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कालयवन से भगवान् कृष्ण की रणविमुखता में कारण
चेतना त्यागी (सलाहकार संपादक)-
सर्वसमर्थ भगवान् श्रीकृष्ण कालयवन से युद्ध न करके भागे क्यों ?
इस प्रश्न का उत्तर है कि उन्हे भगवान् शंकर के वरदान की रक्षा करनी थी । इस रहस्य को श्री श्रीधरस्वामी, श्रीवंशीधर, श्रीजीवगोस्वामी आदि मनीषियों ने सप्रमाण प्रस्तुत किया है –
“शैशिरायण गार्ग्य और उनका शाला दोनों यादवों के पुरोहित थे । एक बार बीच सभा में शाले ने अपने जीजा गार्ग्य का कटिवस्त्र पकड़कर हाथ से हिलाता हुआ बोला कि देखो जीजा जी नपुंसक हैं । इसे देखकर यदुवंशी बहुत हंसे –
गार्ग्यः शैशिरायणः,श्यालोऽपि यादवपुरोहितः,स च हस्तेन गार्ग्यलिंगं चालयन् यदोत्थानं न ददर्श तदा ‘ गार्ग्यः षंढः ‘ इति प्रोवाच–भा.पु.10/51/1,
इस प्रकार सभा में हुए अपमान से शैशिरायण गार्ग्य बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होने भगवान् शिव की बड़ी कठोर आराधना की कि मुझे यदुवंशियों को भयभीत करने वाला विजयी पुत्र प्राप्त हो । 12वें वर्ष में सन्तुष्ट भगवान् भोलेनाथ ने उनको अभीष्ट वर प्रदान किया । और उन्होंने यवनराज जो पुत्रहीन था उसे यह बात बतायी तो उसने अपनी पत्नी से ऐसा वीर पुत्र पैदा करने का अनुरोध किया –
“गार्ग्यं गोष्ठ्यां द्विजं श्यालःषण्ढ इत्युक्तवान् द्विजः ।
यदूनां सन्निधौ सर्वे जहसुः सर्वयादवाः ।।
ततः कोपसमाविष्टो दक्षिणापथमेत्य सः । सुतमिच्छंस्तपस्तेपे यदुचक्रभयावहम् ।।
आराधयन् महादेवं सोऽयश्चूर्णमभक्षयत् ।
ददौ वरञ्च तुष्टोऽस्मै वर्षे द्वादशमे हरः ।।
सभाजयामास च तं यवनेशो ह्यनात्मजः । तद्योषित्संगमाच्चास्य पुत्रोऽभूदतिसंप्रभः ।।
तं कालयवनं नाम राष्ट्रे स्वे यवनेश्वरः ।
अभिषिच्य वनं यातो वज्रांगकठिनोरसम् ।।
स च वीर्यमदोन्मत्तः पृथिव्यां बलिनो नृपान् ।
पप्रच्छ नारदश्चास्मै कथयामास यादवान् ।।
–विष्णुपुराण,5/23/1-6,
गार्ग्य के सामने भी समस्या थी अपनी पत्नी से सन्तान उत्पन्न करने की ; क्योंकि सभा में हाथ से हिलाने पर भी इनके शिश्न का न उठना यादवगण देख चुके थे और जिसके पुरोहित हों उन्ही को अपने औरस पुत्र से पराजित करवायें -यह भी उन्हे अमर्यादित जैसा लगा ।
दूसरी बात वह ब्राह्मण पुत्र होने से तप न करके राज्य करता -यह भी अपने कुल के अनुरूप नहीं था । इन्ही सब कारणों को विचार कर इन्होने यवनराज की प्रार्थना स्वीकार करके उसकी पत्नी में गर्भाधान किया ।
इससे नपुंसकता का जो सभा में प्रचार हुआ था -वह भी मिथ्या साबित हो गया ; क्योंकि कोई भी पति पत्नी अपने पुत्र को दूसरे का उत्पन्न किया हुआ है -ऐसा नही कह सकते । जबकि यवनराज कह चुका है ।
जिसकी सूचना देवर्षि नारद से भगवान् कृष्ण को प्राप्त हो चुकी थी । अतः भगवान् शंकर के वर की रक्षा के लिए भगवान् कृष्ण स्वयं निरायुध ही निकल पड़े ।
और महाराज मुचुकुन्द के शिर के पास ऐसे स्थित हुए कि गुहा के अन्धकार के कारण वह मुचुकुन्द को ही कृष्ण समझकर पादप्रहार कर बैठा और अपने ही देह से उत्पन्न अग्नि से भस्मीभूत हो गया –
सुषुप्तं नो वरेणाथ यस्त्वामुत्थापयिष्यति । देहजेनाग्निना सद्यः स तु भस्मीभविष्यति ।।
——विष्णुपुराण,
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