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कमठ द्वारा शरीर वर्णन
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)-
भगवान् सूर्य बोले – वत्स कमठ ! तुम्हारी बुद्धि तो वृद्धों जैसी है । मैं तुमसे शरीर का लक्षण सुनना चाहता हूँ; उसे बताओ ।
कमठ ने कहा – विप्रवर ! जैसा यह ब्रह्माण्ड है, वैसा ही यह शरीर भी बताया गया है । पैरों का मूल (तलवा) पातळ है, पैरों का उपरी भाग रसातल है, दोनों गुल्फ तलातल हैं, दोनों पिंडलियों को महातल कहा गया है, दोनों घुटने सुतल, दोनों ऊरू ( जांघ) तथा कटिभाग अतललोक है । नाभि को भूलोक, उदार को भुवर्लोक, वक्षःस्थल को स्वर्गलोक, ग्रीवा को महर्लोक और मुख को जनलोक कहते हैं । दोनों नेत्र तपोलोक है तथा मस्तक को सत्यलोक कहा गया है । जैसे पृथ्वी पर सात द्वीप स्थित हैं, उसी प्रकार इस शरीर मेंसात धातुएं हैं, उनके नाम सुनिए – त्वचा, रक्त, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्य – ये सात धातुएं हैं । शरीर में तीन सौ साठ हड्डियाँ हैं तथा तीस लाख छप्पन हजार नौ नाड़ियाँ बतायी गयी हैं ।
जैसे नदियाँ इस पृथ्वी पर जल बहाती हैं, उसी प्रकार ये नाड़ियाँ शरीर में रस का संचार करती हैं । यह शरीर साढ़े तीन करोड़ स्थूल एवं सूक्ष्म रोएँ से आच्छादित है । स्थूल रोएँ तो दिखाई देते हैं और सूक्ष्म दिखाई नहीं देते हैं । शरीर में छह अंग प्रधान बताये जाते हैं – दो बांह, दो जांघे, मस्तक और उदर । देह के भीतर साढ़े तीन तीन व्याम (यह लम्बाई का मात्रक है । दोनों हाथों को जहां तक हो सके, दोनों बगल में फैलाने पर एक हाथ की उँगलियों के सिरे से दुसरे हाथ की उंगलियों के सिरे तक जितनी दूरी होती है, वह व्याम कहलाता है । ) पुरुष की तीन आंते हैं । स्त्रियों की आतें तीन तीन व्याम की ही होती हैं, वेदवेत्ता द्विज ऐसा ही कहते हैं । ह्रदय में एक कमल बताया जाता है, जिसकी नाल तो है ऊपर की ओर मुख है नीचे की ओर । उस ह्रदय कमल के वाम भाग में प्लीहा है और दक्षिण भाग में यकृत । शरीर में मज्जा, मेदा, वसा, मूत्र, पित्त, कफ़, विष्ठा, रक्त तथा रस के गड्ढे हैं; इनका माप दो दो अंजलि माना गया है । उन्हीं गड्ढों में प्रवृत्त हो कर वे मज्जा, मेदा आदि धातु इस शरीर को धारण करते हैं । इन गड्ढों के सिवा शरीर में सात सीवनी (विशेष नाडी) हैं । इनमें पांच तो मस्तक की ओर गयी हैं, एक नाडी लिंग तथा एक जिह्वा तक गयी है । सब नाड़ियाँ नाभि कमल से ही सब ओर गयी हैं । इन सबमें मस्तक की ओर गयी हुई तीन नाड़ियाँ प्रधान हैं – सुषुम्ना, इडा और पिंगला । इडा और पिंगला नाडी नासिका के द्वार तक पहुची हुई हैं । ये ही दोनों शरीर की वृद्धि एवं पुष्टि करने वाली हैं । शरीर में वायु, अग्नि तथा चंद्रमा – ये पांच पांच भागों में विभक्त हो कर स्थित हैं ।
प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान – ये वायु के पांच भेद माने गए हैं । उच्छवास (ऊपर की ओर श्वास खीचना), निःश्वास (श्वास को बाहर निकालना) तथा अन्न और जल को शरीर के भीतर पहुचाना – ये तीन प्राणवायु के कर्म हैं । कंठ से लेकर मस्तक तक इसका निवासस्थान है । मल, मूत्र तथा वीर्य का त्याग और गर्भ को योनी से बाहर निकालना, यह अपान वायु का कर्म बताया गया है । इसका स्थान गुदा के ऊपर है । सामान वायु खाए हुए अन्न को धारण करती, उसके विभिन्न अंगों को विलगाती तथा सम्पूर्ण शरीर में रससंचार करती हुई बेरोक टोक विचरती है ।
वाक्य बोलना, उदगार (कंठ के भीतर से कुछ निकालना) तथा कर्मो के लिए सब प्रकार के प्रयत्न करना – ये उदान वायु के कार्य हैं । इसका स्थान कंठ से लेकर मुख तक है । व्यान वायु सदा ह्रदय में स्थित रहती है और सम्पूर्ण देह का भरण पोषण करती है । धातु को बढ़ाना, पसीना, खार आदि को निकालना तथा आँख के खोलने-मीचने की क्रिया करना – ये सब व्यान वायु के कार्य हैं । (पूजा में बहुतों ने सुना होगा, प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, उदानाय स्वाह, व्यानाय स्वाहा, मध्ये मध्ये पानीयं उत्तरापोषणं समर्पियामि )
पाचक, रंजक, साधक, आलोचक तथा भ्राजक – इन पांच रूपों में अग्नि इस शरीर के भीतर स्थित है । पाचक अग्नि सदा पक्काशय में स्थित होकर खाए हुए अन्न को पचाती है । रंजक आदि अमाशय में स्थित होकर अन्न के रस को रंगकर रक्त के रूप में परिणित कर देती है । साधक अग्नि ह्रदय में रहकर बुद्धि और उत्साह आदि को बढ़ाती है । आलोचक अग्नि नेत्रों में निवास करके रूप देखने की शक्ति बढ़ाती है तथा भ्राजक अग्नि त्वचा में स्थित होकर शरीर को निर्मल एवं कान्तिमान बनाती है । क्लेदक, बोधक, तर्पण, श्लेषण तथा आलम्बक – इन पांच रूपों में चंदमा शरीर के भीतर निवास करता है । क्लेदक चंद्रमा पक्काशय में स्थित होकर प्रतिदिन खाए हुए अन्न को गलाता है । बोधक रसेन्द्रिय में रहकर मधुर आदि रसों का अनुभव कराता है । तर्पण चंद्रमा मस्तक में स्थित होकर नेत्र आदि इन्द्रियों की तृप्ति एवं पुष्टि करता है । इसलिए उसका नाम तर्पण है । स्लेषण सब संधियों में व्याप्त होकर उन्हें परस्पर मिलाये रखता है तथा आलम्बक चंद्रमा ह्रदय में स्थित हो शरीर के सब अंगों को परस्पर अवलम्बित रखता है । इस प्रकार वायु, अग्नि तथा चंद्रमा ने इस शरीर को धारण किया हुआ है ।इन्द्रियों के छिद्र, रोमकूप तथा उदार का अवकाश भाग – ये सब आकाशजनित है । नासिका, केश, नख, हड्डी, धीरता, भारीपन, त्वचा, मांस, हृदय, गुदा, नाभि, मेदा, यकृत, मज्जा, आंत, आमाशय, शिरा, स्नायु तथा पक्काशय – इन सबको वेदवेत्ता विद्वानों ने पृथ्वी का अंश बताया है । नेत्रों में जो श्वेत भाग है, वह कफ से उत्पन्न होता है तथा काला भाग वायु से पैदा होता है । श्वेत भाग पिता का तथा काला भाग माता का अंश है ।नेत्र में पञ्च मंडल होते हैं । पहला पक्ष्म मंडल, दूसरा चर्म मंडल, तीसरा शुक्र मंडल, चौथा कृष्ण मंडल तथा पांचवा दृक मंडल है । नेत्र के दो भाग और हैं – उपांग और अपांग । नेत्रों का जो अंतिम किनारा है, उसे उपांग कहते हैं और नास्किका के मूल भाग से जो मिला हुआ जो नेत्र का अंश है उसका नाम अपांग है । दोनों अंडकोष, मेदा, रक्त, कफ़ और मांस – इन चार धातुओं से युक्त बताये गए हैं । समस्त प्राणियों की जिह्वा रक्त-मांसमयी ही होती है । दोनों हाथ, दोनों होठ, लिंग और गव्य इन छह स्थानों में चर्म प्रधान मांस और रक्त होते हैं । इस प्रकार इन सात धातुओं के बने हुए पच्चीस तत्वयुक्त शरीर में जीव निवास करता है । त्वचा, रक्त और मांस – ये तीनो माता के अंश से तथा मेदा, मज्जा और अस्थि – ये तीनो पिता के अंश से उत्पन्न बताये गए हैं । इन्हीं छह कोषों से इस शरीर का संगठन हुआ है ।
यह पञ्चभौतिक शरीर पांच भूतों से उत्पन्न होने वाले अन्न द्वारा जिस प्रकार पुष्टि को प्राप्त करता है, उसका वर्णन करता हूँ ।देह्दारी जीव पिंड, कौर तथा ग्रास के रूप में जो अन्न खाते हैं, उसे प्राणवायु पहले स्थूलाशय में एकत्र करती है । फिर उस अन्न में प्रवेश करके अन्न और जल को पृथक पृथक कर देती है । जल को अग्नि के ऊपर रखकर अन्न को उसके ऊपर रखती है और स्वयं जल के नीचे स्थित हो धीरे धीरे अग्नि को उद्दीप्त करती है । वायु से उद्दीप्त हुई अग्नि जल को अत्यंत गर्म कर देती है फिर उस उष्ण जल से वह अन्न सब ओर से पकने लगता है । पकने पर उसके दो भाग हो जाते हैं, मेल अलग छंट जाती है और रस पृथक हो जाता है । मल निकलने के बारह मार्गों से वह छंटी हुई मैल शरीर से बाहर हो जाती है । दो कान, दो आँख, दो नाक, जिह्वा, दांत, लिंग, गुदा, नख और रोमकूप – ये बारह मल के आश्रय हैं । शरीर की सब नाड़ियां सब ओर से ह्रदय कमल से बंधी हुई हैं । व्यान वायु पूर्वोक्त अन्न रस को उन नाड़ियों के मुख में रख देती है; तप सामान बायु सभी नाड़ियों को उस रस से परिपूर्ण करती है । तत्पश्चात ये रसपूर्ण नाड़ियाँ देह में सब ओर उस रस को पहुंचा देती हैं । नाड़ियों में स्थित हुआ वह रंजक गाणी की उष्णता से पकने लगता है और पकते पकते रुधिर रूप में परिणित हो जाता है । तदनंतर त्वचा, रोम, केश, मांस, स्नायु, शिरा, अस्थि, नख, मज्जा, इन्द्रियों की शुद्धि तथा वीर्य की वृद्धि – ये कार्य क्रमशः होते हैं । इस प्रकार अन्न का बारह रूपों में परिणाम बताया जाता है । इन सबसे बना हुआ यह शरीर पुण्य के लिए प्राप्त हुआ है, जैसे सुन्दर रथ भार ढोने के लिए ही होता है । यदि वह भार न ढो सके तो, केवल तेल लगाने आदि नाना प्रकार के यत्नों द्वारा रथ की रक्षा करने से क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ?
इसी प्रकार उत्तम भोजन से पुष्ट किये हुए इस शरीर के द्वारा पुण्य सम्पादन के सिवा और क्या लाभ है ? यदि यह पुण्य नहीं करता,तो पशु के तुल्य है ।
महात्मन ! इस प्रकार मैंने आपके प्रश्न का यथाशक्ति उत्तर दिया है । प्राणी किस प्रकार उत्पन्न होता है, यह बात बता दी गयी है । अब किस प्रकार उसकी मृत्यु होती है, यह सुनिए ।
कर्म के अनुसार आयु क्षीण होने पर जब मनुष्यों का मृत्युकाल उपस्थित होता है, उस समय अपने कर्मो के अधीन रहने वाले जीव को यमराज के दूत शरीर से बाहर खींचते हैं । तब पुण्य और पाप के बंधन में बंधा हुआ जीव पञ्चतन्मात्राओं को तथा मन, बुद्धि और अहंकार को साथ लेकर शरीर को त्याग देता है ।
पुण्यात्मा पुरुषों के प्राण मुखमंडल में स्थित सात छिद्रों के द्वारा बाहर निकलते हैं । पापियों के प्राण गुदामार्ग से बाहर होते हैं और योगी पुरुषों के प्राण ब्रह्मरंध्र फोड़कर ऊर्ध्वलोक में गमन करते हैं । मृत्यु रूप होने जीव उसी क्षण अतिवाहिक शरीर धारण कर लेता है; वह अंगूठे के पोर के बराबर होता है। उस शरीर का निर्माण अपने ही प्राणों से किया जाता है । उस अतिवाहिक शरीर में जब जीव स्थित हो जाता है, तब यमराज के दूत उस देह को बाँध कर बलपूर्वक यमलोक के मार्ग से ले जाते हैं ।
यमलोक में पहुँचने पर यमदूत पापी मनुष्य को ले जाकर यमराज के सामने खड़ा कर देते हैं । पापात्माजीव काल और अन्तक आदि से घिरे हुए यमराज को बड़े भयंकर रूप में देखता है तथा पुण्यात्मा पुरुष यमराज का परम शांत और सौम्य रूप में दर्शन करते हैं ।मनुष्य ही यमलोक में जाते हैं, दुसरे प्राणी नहीं । अन्य प्राणियों की मृत्यु होने पर शीघ्र ही किसी न किसी योनी में उनका जन्म हो जाता है । इस प्रकार उनकी योनीपूर्ती मात्र की जाती है ।
(आगे कमठ ने प्रेतयोनी, श्राद्ध और सापिंडीकरण श्राद्ध का महत्त्व बताया है जिसे विस्तार भय से यहाँ नहीं लिखा जा रहा है, इसके विस्तृत वर्णन के लिए कृपया स्कन्द पुराण-गीता प्रेस पर पृष्ठ संख्या १६३ को देखें )
केवल पुण्य से एकमात्र स्वर्ग की प्राप्ति होती है और केवल पाप से एकमात्र अन्धकारपूर्ण नरक में जाना पड़ता है । पाप और पुण्य दोनों के अनुष्ठान से मानव स्वर्ग और नरक दोनों में जाता है । विप्रवर ! जन्म, मृत्यु और परलोकवास आपके इन तीनो प्रश्नों को लेकर, जैसी कि मेरे पिता ने मुझे शिक्षा दी है, आपसे निवेदन किया । अब और आप क्या सुनना चाहते हैं ? उसे भी कहूँगा ।
— स्कंद पुराण से
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