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मूर्ति रहस्य
श्री अरुण कुमार उपाध्य (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- अधिकांश स्वघोषित तथा पर निन्दक विद्वानों से मेरी माता अधिक शिक्षित लगती हैं जो केवल प्राथमिक कक्षा तक पढ़ीं थीं। उस प्रकार के करोड़ों भक्त तथा विद्वान् भारत में सदा से रहे हैं। काशी विश्वनाथ तथा पुरी जगन्नाथ में भेद करने पर मुझे माता ने डांटा था तथा कहा कि यह पाप है। बहुत बाद में पता चला कि नारद तथा शांडिल्य भक्ति सूत्रों में इसे नाम अपराध कहा है।
गजेन्द्र मोक्ष पाठ करते समय शंकराचार्य तथा रामानुजाचार्य के अद्वैत वेदान्त का अन्तर समझा दिया जिसे नहीं समझ कर विद्वान् विवाद करते हैं। निर्विशेष दीखता नहीं है, अतः उसका उपवर्णन होता है। जिसका बाहरी रूप या लिङ्ग दीखता है, उसी का वर्णन सम्भव है।
स वै न देवासुर मर्त्य तिर्यङ्,
न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन्,
निषेध शेषो जयतादशेषः॥
एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिधाभिमानाः—।
इस पर कुछ मत-वादी बिना अर्थ समझे अश्लीलता का आक्षेप करते हैं। निर्विशेष को तुलसीदास के शब्दों में नेति नेति कहते हैं-न देव, न असुर, न गुण, न कर्म—।
घर में मूर्ति, मिट्टी या गोबर माध्यम से पूजा करने वाला ही वास्तव में चराचर जगत् में ब्रह्म का एकत्व देख रहा है। यदि वह केवल उस मूर्ति की पूजा करता तो उसके बाद विसर्जन नहीं करता। या अन्य घर या मन्दिर की मूर्तियों को तोड़ देता। ब्रह्म का एकत्व नहीं देखने वाले केवल अपनी मूर्ति की पूजा करते हैं, दूसरे की मूर्तियां तोड़ते हैं, या उनको मानने वालों की हत्या करते हैं। ईसा को शूली पर चढ़ाने वाले अपने को उनका भक्त कहते हैं तथा शूली सहित मूर्ति गले से गर्व सहित लटकाते हैं। बाकी एकत्व मानने वालों की हत्या करते हैं।
इसी प्रकार पैगम्बर मुहम्मद के पूरे परिवार की हत्या करने वाले अपने को असल मुस्लिम कहते हैं तथा अन्य मुस्लिम वर्गों से युद्ध करते है। केवल काबा, मक्का का फोटो घर में रखना अच्छा है, अन्य घरों में मूर्तियों को तोड़कर उसे मस्जिद बनाते हैं। कुछ लोगों के अनुसार दयानन्द की मूर्ति लगाना पुण्य है, पर भगवान राम की मूर्ति का नाम लेना भी पाप तथा वेद विरुद्ध है।
घरों में तुलसी पूजा का यह अर्थ नहीं है कि अन्य घरों के तुलसी वृक्ष या अन्य वृक्षों से शत्रुता है। हर प्रतीक में एक ब्रह्म का दर्शन केवल इसी अभ्यास से होता है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१४/१)। तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत्। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६/६)
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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