![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/01/ज्योतिष-में-लग्न-एवं-भाव.jpg)
ज्योतिष में लग्न एवं भाव
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
mysticpower-आज मैं ज्योतिषीय लग्न एवं भाव की व्याख्या प्रस्तुत कर रहा हूँ जिस दिशा में सूर्योदय होता है, उसे पूर्वदिशा की संज्ञा दी गयी है। जिस दिशा की ओर व्यक्ति मुँह करके स्थित होता है, उस दशा को भी पूर्व वा प्राची दिशा कहते हैं। व्यक्ति की दृष्टि सामान्यतः उसी ओर जाती है, जिस ओर उजाला होता है। और, उजाला उसी ओर होता है जिस ओर प्रकाश का स्रोत सूर्य होता है। प्रातः काल निद्रोपरान्त व्यक्ति प्रकाश की ओर ताकता है। प्रकाश पूर्व दिशा में होता है। लालिमामय यह दिशा प्राङ् दिशा कही जाती है। यह दिशा लग्न की जनक/ जननी है।
https://www.mycloudparticles.com/
लग्न का अर्थ है-लगा हुआ/स्पर्श करता हुआ/ जुड़ा हुआ। किसी भी स्थान पर स्थित होकर हम सूर्योदय वाली दिशा को देखें। इस दिशा के क्षितिज (जहाँ पृथ्वी एवं आकाश परस्पर आलिंगित प्रतीत होते हैं) में जिस राशि का उदय होता है, वह उस स्थान की तात्कालिक लग्न होती है। १२ राशियों में से कोई न कोई राशि पूर्वी क्षितिज से लगी हुई होती है। वही राशि उस समय उस स्थान की लग्न कही जाती है जैसे किसी समय किसी स्थान से देखने पर पूर्व की दिशा क्षितिज से लगी हुई राशि यदि मेष है तो उस समय उस स्थान पर मेष लग्न की विद्यमानता मानी जायेगी। इस प्रकार मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चिक धनु मकर कुम्भ मीन ये १२ लग्नें हुई। लग्न के सन्दर्भ में १२ राशियों को १२ भाव कहते हैं। लग्न को उदय भाव कहते हैं। क्योंकि जब सूर्य उदय हो रहा होता है तो उसे लग्नस्थ मानते हैं। दोपहर को सूर्य दक्षिण दिशा में होता है, सायंकाल पश्चिम दिशा में होता है, अर्धरात्रि में सूर्य उत्तर 1 दिशा में होता है। सूर्य की ये चार प्रमुख स्थितियाँ हैं। इसे केन्द्र कहते हैं। केन्द्र चार हैं-लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम। लग्न प्रथम भाव है। राशियाँ गतिशील हैं जबकि भाव स्थिर हैं। राशियाँ १२ हैं, भाव १२ हैं। १२ भाव का अर्थ है-१२ अवयवों वाला विराट् वा कालपुरुष उस विराट् पुरुष को हम अपने सम्मुख इस प्रकार देखते हैं-
सूर्य की राशि मालूम होने पर लग्न का अनुमान लगाना सरल होता है। दिन में तो बिना किसी घटीयन्त्र के लग्न जाना जाता है। सूर्य पूर्वी क्षितिज के आस-पास है तो उसे लग्नस्थ समझा जाय, आकाश के मध्य में है तो उसे दशमस्थ माना जाय, पश्चिमी क्षितिज के इर्दगिर्द है तो उसे सप्तमस्थ समझा जाय। रात में सूर्य की स्थिति जानना कठिन है। सूक्ष्म ऊहा शक्ति से रात में भी सूर्य की स्थिति का पता किया जा सकता है। अर्द्धराद्धि में सूर्य चतुर्थ भाव में रहता है। हर एक भाव में सूर्य औसत रूप से पाँच घटी वा दो घंटे रहता है। इस प्रकार वह १२ भावों का भोग ५ x १२ = ६० घटी अथवा २ x १२ = २४ घंटे में कर लेता है।
सूर्य पूर्वी क्षितिज एवं दिन के मध्याकाश के मध्य में है तो वह एकादश वा द्वादश भाव में होगा। आकाश के मध्यविन्दु के निकट है तो एकादश भाव में, पूर्वी क्षितिज के निकट है तो द्वादश भाव में सूर्य की स्थिति होगी। इसी प्रकार, पश्चिमी क्षितिज एवं दिन के मध्याकाश के मध्य में है तो नवम वा अष्टम भाव में होगा। आकाश के मध्य भाग के निकट रहने पर नवम में पश्चिमी क्षितिज के निकट रहने पर अष्टम में सूर्य की स्थिति मानी जायेगी। सायंकाल के बाद एवं अर्धरात्रि के पहले सूर्य पंचम वा षष्ठ भाव में होता है। रात्रि के पहले प्रहर में सूर्य छठें भाव में तथा दूसरे प्रहर में पाँचवें भाव में होता है। इसी प्रकार अर्धरात्रि के पश्चात् एवं प्रातः काल के पूर्व सूर्य तृतीय वा द्वितीय भाव में होगा। तीसरे प्रहर में तृतीय भावस्थ एवं चौथे प्रहर में द्वितीय भावस्थ होता है।
१ अहोरा = ८ प्रहर।
४ प्रहर का दिन, ४ प्रहर की रात्रि।
यदि रात = दिन । प्रत्येक भाव २/३
प्रहर का होता है।
भाव १ लग्न = रात्रि का चौथा प्रहर तथा दिन के पहले प्रहर की संधि।
भाव ४ चतुर्थ = रात्रि के दूसरे एवं तीसरे प्रहर की संधि भाव ७ सप्तम = रात्रि के प्रथम प्रहर एवं दिन के अंतिम प्रहर की संधि । भाव १० दशम= दिन के दूसरे एवं तीसरे प्रहर की संधि ।
अहोरात्र आठ प्रहर का होता है। इसलिये इसे अष्टयामी वा अष्टमूर्ति कहा गया है। विराट् प्रकृति अष्टयामी है। कालपुरुष को अष्टमूर्ति कहते हैं। अतः होराशास्त्र अष्टमूर्ति का शास्त्र है। जो अष्टमूर्ति परमात्मा को जानता है, वह होराशास्त्र को जानता है। होराशास्त्र का ज्ञाता ब्रह्मविद होता है। होरा, समय की एक इकाई है। होराशास्त्र का अर्थ है कालशास्त्र/समयशास्त्र१२ लग्नें द्वादशात्मा सूर्य की मूर्तियाँ हैं सूर्य की स्थिति ज्ञान से लग्न का बोध होता है। उदाहरणार्थ- मानलिया सूर्य तुला राशि में है और वह आकाश के मध्य बिन्दु से खिसक कर पश्चिम की ओर झुका है। इसका अर्थ हुआ सूर्य नवम भाव में है। इसलिये नवभ में तुलाराशि हुई। अब हम कह सकते हैं कि लग्न में कुम्भ राशि है। अर्थात् कुम्भलग्न का उदय है। सूर्य द्वारा लग्नोदय का पता निम्न चित्र से इस प्रकार है।
ज्योतिष शास्त्र में ‘राशीनामुदयं लग्नं’ कहा गया है।
वैदिक शब्दावली में द्यावापृथिवी प्रामुखस्पर्श लग्नं कहा जा सकता है। पृथ्वी तल का आकाश से स्पर्श सब दिशाओं में सतत होता रहता है। जिस दशा में सूर्य नीचे से ऊपर उठता हुआ दिखता है, उस दिशा में भू और व्योम का संस्पर्श लग्न कहलाता है। धरणी माता है। द्यौ पिता है। इन दोनों का परस्पर अभिमुख आश्लेष सृजन का हेतु है। सृजन का फलन लग्न है। लोक में देखा जाता है, स्त्रीपुरुष का संश्लेष परस्पर आमने सामने होता है तो सृष्टि होती है। इन दोनों का लगा होना लग्न है। स्त्रीपुरुष के गाढालिंगन वा द्यावापृथिवी के परिरम्भन को लग्न नाम दिया गया है। पृथिवी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर है घूमती है तो लगता है कि राशियाँ पूर्व से पश्चिम की ओर घूम रही हैं। जो राशि पूर्व दिशा में उदय हो रही होती है, वही लग्न कहलाती है। आकाश (द्यावा) का वह भाग पृथिवी/ पूर्वी क्षितिज को स्पर्श करने से लग्न माना जाता है। लग्न अत्यन्त महत्वपूर्ण शब्द वा घटनाविम्ब है। यह शरीर है। इसलिये लग्न को तनु / शरीर भाव कहा जाता है। जैसा लग्न वैसा शरीर उपनिषद् में शरीर को बह्य कहा गया है। ब्रह्म का निवास स्थान होने से शरीर भी बह्य हो जाता है। बहुत बड़ी वस्तु का नाम ब्रह्म है। अतः लग्न ब्रह्म रूप है। इस कथन से लग्न की महत्ता प्रदर्शित होती है। कुण्डली में यदि लग्न ठीक नहीं है तो सब कुछ ठीक होते हुए भी वह कुण्डली व्यर्थ मानी जायेगी। लग्न शरीर है। लग्न पुष्ट है तो शरीर पुष्ट होगा। लग्न दूषित है तो शरीर रोगी होगा, विकलांग होगा, असुन्दर होगा। लग्न अच्छा है तो जीवन अच्छा रहेगा। राशियाँ १२ हैं। अतएव, १२ लग्ने हैं। प्रत्येक लग्न ३० अंश की होती है। इन १२ राशियों में से कोई न कोई एक राशि जो पूर्वी क्षितिज पर उदित हो रही होती है, लग्न होती है। शेष ११ राशियाँ अन्य ११ भाव के नाम से जानी जाती हैं।
पृथिवी को गति के सम्बन्ध में एक ऋचा है…
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्व ॥ ( अथर्ववेद ६ | ३ | ३१ । १ )
आ अयम् गौः पृश्निः अक्रमीत् असदत् मातरम् पुरः । पितरम् च प्रयन्त् स्वः ॥
अयम् (यह) गौः (पृथिवी) पृश्निः (नानावर्णी) आ अक्रमीत् (स्व अक्ष पर घूमती है) पुरः (पश्चिम से पूर्व की ओर) मातरम् असदत् (अन्तरिक्ष में सुस्थित होती हुई) च (और) स्वः (ऊर्ध्व लोकस्थ) पितरम् (पालक सूर्य के प्रति प्रयन् (प्रयाण करती हुई) ।
इस ऋचा में पृथ्वी को दो गतियों का वर्णन है। आ + अक्रमीत् (क्रमु पादविक्षेपे भ्वादिः) तथा प्र + (या चलने अदादिः याति । यन्तु । स्व अक्षीय गति से लग्न का निर्माण होता है। सूर्य के परितः भ्रमणीय गति से मासों का जन्म होता है। १२ लग्ने, १२ महीने इसके फल हैं। इस सन्दर्भ में एक अन्य ऋचा यह है…
द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य ।
आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विशतिश्च तस्थुः ।। -(अथर्ववेद ९-९-१३)
द्वादशारं (१२ अरों वाला) अतस्य चक्रम् (सत्य ब्रह्म का चक्र) द्याम् परि (द्युलोक में) वर्वर्ति (निज अक्ष पर बारम्बार घूमता है) तत् (वह चक्र) जराय नहि (जीर्ण होने के लिये नहीं रचा गया है) अग्ने (हे अग्नि) अत्र (यहाँ इस चक्र में) सप्त शतानि विशति: (७२०) मिथुनासः (जुड़वे) पुत्राः (रात औरंदिन रूपी सुत) आ तस्थुः (स्थित हैं)। स्पष्टतः इस मंत्र में दो अर्थ संनिहित हैं। पृथिवी की दो गतियों से दो चक्र प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। अपनी धुरी पर घूमने से अहोरात्र रूपी चक्र बनता है। सूर्य के परितः भ्रमण करने से वर्ष वा संवत्सर रूपी चक्र बनता है। अहोरात्र रूपी चक्र में १२ लग्न नाम वाले १२ अर हैं। संवत्सर रूपी चक्र में १२ मास नाम वाले १२ अर हैं। एक संवत्सर में ३६० दिन होते हैं, ३६० रातें होती हैं। ३६० + ३६० = ७२० पुत्र हुए।
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/02/DONATION.jpeg)
![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/10/contact-us-.png)