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लक्ष्मी तथा दरिद्रा के निवास का वर्णन
डॉ.दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध सम्पादक )-
mystic power -(लिङ्ग पुराण) आदि तथा अन्त से रहित, ऐश्वर्यशाली, प्रभुता सम्पन्न तथा जगत् के स्वामी नारायण विष्णु ने प्राणियों को व्यामोह में डालने के लिये इस जगत को दो प्रकार का बनाया है। उन महातेजस्वी विष्णु ने ब्राह्मणों, वेदों, सनातन वैदिक धर्मों, श्री तथा श्रेष्ठ पद्मा की उत्पत्ति करके एक भाग किया और अशुभ तथा ज्येष्ठा अलक्ष्मी, वेदविरोधी अधम मनुष्यों तथा अधर्म का निर्माण करके एक दूसरा भाग किया॥२-४३ ॥
भगवान् जनार्दन ने पहले अलक्ष्मी का सृजन करके ही पद्मा (लक्ष्मी) का सृजन किया है, इसीलिये अलक्ष्मी ज्येष्ठा कही गयी हैं। अमृत की उत्पत्ति के समय महाभयंकर विष निकलने के पश्चात् पहले वे ज्येष्ठा अशुभ अलक्ष्मी उत्पन्न हुईं, ऐसा सुना गया है। उसके अनन्तर विष्णु भार्या लक्ष्मी पद्मा आविभूत हुई ।। ५-७॥
तब लक्ष्मी के विवाह से पूर्व दु:सह नामक विप्रर्षि ने उस अशुभा ज्येष्ठा के साथ विवाह किया तथा उसको परिग्रहीत देख स्वयं को परिपूर्ण माना; तब वे मुनि प्रसन्नचित्त होकर उसके साथ लोक में विचरण करने लगे।
हे विप्रो ! जिस स्थान पर विष्णु तथा महात्मा शिव के नाम का घोष तथा वेदध्वनि होती थी, हवनका धूम दीखता था अथवा अंगों में भस्म धारण किये हुए लोग रहते थे, वहाँ पर वह अलक्ष्मी भयातुर होकर अपने दोनों कान बन्द करके इधर-उधर भागती हुई जाती थी। उस ज्येष्ठा को इस प्रकार के स्वभाव वाली देखकर मुनि दु:सह उद्विग्न हो उठे॥८-११॥
इसके बाद वे महामुनि उसके साथ घोर वन में जाकर कठोर तप करने लगे। वे सोचने लगे कि कन्या का प्रतिग्रह भविष्य में नहीं करूंगा-ऐसा कहकर और प्रतिज्ञा करके वे ऋषि योग ज्ञान परायण हो गये। किसी समय उन विशुद्धात्मा योगीश्वर मुनि ने वहाँ पर आते हुए मार्कण्डेयजी को देखा। उन महात्मा मुनि को प्रणाम करके ऋषि दुःसहने कहा-
हे भगवन्! मेरी यह भार्या मेरे साथ कभी नहीं रहेगी। हे विप्रर्षे! मैं क्या करूँ; अपनी इस भार्या के साथ कहाँ जाऊँ और कहाँ न जाऊँ? ॥ १२-१५३।।
मार्कण्डेयजी बोले-हे दुःसह! सुनो, अकीर्ति सर्वत्र अशुभ से युक्त रहती है; यह अतुलनीय अलक्ष्मी ‘ज्येष्ठा’—इस नाम से पुकारी जाती है ॥ १६३ ॥ जहाँ नारायण के भक्त, वेदमार्ग का अनुसरण करने वाले, रुद्रभक्त, महात्मागण तथा भस्म से अनुलिप्त शरीर वाले लोग सदा रहते हों, वहाँ तुम कभी भी प्रवेश मत करना।
‘हे नारायण! हे हृषीकेश ! हे पुण्डरीकाक्ष ! हे माधव! हे।अच्युतानन्त ! हे गोविन्द ! हे वासुदेव! हे जनार्दन ! हे रुद्र ! | हे रुद्र! हे रुद्र!’ शिवको बार-बार नमस्कार है, शिवतर को नमस्कार है, शंकर को सर्वदा नमस्कार है, हे महादेव ! हे महादेव! हे महादेव-ऐसा कहते रहने वाले आप उमापति, हिरण्यपति, हिरण्यबाहु तथा वृषांक को सदा बार-बार नमस्कार है, हे नृसिंह! हे वामन! हे अचिन्त्य ! हे माधव!-ऐसा जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र प्रसन्न होकर नित्य बोलते रहते हैं। उनके धन-आदि गृहों में, उद्यान में तथा गोष्ठों में कभी भी प्रवेश मत करना; क्योंकि विकराल अग्नि-ज्वालाओं तथा हजारों सूर्यो के समान तेजोमय अत्यन्त उग्र विष्णुचक्र उन लोगों के अमंगलका सदा नाश कर देता है ॥ १७-२४॥
जिस घर में स्वाहाकार तथा वषट्कार होता हो तथा जहाँ पर सामवेद की ध्वनि होती हो, उसे छोड़कर अन्यत्र चले जाना। जो लोग नित्य वेदाभ्यास में संलग्न हों, नित्यकर्म में तत्पर हों तथा वासुदेव की पूजा में रत हों, उन्हें दूर से ही त्याग देना ॥ २५-२६।। जिनके घर में अग्निहोत्र तथा शिवलिङ्ग का पूजन होता हो और जिनके घरों में वासुदेव तथा भगवती चण्डिकाकी मूर्ति विराजमान हो, समस्त पापोंसे रहित उन लोगोंको छोड़कर दूर चले जाना।
हे दुःसह! जो लोग नित्य तथा नैमित्तिक यज्ञों के द्वारा महेश्वर की आराधना करते हैं, उन्हें छोड़कर तुम इसके साथ अन्यत्र चले जाना। जो लोग वैदिकों, ब्राह्मणों, गौओं, गुरुओं, अतिथियों तथा रुद्रभक्तों की नित्य पूजा करते हैं, उनके पास मत जाना ॥ २७-२९३॥
दुःसह बोला- हे मुनिश्रेष्ठ! जिस स्थान में मेरा प्रवेश हो सके; उसे आप मुझे बतायें, जिससे आपके। वचन से मैं भयरहित होकर इनके घर में सदा प्रवेश करूँ॥ ३०३॥
(श्रीलिङ्गमहापुराण उ० ६।१७-२९)
मार्कण्डेयजी बोले-
जिसके घरमें वैदिकों, द्विजों, गौओं, गुरुओं तथा अतिथियोंकी पूजा न होती हो और जहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे के विरोधी हों, उसके घर में तुम निर्भय होकर अपनी भार्या के साथ प्रवेश करो। जहाँ पर देवाधिदेव, महादेव तथा तीनों भुवनों के स्वामी भगवान् रुद्रकी निन्दा होती हो, वहाँ तुम भयरहित होकर प्रवेश करो ॥ ३१-३२३॥
जहाँ भगवान् वासुदेव के प्रति भक्ति न हो; जहाँ सदाशिव न स्थापित हों; जहाँ मनुष्यों के घर में जप-होम आदि न होता हो, भस्म-धारण न किया जाता हो, पर्व पर विशेष करके चतुर्दशी तथा कृष्णाष्टमी तिथि पर रुद्रपूजन न होता हो, लोग सन्ध्योपासन के समय भस्मधारण न करते हों; जहाँ पर लोग चतुर्दशी के दिन महादेव का यजन न करते हों, जहाँ लोग विष्णु के नाम संकीर्तन से विमुख हों; जहाँ लोग दुष्टात्मा वाले पुरुषों के साथ रहते हों; जहाँ ब्राह्मण तथा विकृत मनवाले मनुष्य ‘कृष्ण को नमस्कार है, परमेष्ठी शर्व को नमस्कार है’—ऐसा नहीं कहते हों, वहीं पर तुम अपनी भार्या के साथ सदा प्रवेश करो ॥ ३३-३७॥
जहाँ वेदध्वनि तथा गुरुपूजा आदि न होते हों, उन स्थानों पर और पितृकर्म (श्राद्ध आदि)-से विमुख लोगों के यहाँ अपनी भार्या सहित निवास करो। जिस घर में रात्रि-वेला में लोगोंके बीच परस्पर कलह होता हो, वहाँ तुम भयमुक्त होकर इसके साथ निरन्तर निवास करो ॥ ३८-३९ ॥
जिसके यहाँ शिवलिङ्ग का पूजन न होता हो तथा जिसके यहाँ जप आदि न होते हों, अपितु रुद्रभक्ति की निन्दा होती हो, वहीं पर तुम निर्भय होकर प्रवेश करो। जिस घर में अतिथि, श्रोत्रिय (वैदिक), गुरु, विष्णुभक्त और गायें न हों, वहाँ तुम अपनी भार्यासहित निवास करो॥ ४०-४१ ॥
जहाँ बालकों के देखते रहने पर उन्हें बिना दिये ही लोग भक्ष्य पदार्थ स्वयं खा जाते हों, उस स्थानपर तुम प्रसन्न होकर सपत्नीक प्रवेश करो। महादेव अथवा भगवान् विष्णु का पूजन न करके तथा विधिपूर्वक हवन न करके जहाँ लोग रहते हों, वहाँ तुम सदा निवास करो ॥ ४२-४३॥
जिस घर में या देश में पापकृत्य में संलग्न रहने वाले, मूर्ख तथा दयाहीन लोग रहते हों, वहाँ पर तुम प्रवेश करो। घर और घर की चारदीवारी को तोड़ने वाली अर्थात् घरकी मान-मर्यादाको भंग करने वाली, दुःशीलता के कारण किसी भी प्रकार प्रसन्न न होने वाली गृहिणी जिस घर में हो, उस घर में प्रसन्न मन से सदा निवास करो ।। ४४-४५ ।।
जहाँ काँटेदार वृक्ष हों, जहाँ निष्पाव (सेम आदि) की लता हो और जहाँ पलाश का वृक्ष हो, वहाँ तुम अपनी पत्नीसहित निवास करो। जिनके घरों में अगस्त्य, आक आदि दूध वाले वृक्ष, बन्धुजीव (गुलदुपहरिया) का पौधा, विशेषरूप से करवीर, नन्द्यावर्त (तगर) और मल्लिका के वृक्ष हों, उनके घरों में तुम पत्नी के साथ प्रवेश करो। जिस घर में अपराजिता, अजमोदा, निम्ब, जटामांसी, बहुला (नीलका पौधा), केले के वृक्ष हों, वहाँ पर तुम सपत्नीक प्रवेश करो। जहाँ ताल, तमाल, भल्लात (भिलावा), इमली, कदम्ब और खैरके वृक्ष हों, वहाँ तुम अपनी भार्या के साथ प्रवेश करो। जिनके
घरों में बरगद, पीपल, आम, गूलर तथा कटहल के वृक्ष हों, उनके यहाँ तुम अपनी भार्या के साथ निवास करो। जिसके निम्बवृक्ष में, बगीचे में अथवा घर में कौवों का निवास हो और जिसके घर में दण्डधारिणी तथा कपालधारिणी स्त्री हो, उसके यहाँ तुम पत्नीसहित निवास करो ॥ ४६-५१ ॥
जिस घर में एक दासी, तीन गायें, पाँच भैंसे, छ: घोड़े और सात हाथी हों, वहाँ तुम अपनी भार्यासहित प्रवेश करो। जिस घर में प्रेतरूपा तथा डाकिनी काली प्रतिमा स्थापित हो और जहाँ भैरव-मूर्ति हो, वहाँ तुम अपनी पत्नी के साथ प्रवेश करो। जिस घर में भिक्षुबिम्ब आदि हो, वहाँ तुम यथेच्छ निवास करो।
सोने, बैठने, भोजन तथा भ्रमण के समयों में जिनकी वाणी (जिह्वा) सदा भगवान् श्रीहरि के नामों का उच्चारण नहीं करती, उनका घर सपत्नीक तुम्हारे निवास करने के लिये मैं बता रहा हूँ॥५२-५६ ॥
जहाँ दम्भपूर्ण आचार में निरत रहने वाले, श्रुति तथा स्मृति से विमुख रहने वाले, विष्णुभक्ति से विहीन, महादेव की निन्दा करने वाले, नास्तिक तथा शठ लोग हों, वहाँ पर तुम पत्नी सहित निवास करो ॥ ५७३।।
जो लोग भगवान् शिव को सबसे श्रेष्ठ नहीं कहते हैं और इन्हें साधारण समझते हैं, उनके यहाँ तुम भार्यासहित निवास करो। कलुषित मनवाले जो लोग ‘ब्रह्मा, भगवान् विष्णु तथा सभी देवताओं के स्वामी इन्द्र या रुद्र के प्रसाद से आविर्भूत हैं’–ऐसा नहीं कहते हैं; और ब्रह्मा, भगवान् विष्णु तथा इन्द्र को इनके समान कहते हैं, साथ ही जो मूढ़ तथा अज्ञानी लोग सूर्य को खद्योत कहते हैं-उनके गृह, क्षेत्र तथा आवास में तुम सदा इसके साथ निवास करो और पूर्ण रूप से अनन्यबुद्धि होकर उनके घर में भोग करो ।। ५८–६१३ ।।
जो मूर्ख तथा अज्ञानी लोग अकेले ही पका हुआ अन्न खाते हैं और स्नान आदि मंगलकार्यों से विहीन रहते हैं, उनके घर में तुम प्रवेश करो। जो स्त्री शौचाचार से विमुख हो, देहशुद्धिसे रहित हो तथा सभी भक्ष्याभक्ष्य पदार्थो के भक्षण में तत्पर रहती हो, उसके घर में तुम नित्य निवास करो ।। ६२-६३३ ॥
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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