मानस-पूजन रहस्य
ज्ञानेन्द्रनाथ-किसी भी परंपरा; पंथ या संप्रदाय में मानसपूजा का महत्व अपरंपार बताया है। क्या होती है यह पूजा? मन ही मन इष्ट का पूजन करना – ऐसा ही उत्तर सभी देते है। यह; मात्र अर्ध-सत्य है। कैसा करते है मानस-पूजन? इष्ट की मूर्ती मनःसचक्षु के सामने लाके; उसका पूजन। यह तो हम सब जानते है। कुछ व्यक्ति सालो साल तक ऐसा पूजन करके भी बोलते है; जितना मिलना चाहिये उतना नही मिला। इसी लिए उपर कहा है कि ऐसा मानस पूजन अर्धसत्य है। फिर क्या है पूर्ण सत्य? क्या कमी रहती है इस पूजा मे? यही अब देखते है।
“जिस उपादान का प्रतीक; उसी उपादान का पूजक होना चाहिये।” तभी यह पूजा त्वरित फलप्रद होती है। कुछ उदाहरण से स्पष्ट करते है।
“समान शीलेषु सख्यमं”। कैसे? शराबी की दोस्ती शराबी के साथ ही तुरंत होती है। व्यावसायिक; दोस्ती करते है व्यवसायिको से बच्चे ; अपनी उमर के बच्चे ही चुनते है दोस्ती के लिए। वृद्ध वृद्धो से मैत्री करते है। क्यों होता है ऐसा? क्योंकि उक्त जैसे उदाहरणो में दोस्तों का स्तर (Level) एक ही है। कभी देखी है साधु की दोस्ती डाकु से? नशाबाज को हवन करते हुए बैठा देखा है कभी? तात्पर्य यही है कि समान याने एक ही स्तर वालो के सम्बन्ध तुरंत जुड जाते है।अब आते है मानसपूजा के विषय पर।
इष्ट की मूर्ती मनःचक्षु के सामने तो लायी और पूजा-उपचार? स्थूल देह से? देवता चैतन्यमयी है। तो हमे भी चैतन्य स्वरूप ही होकर पूजन करना चाहिये ना? तभी देवता का व हमारा स्तर एक होकर फल त्वरित मिलेगा। कैसे किया जाता है यह ?
जिस प्रकार हम देवताकी मूर्ती सामने लाते है; उसी प्रकार से स्वयं की भी चैतन्यमयी मूर्ती देवता के समक्ष लाके उसके द्वारा इष्ट का पूजन किया तो वह सामान याने चैतन्य के ही स्तर पर होगा ना? इतना विवेचन अब तक हम समझ गये होंगे शायद। अब प्रत्यक्ष मानस पूजा मेरे द्वारा कैसी की जाती है? वोही पद्धति आपके समक्ष रखी जाएगी। महाशक्ति भ. श्रीदक्षिणाकाली मेरी इष्ट है। अब आगे के विवरण का भाव समझने की कोशिश करना।
सुबह जब उठता हूँ; तब माता मेरा गाल पकडके कहती है ; “उठ बेटा ! आज खेलने नही जाओगे? (खेलना=इस दुनियाकी घटनाओ मे भाग लेना। कर्तव्य-कर्म करना)। उठने के बाद चाय लेकर बैठता हूँ। अपने देह से अलग होकर (वैसे भाव रखकर) भगवती के पास जाना शुरु करता हूँ। रास्ते मे रम्य वनश्री; मयूर; आदि की कल्पना (सब चैतन्यमयी) करता हूँ। फिर एक दिव्य सरोवर के पास आता हूँ। उसमे स्नान करके बाहर निकलता हूँ ; तब भाव ये होता है कि; मेरा देह दिव्य-चैतन्यमय हुआ है। सामने मन्दिर् में काली माता चैतन्यरुप मे होती है। उसके स्तवन; स्तुति गन्धर्व-किन्नर आदि कर रहे है। वे नृत्य भी कर रहे है। संगीत चल रहा है। बहुत से दीप प्रजवलीत है। मेरे पास भी कभी पूजा सामग्री है। वह लेकर मैं अंदर प्रवेश करता हूँ। सभी सामग्री दिव्य व उत्तम श्रेणीकी है। सोने की तशतरि; गँगाजल; आदी माँ को पुजा की अनुमती मांगता हूँ। और पाद्य; गन्ध; अक्षत; पुष्प; पुष्पमाला; धूप; दीप; नैवेद्य; जल; तांबूल आदि उपचारो से पूजन करता हूँ। हरेक उपचार गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र से करता हूँ अंत मे आरती कर प्रणाम। तब माँ मेरे सिर पर हाथ रख के आशीर्वाद देती है। उपदेश देती है। मैं उसके अनुसार चलने का वचन देता हूँ। कल फिर पूजन के लिए आऊंगा ऐसा कहता हूँ। माँ वापस जाने की अनुमती देती है। तब वहा से उठकर वापस निकलता हूँ और मेरे चैतन्यमय देह का प्रवेश खुद्के देह मे होता है। आँखें खुलती है तब स्वयंको अपने ही घर मे बैठा हूँ यह देखता हूँ।
इस प्रकार मानस पूजा होती है। इसमे मंत्रजप; ध्यान; दिव्यत्वका चिंतन – सब कुछ है। साधक-गण अपनी रुचि के अनुसार उपचारो मे परिवर्तन कर सकते है। मात्र क्रम निश्चित हो। इससे मन एक्प्रवाही होगा। मानस पूजा यह दिवास्वप्न की तरह है यह सत्य है। मानस पूजन का वैज्ञानिक विवेचन आगे किया जा रहा है ।
मानस -पूजा (पुरवणी) – संक्षिप्त विवेचन
जैसे कि ऊपर कहा है कि; मानसपूजा जागृतावस्था में देखा जाने वाला स्वप्न होता है (Revory या दिवास्वप्न); अतः इसे अंधश्रद्धा के ग्रुप में ढकेलने का विचार भी कुछ साधक करेंगे। स्वागत भी है उनके विचारो का। बंधुओ; क्या आप कभी भी ऐसे दिवास्वप्न मे मश्गुल नही होते? कोई युवक प्रेमिका के स्वप्न मे; कोई राजनीति मे कोई कुछ कोई कुछ इसका Output? Zero !!! या “ना” के बराबर। इससे तो अधिक अच्छा है दिव्यत्व के स्वप्न देखना। अधुनिक मानसतज्ञो का भी संशोधन है कि उत्तम विचारो से देहांतर्गत अणु-रेणु ऊर्जामय होते है। तो क्या बुरा है ; कि फालतू स्वप्नओं की जगह पर दिव्यत्वके स्वप्न देखना? अब मानस पूजा के लाभ भी देखिये।
इसमें भाव महत्वपूर्ण है। धक्का मारकर जगाने के बजाय क्या अपना इष्ट दैवत हमे प्यार से जगाए; यह बात अछि नही? जब जीवन भावपूर्ण होता है तभी सानंद उन्नति होगी। वरना विदेशो मे मनोरुग्णालयों की बढोत्तरी किस बात का द्योतक?
स्वयं के देहसे बाहर आकर पूजन करने मे दिव्यत्व है। भाव है। मेरा कल्याण होगा-इसकी निश्चिती है। मुक्ति का भाव है। आनंद है। पूजा के विशिष्ट क्रम से एक प्रवाही होने वाला मन; प्रचंड उर्जास्रोत है। एकाग्रता है। कुछ काल बाद; “मैं कर सकता हूँ”- यह आत्मविश्वास है। इस प्रकार के आंतरिक उन्नती के प्रतिध्वनी बाह्य जगत में जब आते है; तब वह व्यक्ति–संशोधक; तत्वद्न्य ; भक्त; संत या किसी भी क्षेत्र मे – वैशिष्ट्यपूर्ण होती है। क्या यह सत्य नही है? अंतरबाह्य उन्नति यदी “साध्य” मानी जाय; तो अध्यात्म कें विधिविधान “साधन” है। गीता मे भी पहले ६ अध्यायोतक तंत्वोपदेश देकर ७ वे अध्याय की प्रथम पंक्ती मे ही श्रीकृष्ण कहते है कि; ईश्वर को साधन मानकर ; “स्व-अनुभूती” को प्राप्त हो जावो।
देह से बाहर आना कोई डरावनीं बात नही है। यह तो “स्व”में जागृत होनेकी दिव्य प्रक्रिया है। भौतिक विज्ञान भले इसे अंधश्रद्धा कहे; पर क्या यह सत्य नही है कि; जन्म-मृत्यु इन दोनो बिंदूओ के आरंभ मे व बाद मे भी कुछ दुनिया है। इस पर विदेशो मे संशोधन भी शुरु है।
मानस पूजन की सामग्री; उपचार दृश्य; कल्पना; भाव; मन्त्र आदि सबकुछ चैतन्यमय होने के कारण; साधक स्वयं ही एक प्रचंड ऊर्जास्रोत बन जाता है। संत महात्माओ के चरित्र इसके साक्षी है। वैज्ञानिक भी अध्यात्म-पथ अपनाकर उन्नति करते है।
अब अंधश्रद्धा की बातपर आते है। अंधश्रद्धा निर्मूलनवलो के पश्चात उनके रिश्तेदार श्राद्धादि क्यों करते है? श्रद्धा-विरोधकी तुती बजाने वाले स्वयं गणेशोत्सव; दिवाली; नवरात्री आदि मनाते है। क्यों? इसका उत्तर शायद यही होगा कि; “हमारे धर्म में ये संस्कार बताए है। हमे धर्म का अभिमान है।”यहां कुछ प्रश्न उनके लिए-
धर्माभिमान सुंदर बात है। किंतु स्वयं को हिंदु या किसी भी धर्म का कहलवाना या हिंदू होने का गर्व करना; इसका निश्चित अर्थ क्या है? माता-पिता हिंदू। उसी परिवार में आप बडे हुए। परंपरा से चलते आये हुए आचार विचार ; रूढी; रिवाज आदि से आपका देह बना। पर क्या इन बातों की वजह से स्वयं को हिंदू कहलवाना या उसपर गर्व करना ;धर्म का अभिमान रखना; आदि बातो से आप के हिंदू होने का प्रयोजन सिद्ध हो सकता है भला?
धर्म; प्रत्यक्षानुभूति का विषय है। सर्वांगीण उन्नति उसका उद्देश है। मात्र प्रचार-प्रसार या गर्व करना; कुछ भी जाने बिना रिवाजो मे अटकना व्यर्थ है। खुद को श्रद्धा (या अंधश्रद्धाही सही) का अनुभव हो; धर्मकी अनुभूती हो; तभी आपके विचारो का वजन (weightage)होगा अन्यथा यह बौद्धिक सर्कस होगी output=zero ! अतः रूपकात्मक चीजों का अर्थ अपने चश्में से जानने के प्रयास भी व्यर्थ है- शायद मेरे द्वारा का यह बौद्धिक आक्रमण किसी सज्जन को ठीक नही लगेगा ।
मानस-पूजन साधना कैसे करें-
ज्ञानमार्ग से ऐसी साधना हो सकती है क्या? ऐसी जिज्ञासा कुछ बंधुओ ने तथा एक भगिनी ने की है। उत्तर है ” हां ” –
जिन्हे करनी है यह साधना- अवश्य कर सकते है। मानस-पूजा में प्रतीक तो आवश्यक होता ही है।ज्ञानयोग मे कौन सा प्रतीक हो सकता है ? देखिए
प्रसन्नता पूर्वक आसन पर बैठीए। आंखें बंद करे। अब हमे मानस पूजा करनी है। भाव रखीए कि ; हमारा मन ही एक प्रतीक है। एक गोलाकार; स्वच्छ तथा चमकदार दर्पण। ऐसी मन की प्रतिमा मन:शचक्षूंओ के सामने लाईए। यही दर्पण (आईंना) मन समझे। अब स्वस्थ; शांत चित्त से मात्र देखते रहिये।(मैं भ्रू-मध्यमे लक्ष केंद्रित करता था।)। कुछ भी विचार मन मे आ सकते है,आने देना,रोकना नही। तटस्थता से सिर्फ निरीक्षण करते रहना।
यह दर्पण हमारा मन है। मान लिजियेगा कि एक विचार उठा – तो एक काला बिंदू दर्पण (मन)में आया। उसे मानसिक रुप मे ही दर्पण के बाहर निकाल दे। फिर दूसरा आएगा – तीसरा-चौथा – ऐसे कई विचार आ सकते है। आते ही है। एक एक करके सभी को दर्पण रूपी मन के प्रतीक से बाहर कर देते रहे। ऐसी साधना नित्य आधा घंटा करे। साधना करते समय एकाध जप भी शुरु हो सकता है। उसे भी बाहर कर देना है।
इस साधना मे कोई भी मंत्र-जप- ध्यान आदि करना ही नही है। क्या करना है फिर? “कुछ भी नही करना ” – यही करना है। सिर्फ साक्षी भाव से निरीक्षण है इसमे।
कुछ काल के पश्चात एक अवस्था ऐसी आयेगी कि; दर्पण पूर्ण रूप मे तेजोमय है। एक भी बिंदू नही है उसमे। इसी अवस्था मे स्थिर होनेके प्रयास करे। स्व-रूप की ही यह एक झलक होगी।
इस साधना की फलश्रुती क्या है? व्यावहारिक (बाह्य + आंतरिक) तथा आंतरिक उन्नति।प्रगती।
अन्य फलश्रुति ; साधनां द्वारा स्वयं ही अनुभूत करा लेना- इतना ही बता सकता हूँ। अस्तु ।
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