ईक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति, — स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति (ऐतरेय ब्राह्मण, १/१, ३)
जीवन उत्पत्ति का क्रम-सबसे ऊर्ध्व या मूल परब्रह्म अव्यक्त ४ पाद का पूरुष, व्यक्त १ पाद का विश्व पुरुष, उसके बाद स्वयम्भू, परमेष्ठी, सौर, चान्द्र, भूमण्डल-उसके बाद वृक्ष, जीव और मनुष्य। यह विपरीत वृक्ष है, जिसके हर स्तर पर पुरुष ही शुक्र या बीज है।
ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन॥
एतद्वै तत्॥ (कठोपनिषद्, २/३/१)
गीता (१५/१) प्रायः यही है, पर उसमें बीज या शुक्र का उल्लेख नहीं है। उसके अनुसार निर्माण का यह क्रम शाश्वत है, किन्तु वृक्ष के पत्र रूप रचनायें जो छन्द या सीमा से घिरी हैं, अपेक्षाकृत नश्वर हैं।
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥ (गीता, १५/१)
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥३॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिताः॥४॥ (गीता, १४/३-४)
तस्माद् वा एतस्माद् आत्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद् वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवि। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्योऽन्नम्। अन्नात् पुरुषः। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१/३)
सबसे बड़ी रचना ब्रह्माण्ड को भी विराट् बालक कहा गया है जिसका गर्भ गोलोक है। वेद में इसे कूर्म चक्र कहा है, क्यों कि यह निर्माण करता है। यह ब्रह्माण्ड का प्रायः १० गुणा बड़ा है। इसे आजकल गैलेक्सी का कोरोना (आभामण्डल) कहते हैं, जिसमें प्रायः न्यूट्रिनो कण हैं। केवल प्रकाश रूप होने के कारण यह गोलोक है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३-अथाण्डं तु जलेऽतिष्टद्यावद्वै ब्रह्मणो वयः॥१॥
तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः॥२॥ स्थूलात्स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट्॥४॥
तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः॥९॥
तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत् कोटियोजनात्॥१०॥नित्यौ गोलोक वैकुण्ठौसत्यौ शश्वदकृत्रिमौ॥१६॥
स यत्कूर्मो नामा एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत, यदसृजत अकरोत्-तद् यद् अकरोत् तस्मात् कूर्मः॥-शतपथ ब्राह्मण (७/५/१/५)
नरपति जयचर्या, स्वरोदय (कूर्म-चक्र)-मानेन तस्य कूर्मस्य कथयामि प्रयत्नतः।
शङ्कोः शतसहस्राणि योजनानि वपुः स्थितम्॥
ताण्ड्य महाब्राह्मण(११/१०) शङ्कुभवत्यह्नो धृत्यै यद्वा अधृतं शङ्कुना तद्दाधार॥११॥
तद् (शङ्कु साम) उसीदन्ति इयमित्यमाहुः॥१२॥
ऐतरेय ब्राह्मण (५/७)-यदिमान् लोकान् प्रजापतिः सृष्ट्वेदं सर्वमशक्नोद् तद् शक्वरीणां शक्वरीत्वम्॥
शङ्कु = १० घात १३। शतसहस्र शङ्कु (१० घात १८ योजन) कूर्म या गोलोक का आकार है। ब्रह्माण्ड का आकार (व्यास) १० घात १७ योजन है। छन्द रूप में यह शक्वरी (१४ x ४ = ५६ अक्षर) अर्थात् पृथ्वी व्यास x २ घात (५६-३) है, जो रात्रि जैसा अन्धकार है (शक्वरी = रात्रि)।
ब्रह्माण्ड का आकाश (ताराओं के बीच प्रायः खाली स्थान) भी मद्य से भरा है जो कार्बन अणु का यौगिक है।
यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति।
य उ त्रिधातु पृथिवीमुतद्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा॥४॥
तदस्य प्रियमसि पाथो अश्यां नरो यत्र देव यवो मदन्ति।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः॥५॥
(ऋक्, १/१५४/४-५)
इसका पता श्रीलंका के वैज्ञानिक विक्रमसिंघे ने १९७५ में लगाया था।(1) F H C Crick, Simon & Schuster, New Yorka, 1982.
(2) Evolution From Space-F Hoyle and Chandra Wickramasinghe.
(3) Intelligent Universe-F. Hoyle, Michael Joseph, London 1983.
(4) Astronomical Journal-1975 (196-99).
(८) चेतना-इसका आरम्भ चित् से होता है जो शून्य या विन्दुमात्र आकाश है (चिदाकाश)। चित् विन्दुओं का विन्यास या क्रम में व्यवस्था चिति है। जो चिति कर सके वह चेतना है। चेतना का निवास चित्त है। मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त-ये अन्तःकरण चतुष्टय हैं। मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तमित्यन्तःकरणचतुष्टयम्। (शारीरकोपनिषद् २)
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्त चेति चतुष्टयम्। (वराहोपनिषद् १/४)
मनोबुद्ध्योश्चित्ताहङ्कारौ चान्तर्भूतौ।(त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद् १/४)
मस्तिष्क कणों में अनियमित कम्पन मन है, या इसे मस्तिष्क आकाश तथा उसके द्रव में तरंग कह सकते हैं। ब्रह्माण्ड ता तारा समूह या आकाश के ब्रह्माण्ड समूह का कम्पन भी विराट् मन है।मनः सम्पद्यते लोलं कलनाऽऽकलनोन्मुखम्।कलयन्ती मनःशक्तिरादौ भावयतिक्षणात्॥ (महोपनिषद्, ५/१४६)
इन कम्पनों का व्यवस्थित क्रम बुद्धि है, जिसे वाक्य द्वारा प्रकट किया जा सकता है। बुद्धयो वै धियस्ता योऽस्माकंप्रचोदयादित्याहुर्मनीषिणः। (मैत्रायणी उपनिषद् ६/७)
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसाधिया। शरीरं सप्तदशभिः सुसूक्ष्मं लिङ्गमुच्यते। (शारीरकोपनिषद् ११)
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ (गीता, २/४१)
अपरिमिततरमिव हि मनः परिमिततरमेव हि वाक्। (शतपथ ब्राह्मण १/४/४/७)
वाक् के भी ४ स्तर कहे हैं। मूल विन्दु स्रोत परा वाक् है। स्पष्ट विचार रूप में अनुभूति पश्यन्ती है। वाक्य रूप में व्यवस्था मध्यमा है। ध्वनि, लिपि आदि द्वारा उसे शब्दों में प्रकट करना वैखरी है। चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋग्वेद १/१६४/४५)
परायामङ्कुरीभूय पश्यन्त्यां द्विदलीकृता॥१८॥
मध्यमायां मुकुलिता वैखर्या विकसीकृता॥ (योगकुण्डली उपनिषद् ३/१८, १९)
किसी शरीर या पिण्ड के जितने कण हैं, उनका एक समूह होने का भाव अहंकार है। शरीर के सभी कण या कलिल यह जानते हैं कि यह अपने ही शरीर के हैं। वे अन्य को भी पहचानते हैं और बाहरी वायरस आदि शत्रुओं, रक्त आदि को घुसने नहीं देते।
विचार का केन्द्र विन्दु चित्त है।
चितिरूपेण याकृत्स्नमेतद्व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः। (चण्डी पाठ, ५/७८-८०)
(९) यज्ञ-चेतना का कोई लाभ नहीं यदि उससे निर्माण नहीं हो सके। गीता अध्याय ८ के आरम्भ में विश्व के ३ स्तरों का वर्णन है-आधिदैविक = आकाश की सृष्टि, आधिभौतिक = पृथ्वी का विश्व, आध्यात्मिक = दोनों की प्रतिमा मनुष्य शरीर। इन सभी विश्वों में ३ प्रकार के वर्णन हैं-ब्रह्म = हर प्रकार का पुर, कर्म = आन्तरिक तथा बाह्य कण या पिण्ड गति। आन्तरिक गति कृष्ण तथा बाह्य गति शुक्ल है। जिस कर्म से उपयोगी वस्तु का उत्पादन हो वह यज्ञ है।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ (गीता, ३/१०)
यज्ञ कर्म सदा चक्र में होता है, जिसके पालन से जीवन चलता है-
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥ (गीता, ३/१६)
जीवन तथा प्राण का सबसे प्रसिद्ध लक्षण है कि श्वास चक्र चल रहा है। इससे सम्बन्धित ७ यज्ञ हैं-
श्रोत्रादीनिन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥२६॥
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥२७॥
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥२९॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपित कल्मषाः॥३०॥ (गीता, ४/२६-३०)
(१) संयम यज्ञ-विषयों से आकर्षित होकर मनुष्य अपने मार्ग से भटक जाता है। बेकार कामों से अपनी शक्ति हटाना प्रत्याहार है। उसे मुख्य कार्य में लगाना धारणा है। धारणा लगातार बनाये रखना ध्यान है। मस्तिष्क को शान्त रखना समाधि है। इन तीनों-धारणा, ध्यान, समाधि-का संयोग कर कार्य करना संयम है।
पातञ्जल योग सूत्र-स्वविषयसम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः। (२/५४)
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (३/१) तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्। (३/२) तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशुन्यमिव समाधिः। (३/३)। त्रयमेकत्र संयमः। (३/४)
योग सूत्र के अध्याय ३ में विभिन्न प्रकार के संयमों द्वारा ५२ प्रकार की सिद्धि का वर्णन है। ये सभी संयम यज्ञ हैं-
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥ (गीता २/२७)
(२) इन्द्रिय यज्ञ- यह संयम यज्ञ से सम्बन्धित है। उसका एक साधन होने पर भी यह अपने आप में यज्ञ है जिससे शरीर स्वस्थ, कारुअक्षम बनता है तथा सभी प्रकार के यज्ञ पूरे किये जा सकते हैं। इसके लिये ज्ञानेन्द्रियों के ५ गुणों को अपने विषयों से दूर करते हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध।
(३) प्राण-कर्म यज्ञ-५ प्राण और ५ उप-प्राण हैं, जो शरीर अंगों की क्रियाओं से सम्बन्धित हैं। प्राणों का कर्म जानने पर उनको आत्म-संयम की अग्नि में जलाते हैं। इन्द्रियों और उनके प्राणों में समन्वय रख कर उनका अधिकतम उपयोग हो सकता है।
(४) तपो-यज्ञ-तप का अर्थ श्रम है। इससे ताप (गर्मी) होती है अतह् यह तप है। दृश्य जगत् को भी तपो-लोक कहा गया क्योंकि इसके एक भाग का तेज अन्य भागों तक पहुंच सकता है। सिद्धान्ततः तपो लोक से बाहर से कोई प्रकाश हम तक नहीं पहुंच सकता। देश में उर्जा के साधनों का संरक्षण और उपयोग ही तपो यज्ञ है-बिजली उत्पादन, कोयला, पेट्रोल आदि का भण्डार सुरक्षित रखना। इसी तप से असुरों ने देवताओं को कई बार पराजित किया था। व्यक्तिगत रूप से दैनिक व्यायाम, भोजन और व्यवहार में संयम और कुछ कष्ट सहन क्षमता रखना तपो यज्ञ है। ऐसा नहीं है कि केवल ऋषि ही तप करते थे। असुरों ने बहुत कठोर तप किया। उनकी तुलना में देवता विलासी होने के कारण हार गये।
(५) योग यज्ञ-योग का अर्थ है जोड़ना। शरीर में श्वास और क्रिया को जोड़ना योग है। इसके ८ स्तरों के बाद अन्ततः आत्मा और परमात्मा का योग होता है-(१) यम, (२) नियम, (३) आसन, (४) प्राणायाम, (५) प्रत्याहार, (६) धारणा, (७) ध्यान, (८) समाधि।
(६) प्राणायाम यज्ञ-श्वास नियन्त्रण के रूप में यह योग यज्ञ का चतुर्थ अंग है। यहां इसका अर्थ है कि कम से कम साधन द्वारा शरीर को शक्तिशाली और उपयोगी बनाया जाय। शरीर में शक्ति के लिये भोजन लेना और उसका पाचन जरूरी है। यह प्राण का अपान में हवन है। अपान वायु से पाचन होकर मल निष्कासन होता है। किन्तु शरीर में भोजन सञ्चित करने से ही कोई लाभ नहीं है। जैसे नियमित भोजन जरूरी है, नियमित रूप से कुछ शक्ति खर्च कर काम करना भी जरूरी है। यह अपान का प्राण में हवन है। भौतिक स्तर पर शुद्ध भोजन लेकर उसे पचाना और दैनिक कार्य या व्यायाम करना ही प्राणायाम यज्ञ है। सूक्ष्म स्तरों पर श्वास और मन का नियन्त्रण भी होता है।
(७) प्राण यज्ञ- यह प्राण का अपान में तथा अपान का प्राण में हवन है तथा नियत आहार द्वारा प्राण का प्राण में हवन है-
शरीर में भोजन का ग्रहण प्राण का ग्रहण है, जिसका अपान में हवन होता है। काम में उसका खर्च होना अपान का प्राण में हवन है। अन्न के पाचन से आरम्भ कर ७ स्तरों पर प्राण का उत्थान प्राण-यज्ञ है। बृहदारण्यक उपनिषद् (१/५/१) के अनुसार हम ७ प्रकार का अन्न लेते हैं-(१) मन या ज्ञान, (२) प्राण, (३) पृथिवी (ठोस पदार्थ), (४) जल, (५) तेज, (६) वायु (श्वास), (७) आकाश। वैशेषिक दर्शन में ९ द्रव्य हैं इनमें काल और आत्मा को भी गिना गया है।
छान्दोग्य उपनिषद् (६/५/१) में कहा गया है कि अन्न का ३ भाग में पाचन होता है-ठोस पदार्थ मल रूप में निकल जाता है, मध्यम का उपयोग शरीर को पुष्ट करने में होता है तथा सूक्ष्म भाग मन हो जाता है-अन्नमशितं त्रेधा विधीयते, तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तत्पुरीषं भवति, यो मध्यस्तन्मांसं, योऽणिष्टस्तन्मनः।(छान्दोग्य ६/५/१)।
आयुर्वेद के अनुसार स्थूल भोजन ७ स्तरों में पचता है-
(१) रस (द्रव)-शरीर की पुष्टि। इसका मल भोजन का अवशेष है जो शरीर से बाहर निकलता है।
(२) असृक् (द्रव में ठोस कण)-रक्त। यह जीवन देता है (वाजीकरण या शक्ति)। इसका मल पित्त है।
(३) मांस-इसमें मांसपेशी तथा चर्म भी है। यह शरीर का लेपन करता है (आवरण, भरना)। इसका मल कान के मल आदि हैं।
(४) मेद (चर्बी, वसा) शरीर की क्रिया को चिकना करती है (स्नेहन)। इसका मल स्वेद (पसीना) है।
(५) अस्थि (हड्डी)-यह शरीर का ढांचा है, धारण करता है। इसका मल नख और केश हैं।
(६) मज्जा-हड्डी के भीतर का भीतरी भाग, मस्तिष्क, सुषुम्ना तन्त्र। यह भरता है (पूरण)। इसका मल ग्रन्थियों का स्राव है।
(७) शुक्र (रज, वीर्य = स्त्री पुरुष के प्रजनन के लिये रस)-इससे सन्तान जन्म होता है। इसका रस है ओज (तेज)। ओज की साधना करने वाला ओझा है।
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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