गायत्री महामंत्र और मूर्छाप्राणायाम
श्री सुशील जालान ( ध्यान योगी )
Mystic Power- ब्रह्मऋषि/महाऋषि किसी भी जातक के भविष्य की दिशा बदल सकने में सक्षम होते हैं। वही सटीक भविष्यवाणियां भी कर सकते हैं। यह इसलिए है क्योंकि ऐसे देवत्व वाले व्यक्तित्व में वाक् सिद्धि होती है और वह जो कुछ भी कहते हैं वह ब्रह्म-वाक्य जैसा हो जाता है, अर्थात् वेदों की किसी ऋचा के स्वरूप जैसा सत्य। यही वरदान है, देवत्व से परिपूरित है।
कल्प के आरंभिक ब्रह्मऋषि ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं। उन्होंने किसी स्त्री के गर्भ से जन्म नहीं लिया है। वर्तमान श्वेत वराह कल्प में प्रकट होने वाले प्रथम सात ब्रह्मऋषि हैं –
अत्रि, वसिष्ठ, अंगिरा,मरीचि, पुलत्स्य, पुलह, और क्रतु,
ये प्रथम मन्वंतर में सप्त ब्रह्मऋषि थे जिन्हें स्वयंभू भी कहा जाता है।
एक कल्प में 14 मन्वंतर (मनु + अंतर) होते हैं। प्रत्येक कल्प काल का यह एक खगोलीय माप है जिसे ब्रह्मा का एक दिन और इतने ही कालखंड को एक रात्रि कहा जाता है। प्रत्येक मनु का जीवन काल 30,67,20,000 मानव वर्ष होता है, जिसमें से प्रत्येक 360 दिन का होता है। वर्तमान मन्वंतर को वैवस्वत कहा गया है। ब्रह्मऋषियों के पास सभी 14 दिव्य रत्न हैं जो उन्हें समुद्र मंथन से प्राप्त हुए हैं। समुद्र मंथन एक ध्यान-योग की यौगिक क्रिया है। विश्वामित्र नाम के राजा ने इन दिव्य रत्नों में से एक कामधेनु को ब्रह्मऋषि वसिष्ठ के पास देखा और उसे प्राप्त करने के लिए महान तपस्या की। इस तपश्चर्या में बाह्य केवल-कुंभक और मूर्छा प्राणायाम मुख्य थे जिनका अनुशरण कर उन्होंने तपश्चर्या में वर्षों तक श्वास-प्रश्वास को दीर्घ काल तक रोकने का अभ्यास किया और प्राणजय सिद्धि प्राप्त की।
मूर्छा प्राणायाम की विधि –
– श्वास -प्रश्वास क्रिया को रोक कर, खेचरी मुद्रा लगाने के बाद, बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम के साथ, शक्ति चालिनी क्रिया के साधन से, नाभिस्थ मणिपुर चक्र जाग्रत होता है। यहां सुषुम्ना नाड़ी का उद्गम है, जिसे जाग्रत कर ध्यान-योगी अपने मुण्ड में चेतना को प्रवेश कराते हैं। मणिपुर चक्र में अग्नि तत्त्व है।
– मुण्ड में चेतना के प्रवेश के बाद, निष्काम योगी की दंत पंक्तियां एक दूसरे के ऊपर जम सी जाती हैं, जैसे किसी मूर्छित व्यक्ति में देखा जाता है। इसे ही मूर्छा प्राणायाम कहते हैं। इसके अभ्यास से जीवभाव त्याग कर आत्मा चैतन्य स्वरूप में स्थित होता है, ध्यान में, सुषुप्तावस्था में, दृष्टिगोचर होता है। चैतन्य तत्त्व ही सभी सिद्धियों का वाहक है।
विश्वामित्र मूर्छा प्राणायाम अभ्यास के फलस्वरूप जीवभाव से स्व-आत्मा को मुक्त कर चैतन्य तत्त्व को धारण करने में समर्थ हुए। इस एक विधा से वह अपने सहस्रार तक आत्मचेतना को ले जा सके, विषयों और सिद्धियों में आसक्ति का त्याग कर तथा परम् पद स्वरूप ब्रह्मऋषि उपाधि से विभूषित हुए।
ब्रह्मऋषि विश्वामित्र ने गायत्री महामंत्र दिया जिसमें किसी भी ध्यान-योगी को ब्रह्मऋषि/महाऋषि बनाने की क्षमता है। विश्वामित्र से लेकर याजवल्क्य तक 24 महर्षि ऐसे हैं जिन्होंने गायत्री मंत्र के अभ्यास से वेदों में निहित विज्ञान का लाभ उठाया है।
मूर्छा प्राणायाम ध्यान-योगी को परमशिवलोक सहस्रार तक ले जाता है जब वह सभी इच्छाओं का त्याग कर देता है। इसे महर्षि पतंजलि ने योगसूत्रों में निर्विकल्प, निर्बीज समाधि और श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने चेतना की सर्वोच्च अवस्था में नैष्कर्म सिद्धि कहा है। ज्ञान की इस परम् स्थिति में, इच्छाहीनता और कालातीत के पर्यायवाची चेतना की इस अवस्था में इस ध्यान / ब्रह्म-योगी के लिए सभी 14 दिव्य रत्न उपलब्ध हो जाते हैं, अमृत भी, साथ ही अष्टमहासिद्धियां भी।
इस प्रकार गायत्री विद्या वेदों का सार है और गायत्री मंत्र वेद माता है। अकेला यह एक मंत्र सबसे शक्तिशाली है और एक योगी अष्टांग योग का उपयोग कर समुद्र मंथन के लगभग सभी 14 दिव्य रत्नों को प्राप्त कर सकता है।
समुद्र मंथन एक मिथक नहीं बल्कि यौगिक जीवन शैली है। सूचना प्रौद्योगिकी के साथ आधुनिक मानव सभ्यता ने प्रत्येक व्यक्ति को वैदिक सभ्यता और संस्कृति की समृद्ध परंपरागत विद्याओं को सीखने का मार्ग प्रशस्त किया है, जो कि पूर्वकाल में केवल वैदिक ऋषियों की ही अनन्य संपत्ति थी।
इस दिशा में प्रारंभिक कदम होगा एक योगी की जीवन शैली का निरंतर अभ्यास रूप से पालन करना। यहां एक गृहस्थ के रूप में वर्तने वाले कर्त्तव्यों को भी पूरा करना चाहिए, बिना कर्मफल में आश्रित हुए अथवा उनमें आसक्ति के बिना। पूर्ण अवतार भगवान् श्रीराम और भगवान् श्रीकृष्ण भी अपने स्व-धर्म के रूप में अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए, गृहस्थ के रूप में ही अपना जीवन व्यतीत करते थे।
गायत्री तभी फलदायी होती है जब योग आसन और मूर्छा प्राणायाम का अभ्यास उसके फलों के प्रति आसक्ति के बिना किया जाता है। जब गायत्री पुरश्चरण किया जाता है, तो व्यक्ति आसानी से सदेह ही स्वाधिष्ठान चक्र स्थित भवसागर पार कर जाता है ध्यान-योग से, मोक्ष को उपलब्ध होता है, जीवन्मुक्त हो जाता है।
धन्य हैं वे जो यौगिक जीवन शैली का पालन करते हैं तथा वर्तमान श्वेत वराह कल्प के प्रारंभ से ही मानव को ज्ञात विद्याओं में सर्वोत्तम ब्रह्म विद्या का अभ्यास करते हैं।
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