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कापालिक और बौद्ध धर्म
श्री विशिष्ठानंद (कौलाचारी )-
Mystic Power– बौद्ध संप्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्रीसाहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गई है और बौद्ध साधक अपने को ‘कपाली‘ कहते थे (चर्यापद ११, चर्या-गीत-कोश; बागची)। प्राचीन साहित्य (जैसे मालतीमाधव) में कपालकुंडला और अघारेघंट का उल्लेख आया है। इस ग्रंथ से कापालिक मत के संबंध में कुछ स्थूल तथ्य स्थिर किए जा सकते हैं। कापालिक मत नाथ संप्रदायियों और हठयोगियों की तरह चक्र और नाड़ियों में विश्वास करता था। उसमें जीव और शिव में अभिन्नता मानी गई है।
योग से ही शिव का साक्षात्कार संभव है। शिव का शक्तिसंयुक्त रूप ही समर्थ और प्रभावकारी है। शिव और शक्ति के इस मिलनसुख को ही कापालिक अपनी कपालिनी के माध्यम से अनुभव करता हैजिसे वह महासुख की संज्ञा देता है। सोम को कपालिक (स अ उमा) शक्तिसहित शिव का भी प्रतीक मानता है और उसके पान से उल्लसित हो योगिनी के साथ विहार करते हुए अपने को कैलासस्थित शिव उमा जैसा अनुभव करता है। मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मिथुन – इस पंचमकारों के साथ कापालिकों, शाक्तों और वज्रयानी सिद्धों का समानत: संबंध था और पूर्वमध्यकाल की साधनाओं में इनका महत्वपूर्ण स्थान था।
कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय था जो अपुराणीय था। इन्होने भैरव तंत्र तथा कौल तंत्र की रचना की। कापालिक संप्रदाय पाशुपत या शैव संप्रदाय का वह अंग है जिसमें वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है। कापालिक संप्रदाय के अंतर्गत नकुलीश या लकुशीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है। यह कहना कठिन है कि लकुलीश (जिसके हाथ में लकुट हो) ऐतिहासिक व्यक्ति था अथवा काल्पनिक। इनकी मूर्तियाँ लकुट के साथ हैं, इस कारण इन्हें लकुटीश कहते हैं।
कापालिक मत में प्रचलित साधनाएँ बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं। यह कहना कठिन है कि कापालिक संप्रदाय का उद्भव मूलत: व्रजयानी परंपराओं से हुआ अथवा शैव या नाथ संप्रदाय से। यक्ष-देव-परंपरा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योंकि तीनों में ही प्राय: कई देवता समान गुण, धर्म और स्वभाव के हैं।
‘चर्याचर्यविनिश्चय’ की टीका में एक श्लोक आया है जिसमें प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत् की स्त्रियों को स्त्री-जन-साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गई।पाशुपत संप्रदाय से ही कालमुख और कापालिक शाखाएँ उद्भूत हुईं। कालमुख मुख्य रूप से राजदरबारों और नगरों में सीमित रहा किंतु कापालिक मत दक्षिण और उत्तर भारत में गुह्य साधना के रूप में फैला। कापालिकों के देवता माहेश्वर थे।
गोरक्षसिद्धांतसंग्रह के अनुसार श्रीनाथ के दूतों ने जब विष्णु के चौबीस अवतारों के कपाल काट लिए तब वे ‘कापालिक’ कहलाए। इससे तथा बहुत सी अन्य कथाओं के द्वारा वैष्णव संप्रदाय से कापालिक या शैव संप्रदाय का विरोध लक्षित होता है।
भक्तिवाद का प्रभाव शैवधर्म पर पड़ा; आर्येतर जातियों में शिव जैसे देवता की उपासना प्रचलित थी किंतु बाद में वैदिक देवता इंद्र, रुद्र और आर्येतर स्रोत के देवता एक हो गए। भक्तिवादी उपासना में शिव उदार और भक्तवत्सल चित्रित किए गए। गुह्य साधनाओं में शिव का आदिम रूप न्यूनाधिक रूप में वर्तमान रहा जिसके अनुसार वे विलासी और घोर क्रियाकलापों से संबद्ध थे।
शाक्त सम्प्रदाय’ हिन्दू धर्म के तीन प्रमुख सम्प्रदायों में से एक है। आदि शक्ति अर्थात देवी की उपासना करने वाला सम्प्रदाय शाक्त सम्प्रदाय कहलाता है।महिषासुरमर्दिनी देवी दुर्गा इस सम्प्रदाय में सर्वशक्तिमान को देवी (पुरुष नहीं, स्त्री) माना जाता है। कई देवियों की मान्यता है जो सभी एक ही देवी के विभिन्न रूप हैं। शाक्त मत के अन्तर्गत भी कई परम्पराएँ मिलतीं हैं जिसमें लक्ष्मी से लेकर भयावह काली तक हैं। देवी को दक्षिण मे काली चंडी,उत्तर में शाकुम्भरी देवी,पश्चिम मे अंबाजी,पूर्व मे काली रूप मे पूजा जाता हैकुछ शाक्त सम्प्रदाय अपनी देवी का सम्बन्ध शिव या विष्णु से बताते हैं।
हिन्दुओं के श्रुति तथा स्मृति ग्रन्थ, शाक्त परम्परा का प्रधान ऐतिहासिक आधार बनाते हुए दिखते हैं। इसके अलावा शाक्त लोग देवीमाहात्म्य, देवीभागवत पुराण तथा शाक्त उपनिषदों (जैसे, देवी उपनिषद) पर आस्था रखते हैं।
शाक्त अर्थात ‘भगवती शक्ति की उपासना’। शाक्त धर्म शक्ति की साधना का विज्ञान है। इसके मतावलंबी शाक्त धर्म को भी प्राचीन वैदिक धर्म के बराबर ही पुराना मानते हैं। यह बात उल्लेखनीय है कि इस धर्म का विकास वैदिक धर्म के साथ ही साथ या सनातन धर्म में इसे समावेशित करने की ज़रूरत के साथ ही हुआ। यह हिन्दू धर्म में पूजा का एक प्रमुख स्वरूप है, जिसे अब ‘हिन्दू धर्म’ कहा जाता है, उसे तीन अंतःप्रवाहित, परस्परव्यापी धाराओं में विभाजित किया जा सकता है। वैष्णववाद, भगवान विष्णु की उपासना; शैववाद, भगवान शिव की पूजा; तथा शाक्तवाद, देवी के शक्ति रूप की उपासना। इस प्रकार शाक्तवाद दक्षिण एशिया में विभिन्न देवी परम्पराओं को नामित करने वाला आम शब्द है, जिसका सामान्य केन्द्र बिन्दु देवियों की पूजा है।
‘शक्ति की पूजा’ शक्ति के अनुयायियों को अक्सर ‘शाक्त’ कहा जाता है। शाक्त न केवल शक्ति की पूजा करते हैं, बल्कि उसके शक्ति–आविर्भाव को मानव शरीर एवं जीवित ब्रह्माण्ड की शक्ति या ऊर्जा में संवर्धित, नियंत्रित एवं रूपान्तरित करने का प्रयास भी करते हैं। विशेष रूप से माना जाता है कि शक्ति, कुंडलिनी के रूप में मानव शरीर के गुदा आधार तक स्थित होती है।
जटिल ध्यान एवं यौन–यौगिक अनुष्ठानों के ज़रिये यह कुंडलिनी शक्ति जागृत की जा सकती है। इस अवस्था में यह सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है। मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई, जब तक सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश नहीं करती और वहाँ पर अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर नहीं मिलती। भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव हर्षोन्मादी–रहस्यात्मक समाधि के रूप में मनों–दैहिक रूप से किया जाता है, जिसका विस्फोटी परमानंद कहा जाता है कि कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानंद की बाढ़ के रूप में नीचे की ओर पूरे शरीर में बहता है
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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