![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2024/03/यन्त्रों-के-अद्भुत-चमत्कार-1.png)
लोक संगीत का महत्त्व
श्री गोविन्द राव राजुरकर-
Mystic Power– कला का लोकपक्ष संतुलित जीवन की मार्मिक वस्तुस्थिति, सामाजिक रूढ़ि- विश्वास तथा कलात्मक स्रजन की ओर प्रेरित करता है कला के लोकपक्ष के प्रेरणात्मक आधार सामाजिक विश्वास, रीतिरिवाज, उत्सव- त्यौहार एव अन्य विशिष्ट मूल्य हैं जो सामूहिक रूप में सामाजिकता से युक्त होते हैं। अर्थात कला का लोकपक्ष शास्वविहीन है तथा उसमें सामाजिक परम्पराओ के विशिष्ट दर्शन होते हैं। उसमें सहज सुलभ सौंदर्य रसादि की अनुभूति विशेष रूप से विद्यमान है। इसी संदर्भ में लोक संगीत अर्थात् सगीत, कला के लोकपक्ष को देखना चाहिए।
लोकसगीत का जन्म व्यक्ति के नैतिक मूल्यों, सामाजिक उत्सव- त्योहारों, रीति-रिवाजों एवं सामूहिक कार्यों द्वारा ही हुआ है। व्यक्ति के नैतिक मूल्यों के संदर्भ में यह कहना अनुचित नहीं है कि किसी व्यक्ति विशेष के ही नैतिक मूल्य इसके स्रजनकर्ता नहीं हैं। किसी भी व्यक्ति विशेष के नैतिक मूल्यों के द्वारा सृजित लोकगीत समाज में प्रचलित सर्वसाधारण धुनों पर ही आधारित होता है।
सभी की नैतिक विचारधारा सर्जक की अपनी स्वर-कल्पना से सर्जित गीत समाज में प्रचलित धुनों में अविच्छिन्न रूप में घुलमिल जाता है। इस प्रक्रिया में लोकगीत एवं उसके रचयिता की व्यक्ति-विशेपता प्रधान नही रहती है। ऐतिहासिक दृष्टि से सृजनकर्ता गौण हो जाता है व उसका गीत सामूहिक बन जाता है।
लोकसंगीत की सृजन-प्रक्रिया सहज, स्वाभाविक एक स्वय स्फूर्त होती है। सारांश यह है कि लोकसंगीत की उद्भावना मे व्यक्ति निष्ठता प्रधान न होकर समाज के नैतिक मूल्य, सामाजिक विश्वास, रीतिरिवाज, विभिन्न उत्सव-त्योहार ही प्रधान होते हैं व उन्ही के द्वारा विभिन्न प्रकार के लोकगीत एव धुने प्रस्फुटित होकर समाज में अपनी विशेष परंपरा स्थापित करती हैं जो मानव समाज को एक सूत्र में पिरोने में सहायक होती हैं। हमारे समाज में मानवीय संबंध, विश्वास रीतिरिवाज, जीवन के विभिन्न मामिक अनुभव एवं प्रेममय मधुर कल्पनाएं कादि का सामाजिक दृष्टि से विशिष्ट स्थान है। इन्हीं सर्वव्यापी तथ्यों के विषय लोकसंगीत में पाये जाते हैं। इसीलिए लोकसंगीत सम्पूर्ण मानव-समाज को एक सूत्र में बांध देता है।
विभिन्न प्रान्तों के लोकगीत एवं लोकनृत्य के विषय में विचार करने के पूर्व लोकसंगीत के माध्यम एवं उपकरणों के विषय में संक्षेप में विचार कारना उचित होगा । माध्यम के संबंध में यही कहना पर्याप्त है कि शास्त्रीय संगीत में कंठ, नाद, बाद स्वर आदि जिस प्रकार प्रमुख माध्यम माने जाते हैं उसी प्रकार लोकसंगीत में भी यही माध्यम होते है। लोकसंगीत के उपकरण भी प्रायः यही है, जो शास्त्रीय संगीत के लिए उपयोग में आते हैं।
विशिष्ट प्रकार की लकड़ी, विशिष्ट प्रकार से कसाया हुआ चर्म , लोहे एव पीतल के तथा विशिष्ट नांतों द्वारा बनाये गये तारों व विशिष्ट प्रकार की काली एवं पीली मिट्टी आदि के उपकरणों द्वारा वे उचित वाद्य बनाये जाते हैं जिनका आकार, प्रकार एवं स्वरूपं विभिन्न प्रान्तों को अपनी-अपनी लोक परंपरा लिए हुए है।
भारत में काश्मीरी, पहाड़ी, पंजाबी, उत्तर प्रदेशी, बंगाली, राजस्थानी, असमी उड़िया, गुजराती, मालवी, मराठी, कन्नड़, तेलगु तथा शेष दक्षिण प्रांतीय लोकगीत,लोकवाय एवं लोकनृत्य आज प्रचलित है। उनका गीत-काव्य उन प्रान्त विशेषों की अपनी रोज की व्यावहारिक भाषा एवं प्रचलित धुनों में ही रचित है।
वेशभूषा एवं वाद्य-यंत्र भी अपनी-अपनी प्रांतीय विशेषता लिए हुए हैं। विभिन्न प्रान्तों के लोकगीत, लोकवाद्य एवं लोकनृत्यों के विषय में विस्तृत विवेचन देने की अपेक्षा राजस्थानी लोकगीत, लोकवाद्य एवं लोकनृत्यो के विषय में साधारण विस्तृत विवरण देना ही उचित होगा।
भारत के नन्य शेष भागों के लोकसंगीत एवं लोकनृत्यों के संबंध में संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अनेक लोकगीत स्वतंत्र रूप से सामूहिक गान के रूप में गाये जाते है। प्रांत विशिष्ट के उत्सव-त्योहारों एवं प्राप्त विशिष्ट श्रृंगार-वीर रसात्मक लोक कथाओं को लेकर नृत्य का लोक रूप प्रकट होता है।
पहाड़ी प्रांत में लोकगीत उत्सव-त्योहारों, विशेष देवी-देवताओं की मान्यता के अवसरों पर गाये जाते हैं तथा शिकार, भिल्ल जादि सामूहिक नृत्य उन्ही गीतों के आधार पर होते है। पंजाब में लोकगीतों के अतिरिक्त हीर रांझा जैसी अन्य प्रेम-कथाओं को लेकर गीत एवं नृत्यों का प्रदर्शन किया जाता है। पंजाब में ‘भांगड़ा’ लोकनृत्य विशेषतः लोकप्रिय है।
उत्तर प्रदेश में देशी, पुरवाई तथा अवधी लोकगीत प्रचलित है। इसके अतिरिक्त वसंत, होली एवं दीपावली के विशिष्ट उत्सव एवं त्यौहारों के गीत एवं नृत्य भी सामूहिक रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। बसंतोत्सव एवं होली के लिए विशेष लोकनृत्य है। रासलीला के सामूहिक नृत्य आज भी ऐसे अवसरों पर आयोजित होते है जिन्हें भक्ति के अन्तर्गत माना जाता है।
बंगाल का मांझी तथा संथाली नृत्य जाज लोकनृत्यों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किये हुए हैं।
गुजराती लोक-नृत्यों में गरबा, डन्डिया आदि अनेक प्रसिद्ध नृत्य हैं, जिनमें लोकनृत्य एवं लोकगीत का समन्वय दिखाई देता है।
मालवा, मध्य प्रदेश तथा छत्तीस गढ़ के लोकगीत एवं लोकनृत्य किचित् हेरफेर से उन्ही विषयों को लेकर है जो प्रायः सर्वत्न लोकगीत के अंतर्गत आते है। प्रान्त विशेष की भाषा एवं वेशभूषा की विभिन्नता व पदापात की किचित् भिन्नता तथा बंग-प्रत्यंगों की संचालन-शैली में किचित् हेरफेर से उसमे नवीनता एवं विशेषता उत्पन हो जाती है।
महाराष्ट्र एवं उसके बासपास के क्षेत्रो में संस्कृति की कतिपय बातो में समानता होने के कारण वसंत, होली, दीपावली आदि उत्सव-त्योहारों के अतिरिक्त मंगला- गोरी, भुलाबाई जैसे अनेक धार्मिक एवं सामाजिक अवसर पर भी लोकगीत गाये जाते हैं, जिनके साथ ‘फुगड़ी’ तथा ‘झिम्मा’ जैसे नृत्यों का प्रदर्शन भी किया जाता है। कोली नृत्य व उसके साथ गाया जाने वाला गीत महाराष्ट्र के लोकसंगीत की अपनी विशेषता है।
महाराष्ट्र के लोकगीतों में वीरगाथाओं को भी समाविष्ट किया गया है। आहोर जाति के लोग इन्हें पवाड़े के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
कर्नाटक, तेलंगाना तथा दक्षिण के अन्य क्षेत्रों में भी प्रांत विशेष की भाषा में परंपरागत लोक धुनों पर आधारित लोकगीत गाये जाते हैं तथा विभिन्न लोकनृत्यों का प्रदर्शन भी किया जाता है।
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/02/DONATION.jpeg)
![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/10/contact-us-.png)