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कुल मार्ग
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
MYSTIC POWER – महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं,
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि॥
(शङ्कराचार्य, सौन्दर्य लहरी, ९)
आदि शक्ति कुण्डलिनी रूप मे पृथ्वी तत्त्व के मूलाधार में स्थित है। वहां से जल तत्त्व के मणिपूर, अग्नि तत्त्व के स्वाधिष्ठान, वायु तत्त्व के हृदय स्थित अनाहत, उसके ऊपर कण्ठ स्थान के आकाश तत्त्व के विशुद्धि को कुल-पथ (बांस जैसे सुषुम्ना मार्ग) को भेदते हुए सहस्रार में पहुंच कर पति रह कर पति (परमेश्वर) के साथ विहार करती है।
यहां स्वाधिष्ठान के बाद मणिपूर होना चाहिए था, पर उनका क्रम विपरीत लिखा है। इसके दो अर्थ किये जाते हैं। स्वामी विष्णुतीर्थ ने उपनिषदों के प्रमाण से लिखा है कि मूलाधार के बाद स्वाधिष्ठान में जाने से कामवासना में फंस कर मनुष्य ऊपर नहीं जा सकता है। अतः पहले मणिपूर मे जाने से सूर्य के अग्नि तत्त्व से वासना भस्म हो जाती है।
अन्य व्याख्या है कि आकाश में वास्तविक सृष्टि क्रम इसी प्रकार है। सम्पूर्ण विश्व स्वायम्भुव मण्डल प्रायः खाली होने से आकाश तत्त्व है। उसके भीतर अण्डाकार रचनायें ब्रह्माण्ड हैं, जिनमें गति का आरम्भ होता है। वह वायु तत्त्व है। उसके भीतर पिण्ड घने होकर तारा रूप में तेज का विकिरण करते हैं। सूर्य जैसे ये तारा अग्नि तत्त्व हुए। सौर मण्डल का थोड़ा सम-शीत भाग चन्द्र मण्डल है, जो जल तत्त्व हुआ। उसके केन्द्र में ठोस आधार रूप पृथ्वी भूमि तत्त्व है।
आकाश के इन मण्डलों के चिह्न ५ मूल स्वर हैं, जो माहेश्वर सूत्र के प्रथम ५ अक्षर हैं-अइउण्। ऋलृक्।
इनके सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण शरीर के मेरुदण्ड के ५ चक्रों के बीज मन्त्र हैं। वे मन्त्र उसी क्रम में हैं, जैसा सौन्दर्य लहरी में लिखा है।
हयवरट्। लण्।
हं = विशुद्धि चक्र।
यं = अनाहत चक्र।
वं = स्वाधिष्ठान चक्र।
लं = मूलाधार चक्र।
ऊपर से यह सृष्टि क्रम कहलाता है। नीचे से जो साधना क्रम है, वह संहार क्रम है।
यह संकेत पूरे विश्व में प्रचलित थे। लण् भूमि तत्त्व है- land। वं के नीचे लं या भूमि पर जल का विस्तार है, वह वल्लं (मलयालम, तमिल में जल), well = कुंआ। वं क्षेत्र का मुख्य अंग भी वं (womb) है। रं में कल्पना करते हैं कि मेष (भेड़) धक्का दे रहा है, उसे भी रं (ram) कहते हैं। उसे सूर्य चक्र भी कहते हैं, ग्रीक में भी उसका नाम हुआ solar plexus। लं, वं, रं- का क्षेत्र लंबर (lumber) है। हृदय चक्र यं है, आत्मीयता को यम्मी (yummy) कहते हैं। हं क्षेत्र से ध्वनि निकलती है, हमिंग (humming)।
कुण्डलिनी सहस्रार चक्र में पहुंच कर उसके पश्चिम भाग के विन्दु चक्र से अमृत पान करती है। उस केन्द्र पर ध्यान करने से मद्यपान जैसा तीव्र अनुभव होता है। उसके बाद कुण्डलिनी मद्य विह्वल होकर भूमि स्वरूप मूलाधार में आ जाती है। पुनः सात्विक परम आनन्द की प्राप्ति के लिए सहस्रार तक उठती है। इस प्रकार बारम्बार अभ्यास से पुनर्जन्म नहीं होता।
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते॥
(कुलार्णव तन्त्र)
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